ग़ज़ल


इश्क में बस वो सितम करते रहे।

और हम हंसकर के सब सहते रहे।।


ज़िन्दगी जीने की क़ीमत है यही,

हर घड़ी घुट-घुट के ही मरते रहे।


जिनको सींचा हमने अपने ख़ून से,

फूल वो भी शूल बन चुभते रहे।


ख़त में सब जज़्बात हमने लिख दिए,

और वो बस शब्द ही पढ़ते रहे।


कोई भी साया न काम आया कभी,

ज़िन्दगी भर धूप में चलते रहे।


इस क़दर दहशत में पूरा बाग़ है,

बाग़बां सैयाद को कहते रहे।


आग के दरिया से भी खेले हैं हम,

और वो शबनम से भी जलते रहे।


हम क़सम खाते थे वो मासूम है,

और हम पर दोष वो मढ़ते रहे।


नेट, मोबाइल का दिल से शुक्रिया,

दूर रहकर भी सदा मिलते रहे।


हम जहाॅं से भी गुजरते हैं विजय,

कहकशां से रास्ते सजते रहे।

                  विजय तिवारी, अहमदाबाद


"प्रीत की ग़ज़ल



कभी पीपल, घना बरगद ,कभी तुलसी है मेरी मां‌

मिरा आंचल कभी साया ,बनी बदली है मेरी मां।।


मैं फल हूं मां की मन्नत का, जो दुर्गा मां ने बख़्शा है।

मिटाऊं ज़ुल्म दुनियां से, सदा कहती है मेरी मां।‌


ज़मीं और आसमां से खुशनुमा रिश्ता बनाएं रख।

सबक इंसानियत का हर घड़ी, देती है मेरी मां।।


बहुत ढूंढा, बहुत देखा, बहुत जाॅचा बहुत परखा।

मिली कोई भी  शै वैसी नहीं, जैसी है मेरी मां।।


नहीं है पास लेकिन रूह में, मेरी समाई है।

मिरे रंग रूप में कहते हैं सब, दिखती है मेरी मां।।


तेरा सर गोद में रख कर, बलाएं तेरी लेती हूं।

"प्रीत" अंदर तेरी ममता उभर आई है मेरी मां।


डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत"


माँ



लुका छिपी जोराजोरी,खटपट हट वाले,

दिन याद आते बड़े,बीते जो कमाल के।

स्वाद याद आता मुझे,रंग चावल दाल का,

हाथों से खिलाया खूब,प्यार से संभाल के।

पर्स को टटोला जब,खाली मिला दिखा तब,

छिपे पैसे तूने दिए,अपने रुमाल के।

चिंता जब आती कभी,देती मां पछाड़ तभी,

हल देती मेरे सभी,उलझे सवाल के।

*

पोर पोर दुखे जब,याद मुझे आती तब,

लाल तेल तूने मला,डांट डांट पांव में।

हरा भरा घर सारा,खुशियों के ढेर सारे,

छोड़ सारे चली गई,रोते धोते गांव में।

कैसी बुरी रात आई,अंधड़ को साथ लाई,

नदिया की बीच धार,डूबी जान नांव में।

याद तेरी आती बड़ी,ममता से भरी मां,

मन करता है मेरा,रहूं तेरी छांव में।


©वैशाली रस्तौगी

जकार्ता,इंडोनेशिया


जीवन के नियम



क्या जीवन जीने का भी कोई नियम है,

या  फिर बस, ये कुछ संयोग और बहुत सारा भ्रम   है।

क्यों ये बांटा  है मुल्क और समाज के दायरों में, 

सबकी अलग अलग खुशी अलग  गम हैं।

सब  इतने अलग और अनोखे हैं, 

क्या  ये नियम तो बस धोखे हैं

इनसे ना नापें अपनी सफ़लता, असफ़लता नापें...

बस हौसला रखें खुद पे , 

न  देखें अपने और पराए

सिर्फ नियम नहीं खुद को बनाएं..

 प्रगति का रास्ता बने और बनाते जाएं...

 करते जाएं कुछ नया 

जिससे हो हमारी पहचान इन नियमों से अलग । 

साधना 

खिड़की भर दुनिया



अस्पताल की खिड़की से

दुनिया कुछ अलग दिखती है—

यहाँ समय की चाल धीमी,

पर बाहर ज़िंदगी तेज़ भागती है।


खिड़की के पार

धूप एक पतली-सी किरण में

मेरे बिस्तर तक आती है,

जैसे कहती हो— “मैं अब भी तुम्हारे साथ हूँ।”


दूर सड़क पर

किसी बच्चे की हँसी उड़ती है,

किसी ऑटो की सीटी,

किसी पेड़ की शाखों पर झूमती हवा—

ये सब मिलकर बताते हैं

कि दुनिया रुकती नहीं।


अंदर बीप-बीप मशीनें,

दवाइयों की महक,

धीमे कदमों वाले नर्सों के साये—

और बाहर

खुला आसमान अपने पूरे रंगों के साथ।


खिड़की का काँच

जैसे दो दुनियाओं के बीच

एक पतला पर्दा है—

एक में दर्द है, इलाज है, धीरज है,

दूसरी में उम्मीद, रोशनी और जीवन का शोर।


मैं रोज़ इस खिड़की से

थोड़ी-सी दुनिया उधार लेता हूँ,

और दुनिया

थोड़ी-सी हिम्मत मुझे लौटा देती है।


डॉ कनक लता तिवारी


विवाह पंचमी : मर्यादा, भक्ति और आदर्श दांपत्य का उत्सव

विवाह पंचमी हिन्दू संस्कृति का एक अत्यंत पवित्र पर्व है, जो भगवान श्रीराम और माता सीता के दिव्य विवाह की स्मृति में मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। यह दिन अयोध्या, मिथिला और सम्पूर्ण भारतवर्ष में धर्म, मर्यादा, प्रेम और आदर्श दांपत्य के प्रतीक के रूप में विशेष भक्ति के साथ मनाया जाता है।

विवाह पंचमी का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

१. आदर्श दांपत्य का प्रतीक

राम–सीता विवाह भारतीय संस्कृति में पति–पत्नी के बीच

समर्पण,सहयोग,समानता,करुणाऔर कर्तव्य–निष्ठा का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है।

 विवाह पंचमी पर श्रद्धालु इन दिव्य आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प करते हैं।

२. जनकपुर और अयोध्या में विशेष उत्सव

जनकपुर (नेपाल) में जहाँ माता सीता का जन्म हुआ, वहाँ इस दिन विशाल वैवाहिक शोभायात्राएँ, नृत्य, संगीत और भजन–कीर्तन होते हैं।

अयोध्या में श्रीराम विवाह के मंगलगीत, गोपियों और स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले पारम्परिक विवाह गीत वातावरण को अद्भुत आध्यात्मिक आनंद से भर देते हैं।

माता सीता को प्राप्त करने के लिए आयोजित स्वयंवर में संसार के अनेक राजकुमार उपस्थित हुए, परंतु भगवान राम ने ही शिवजी का दिव्य धनुष उठाकर तोड़ने का अद्भुत सामर्थ्य दिखाया।

 धनुष–भंग के साथ ही सभी देवताओं ने जयध्वनि की, और राजा जनक ने भरपूर श्रद्धा से अपनी पुत्री का हाथ श्रीराम को सौंपा। यह विवाह केवल दो दिव्य आत्माओं का मिलन ही नहीं, अपितु—

माना जाता है।

🌼 धर्म और मर्यादा का संगम

🌼 कर्तव्य और करुणा का संयोग

🌼 सीधा, सहज और संतुलित जीवन का पाथेय

रामचरितमानस में राम विवाह 

राम विवाह का प्रसंग अत्यधिक रोचक और सारगर्भित ढंग से तुलसी दास जी ने किया है। दोहा संख्या 322 से यह आरम्भ होता है। छंद का विद्यार्थी होने के नाते यह बात यहाँ कहना आवश्यक समझता हूं कि बाबा तुलसीदास हिंदी छन्दों में सर्वोत्तम हैं। राम विवाह के विवरण में उन्होंने सर्वाधिक हरिगीतिका छंद का प्रयोग किया है। उदाहरण स्वरूप एक छंद उधृत है।

चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।

नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥

कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।

मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥


सुंदर मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं। उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें भी लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर बज रहे हैं।

सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।

छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥

सहज ही सुंदरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥322॥

आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।

सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥

मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।

भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥

कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं)। देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाह मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं॥1॥

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।

एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥

सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।

मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥

स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का प्रेम किसी को लख नहीं पड़ रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि और वाणी से भी परे है, उसे कवि क्यों कर प्रकट करे?॥2॥

आईये राम सीता विवाह के कुछ तथ्य को जानते हैं। मार्गशीर्ष शुक्ल की पंचमी के दिन राम और सीता का विवाह हुआ था, यह भी कहा जाता है कि श्रेष्ठ पण्डित और ज्योतिष के महा ज्ञानी मुनि वशिष्ठ ने कुंडली मिलाई थी और 36 में से 36 गुण मिले थे। परन्तु मांगलिक दोष के कारण सीता और राम का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रह ऐसा माना जाता है।

 इसी कारण भारत के कई स्थानों में इस दिन विवाह नहीं किए जाते हैं। नेपाल और मिथिलांचल में भी इस दिन विवाह नहीं किया जाता है।  

है। परन्तु साथ ही साथ यह भी उदाहरण दिया जाता है जब किसी सुखी दम्पति को देखते हैं तो कहते है कि

 "सीता राम की जोड़ी है" 

कुछ भी हो राम विवाह सर्वाधिक चर्चित विवाह है और विवाह पंचमी भी उत्सव का दिन है।


आज के समय में जब रिश्तों में अविश्वास, अपेक्षा और दबाव जैसे संकट उभरते हैं, तब राम–सीता विवाह हमें याद दिलाता है कि—

दांपत्य केवल आकर्षण का संबंध नहीं, कर्तव्य और विश्वास का आधार है।

विवाह बंधन नहीं, बल्कि समर्पण से निर्मित साथीपन है।

आदर्श परिवार मर्यादा, संवाद और परस्पर सम्मान से ही बनता है।

राम–सीता का आदर्श हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में कितनी ही विपत्तियाँ क्यों न आएँ,

 धर्म, सत्य और धैर्य हमारे सबसे बड़े सहायक होते हैं।

विवाह पंचमी केवल एक पौराणिक स्मृति नहीं, बल्कि सौहार्द, प्रेम और मर्यादा का उज्ज्वल पर्व है।

 इस दिन हम सभी को अपने भीतर सहनशीलता, कर्तव्य, करुणा और परस्पर सम्मान जैसे गुणों को जाग्रत करने का संकल्प लेना चाहिए, ताकि हमारा व्यक्तिगत जीवन भी उतना ही मंगलमय और पवित्र बन सके जितना कि श्रीराम–सीता का आदर्श दांपत्य।


सुरेश चौधरी “इंदु


सनातन दर्शन में धर्म ध्वज का महत्व


25 नवम्बर को अयोध्या में श्री राम मंदिर पर धर्म ध्वज फहराया जाएगा। क्या आपको पता है सनातन दर्शन में धर्म ध्वज का क्या महत्व है? आईये जानते हैं। 


वैदिक सनातन धर्म ध्वज

वेदों में ग्रन्थों में ध्वज का विस्तृत विवरण कई स्थानों में दिया गया है। आईये जानते हैं हमारे ध्वज की महत्ता :,


अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु।

अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु।। ऋग्वेद, 10-103-11, अथर्ववेद, 19-13-11

अर्थात्, हमारे ध्वज फहराते रहें, हमारे बाण विजय प्राप्त करें, हमारे वीर वरिष्ठ हों, देववीर युद्ध में हमारी विजय करवा दें। इस मंत्र में युद्ध के समय ध्वज लहराता रहना चाहिये।


उद्धर्षन्तां मघवन्वाजिनान्युद्वीराणां जयतामेतु घोष:।

पृथग्घोषा उलुलय: केतुमन्त उदीरताम्।। अथर्ववेद, 3.19.6

अर्थात्, हमारी सब सेनाएं उत्साहित हों, हमारे विजयी वीरों की घोषणाएं (आकाश में) गरजती रहें, अपने-अपने ध्वज लेकर आनेवाले विविध पथों की घोषणाओं का शब्द यहां निनादित होता रहे। 


अमी ये युधमायन्ति केतून्कृत्वानीकश:। वही, 6.103.3 अर्थात्, ये वीर अपनी सेना की टुकडिय़ों के साथ अपने ध्वज लेकर युद्ध में उपस्थित होते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि अति प्राचीन युग में भारतीय-ध्वज का स्वरूप कैसा था ? ऋग्वेद में कहा गया है – अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा।। अथर्ववेद, 6.126.3 अर्थात्, उगनेवाली सूर्य की रश्मियां, तेजस्वी अग्नि की ज्वालाएं (फड़कने वाले) ध्वज के समान दिखाई दे रही हैं। इस मंत्र से यह निश्चित होता है कि वैदिक आर्यों के ध्वज का आकार अग्नि-ज्वाला के समान था।


वेदों में कई स्थानों पर अग्नि-ज्वाला के आकारवाले ध्वज का वर्ण भगवा स्पष्ट किया गया है 

"एता देवसेना: सूर्यकेतवः सचेतसः।

अमित्रान् नो जयतु स्वाहा ।।"

(अथर्ववेद ५.२१.१२), 

"अरुणैः केतुभिः सह "

(अथर्ववेद ११.१२.२)


उपरोक्त मन्त्रों में अरुण, अरुष, रुशत्, हरित, हरी, अग्नि, रजसो भानु, रजस् और सूर्य – ये नौ शब्द ध्वज का वर्ण निश्चित करते हैं। हरित और हरी – इन शब्दों से हल्दी के समान पीला रंग ज्ञात होता है। सूर्य शब्द सूर्य का रंग बता रहा है। यह रंग भी हल्दी के समान ही है। अरुण रंग यह उषाकाल के सदृश कुल लाल रंग के आकाश का रंग है। अरुष तथा रुशत् – ये शब्द भी भगवे रंग के ही निदर्शक हैं। रजस तथा रजसो भानु – ये शब्द सूर्य किरणों से चित्रित धूल का रंग बता रहे हैं। इन मन्त्रों में ध्वज को अग्नि ज्वाला, विद्युत, उगता हुआ सूर्य तथा चमकनेवाला खंग – ये उपमाएं दी हुई हैं। इसमें निर्णायक उपमाएं रजसो भानुं तथा अरुण: – ये हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन पदों में निदर्शित रंग भगवा ही है। इन नौ पदों से यद्यपि भगवे रंग की न्यूनाधिक छटाएं बताई गई हैं, तथापि पीला तथा लाल भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्रम् में युद्ध में देवताओं द्वारा दानवों के पराजित होने पर इन्द्र के विजयोत्सव में मनाये गये ध्वज-महोत्सव का उल्लेख मिलता है। 

सूर्यमण्डलान्तर्गत सूर्यस्वरूप सर्वरूप अप्रतिरूप शिव अपनी ध्वजा

और पताका पर सूर्यका चिह्न धारण करते हैं।


*नमोऽस्त्वप्रतिरूपाय विरूपाय शिवाय च।

सूर्याय सूर्यमालाय सूर्यध्वजपताकिने।।*

(महाभारत - शान्तिपर्व २८४.८१)

त्रिकोण रक्तवर्ण के वस्त्रपर अङ्कित श्वेत वर्ण के सूर्य को वैदिक ध्वज माना गया है 


उपरोक्त मंत्रों से स्प्ष्ट है कि वैदिक सनातन ध्वज की संरचना में मुख्य उसका रंग है जो कि यज्ञ की पावन अग्नि , उगते हुए सूर्य और उत्साह एवं वीरता के प्रतीक भगवा है। इसके मध्य में श्वेत वर्णीय सूर्य है और सूर्य के मध्य सबका कल्याण हो ऐसी स्वस्ति कामना करता स्वस्तिक चिन्ह है। 

आजतक वैदिक सनातन धर्म ध्वज की वंदना किसी ने नहीं लिखी। आईये मेरी लिखी ध्वज वन्दना पढिये और नववर्ष पर न केवल ध्वजारोहण करें बल्कि इस वन्दना को गायें भी।


सनातन धर्म ध्वजा की वंदना


(पञ्चचामर)

नमामि धर्म ज्योति वर्तिका नमामि हे   ध्वजा

नमामि  मातृ  भूमि चण्ड सी प्रचण्ड की मृजा

विराट  धर्म  गान  की .बने  ध्वजा विशेष हो

न  शेष हो   विशेष हो  अशेष  वेश   देश हो


धरित्रि  की पवित्र  चारुता ध्वजा  विहारिणी

नमो  नमो  ध्वजा  सनातनी  प्रभा  प्रसारिणी

नमो  नमो   ध्वजा   उड़े  सनातनी   सनातनी

प्रबोध  बोध  शोध  हो प्रकल्प  कल्प बांधनी


रुके  नहीं   झुके  नहीं   सुकेशरी  सुभाषिणी

ऋचा प्रभात  वेद  सी  लिए  सुगीत  धारिणी

न  ताप  में   जले  गले  बढ़े  पयोधि  उर्मि सा

रगों    रगों   उमंग    सङ्ग  हे  नमामि धर्मिता


ध्वजा महान   आन बान शान  देश प्राण की

नमामि उच्च व्योम देखती निशान  ज्ञान  की

ध्वजा   निषिद्ध  द्वार  द्वार  तू   हमें  सँवारती

नमो   नमामि   पूजता   तुझे   उतार  आरती




(लावणी)

जयति  जयति  वैदिक  सिद्ध ध्वजा तेरी उतारूँ आरती

तेरी   उतारूँ  मैं   आरती,   ध्वज   लहर लहर  लहराए

उच्च  गगन में  भानु  की भांति, केसरिया व्योम सजाएं

भगवा   मन  है  भगवा  तन  है,  भगवा आदर्श  बनायें


लोहित  रोहित  मोहित  दर्शन अम्बर  क्षितिज  संवारता

ले  उदित भानु अनल शिखा का, प्रभास भगवा पुकारता

विश्वगुरु प्रगल्भ ज्ञान ज्योति, ऋषि मुनि प्रज्ञ जय भारती

जयति  जयति  वैदिक  सिद्ध ध्वजा, तेरी  उतारूँ आरती


रक्ताभ   व्योम   से   अरुणाई,  चक्षो  सूर्य  जायते कह

विश्व  अंतरात्मा. दृष्टा  रवि, ध्वज  शोभित  श्रेष्ठ अनुग्रह

आर्यभूमि   की   गौरव   गाथा, सर्वत्र   ध्वज   पखारती

जयति  जयति  वैदिक  सिद्ध ध्वजा, तेरी  उतारूँ आरती


लक्षित  व्योम  होम रक्षित नत, आदेशित स्वस्ति कामना

आदित्य  मध्य स्वस्तिक  मंडित, सर्वभौम  सा  महामना

विश्व   शांति  आरोग्य  साधना,  चिदाकाश  ब्रह्म  धारती

जयति  जयति  वैदिक  सिद्ध ध्वजा, तेरी  उतारूँ आरती


पावन   ऋचाएँ  कर   समाहित, पवन  वेग  सा  लहराए

सत्य सनातन संस्कृति दर्शन, जगत  को प्रथम दिखलाए

वैदिक  सत्य  धर्म  ध्वज वन्दन, अध्यात्म प्रज्ञा पखारती

जयति  जयति. वैदिक  सिद्ध  ध्वजा, तेरी  उतारूँ आरती

सुरेश चौधरी : 

'वर्नाक्युलर घोषणा': भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का अपमान

भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ दर्ज हैं। इन भाषाओं में हस्ताक्षर करना, बोलना और लिखना प्रत्येक भारतीय नागरिक का मूलभूत अधिकार और उसकी सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। परंतु, स्वतंत्रता के 78 वर्षों बाद भी, भारत की आर्थिक व्यवस्था और वित्तीय संस्थाएँ एक ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता को ढो रही हैं जो भारतीय भाषाओं को हीन और उनके उपयोगकर्ताओं को 'अनपढ़' मानती है। बैंक और वित्तीय संस्थाओं द्वारा हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों से कराई जाने वाली ‘क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’ (वर्नाक्युलर घोषणा) इसी निंदनीय मानसिकता का स्पष्ट प्रमाण है। यह प्रथा न केवल भाषाई भेदभाव है, बल्कि करोड़ों नागरिकों के आत्म-सम्मान पर सीधा आघात है।

क्या है ‘क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’?

‘वर्नाक्युलर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'किसी क्षेत्र की स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा'। वित्तीय संस्थाओं, विशेषकर बैंकों, में यह घोषणा-पत्र उन ग्राहकों से भरवाया जाता है जो अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर नहीं करते हैं, बल्कि हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, या किसी भी अन्य भारतीय भाषा (जिसे वे 'क्षेत्रीय भाषा' (वर्नाक्युलर लैंग्वेज) कहते हैं) में हस्ताक्षर करते हैं। इस घोषणा पर हस्ताक्षर करके ग्राहक एक तरह से यह स्वीकार करता है कि:

वह अंग्रेज़ी नहीं जानता है।

उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की सामग्री को समझने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता है।

कुछ मामलों में, इसे सीधे तौर पर 'अनपढ़' या ‘अंगूठा लगाने वाले’ व्यक्ति की श्रेणी में रखा जाता है।

यह प्रावधान मूल रूप से अंग्रेज़ी शासन के दौरान उन ग्रामीण और अनपढ़ नागरिकों के लिए बनाया गया था, जो किसी भी भाषा में पढ़ने या हस्ताक्षर करने में सक्षम नहीं थे, और उन्हें धोखाधड़ी से बचाने के लिए किसी शिक्षित गवाह की आवश्यकता होती थी। यह अत्यंत खेदजनक है कि भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले साक्षर नागरिकों को भी आज उसी श्रेणी में रखा जा रहा है।

साक्षरता और भाषा की भ्रामक पहचान

इस घोषणा का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि यह साक्षरता को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़कर देखता है। भारत में करोड़ों नागरिक उच्च शिक्षित हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से पूरी की है और वे अपनी भाषा में लिखने-पढ़ने में पूर्णतः सक्षम हैं। एक डॉक्टर, इंजीनियर, या सरकारी अधिकारी भी, जो अपनी पहचान और सम्मान के लिए हिन्दी या तमिल में हस्ताक्षर करता है, उसे इस घोषणा के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से 'अशिक्षित' या 'समझ से कम' मान लिया जाता है।

यह न केवल भाषाई रूढ़िवादिता है, बल्कि राष्ट्र के संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। संविधान की राजभाषा हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने पर यदि बैंक किसी नागरिक से यह घोषणा करवाते हैं कि 'मेरे सामने पढ़ा गया और मैंने समझा', तो यह स्पष्ट करता है कि बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली आज भी मानती है कि ज्ञान का एकमात्र पैमाना अंग्रेज़ी भाषा ही है।

अधिकारों का हनन और गोपनीयता का उल्लंघन

जब किसी ग्राहक को यह घोषणापत्र भरना पड़ता है, तो उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की गोपनीयता बनाए रखने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति (साक्षी) पर निर्भर रहना पड़ता है। यह ग्राहक की व्यक्तिगत वित्तीय जानकारी और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन है। यदि ग्राहक अपनी भाषा में दस्तावेज़ पढ़ और समझ सकता है, तो उसे किसी तीसरे व्यक्ति की क्या आवश्यकता है? यह प्रक्रिया अनावश्यक रूप से ग्राहक की वित्तीय प्रक्रिया को जटिल बनाती है और उसे एक हीन भावना से भर देती है।

भारतीय रिज़र्व बैंक को पत्र और नियामक का हस्तक्षेप

इस अपमानजनक प्रथा को समाप्त करने के लिए लेखक ने दिनांक 27 जून 2025 को एक विस्तृत पत्र भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर तथा वित्त मंत्रालय को भेजा था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि "वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन" न केवल असंवैधानिक (अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन) है, बल्कि जिस ग्राहक को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसी से यह घोषणापत्र अंग्रेज़ी में भरवाना एक "हद दर्जे की धोखेबाजी व जालसाजी" है।

पत्र में यह भी तर्क दिया गया था कि यह प्रावधान आरबीआई की ग्राहक अधिकार संहिता का उल्लंघन है, जिसमें ग्राहक को समझने योग्य भाषा में सूचना प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।

आरबीआई की प्रतिक्रिया (दिनांक 11 अगस्त 2025):

आरबीआई ने अपने उत्तर में स्वीकार किया कि उनके द्वारा जारी विभिन्न मास्टर निदेश और परिपत्र यह सुनिश्चित करते हैं कि:

1. उधारकर्ता के लिए सभी संसूचना स्थानीय भाषा अथवा उधारकर्ता द्वारा समझी जानी वाली भाषा में होनी चाहिए।

2. ऋणों और अग्रिमों के लिए मुख्य तथ्य विवरण (केएफसी) उधारकर्ता द्वारा समझी जाने वाली भाषा में लिखा जाएगा।

3. बैंकों को खाता खोलने के फॉर्म, पास-बुक आदि सहित ग्राहकों द्वारा उपयोग में लाई जानेवाली सभी मुद्रित सामग्री को त्रैभाषिक रूप से (संबंधित क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी व अंग्रेज़ी) में उपलब्ध कराना चाहिए।

आरबीआई ने स्वयं द्वारा जारी किए गए इन नियमों का उल्लेख करते हुए, इस मामले की गंभीरता को स्वीकार किया और सूचित किया कि इस विषय से संबंधित ईमेल को "निरीक्षण विभाग को उचित कार्यवाही के लिए अग्रेषित किया गया है।"

आरबीआई के अपने नियम स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि ग्राहकों को उनकी भाषा में संसूचना मिलनी चाहिए। ऐसे में, किसी साक्षर नागरिक से उसकी अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर, उसे अतिरिक्त और अपमानजनक 'वर्नाक्युलर घोषणा' करने के लिए बाध्य करना नियामक के ही निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। यह तथ्य कि एक नागरिक की शिकायत पर केंद्रीय बैंक ने मामले को निरीक्षण के लिए भेजा है, यह दर्शाता है कि यह औपनिवेशिक प्रथा अब नियामकीय जाँच के दायरे में आ चुकी है।

आत्म-सम्मान की बहाली आवश्यक

'क्षेत्रीय भाषा की घोषणा' केवल एक कागज़ी औपचारिकता नहीं है; यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक संस्थागत पूर्वाग्रह है। आरबीआई द्वारा अपने ही नियमों का हवाला देने और मामले को निरीक्षण विभाग को भेजने के बाद, अब वित्तीय संस्थाओं को इस प्रथा को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।

बैंकिंग प्रणाली को यह स्वीकार करना होगा कि साक्षरता का अर्थ अंग्रेज़ी साक्षरता नहीं है। यदि किसी नागरिक का खाताधारक पहचान पत्र (केवाईसी) साक्षरता प्रमाणित करता है, तो उसे अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर अतिरिक्त और अपमानजनक घोषणा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।

यह समय है कि भारत की वित्तीय संस्थाएँ भाषाई आत्म-सम्मान को प्राथमिकता दें और अपनी ही भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले देश के करोड़ों साक्षर नागरिकों को 'अनपढ़' की श्रेणी से बाहर निकालें। यह सुनिश्चित करना अब भारतीय रिज़र्व बैंक के निरीक्षण विभाग की ज़िम्मेदारी है, ताकि हमारा बैंकिंग तंत्र समावेशी और वास्तव में भारतीय कहलाए।

प्रवीण जैन 

वाह द्वारका एक्सप्रेस मार्ग!तेरा भी जवाब नहीं!!


वाह द्वारका एक्सप्रेस मार्ग!

तेरा भी जवाब नहीं!!


तू फैशनपरी-सा है! कुछ भी पहने, कहीं भी पहने! अंटशंट! मैं अपनी शादी में न जाऊँ जैसी स्वच्छन्दता!  

या फिर इस पर काम करने वाले कुछ लोग इतने भैंसबुद्धि हैं कि कहीं भी जुगाली करें और जहाँ चाहे गोबर कर दें ! 


आपको लग रहा होगा, मैं बिना बात हवा में लाठी घुमा रहा हूँ। कसूर मेरा ही है। मैं अंग्रेजी से ही मतलब रखता तो यों सनक में न आता! कोसता हूँ अपनी उस आँख को जो हिंदी को भी ध्यान से पढ़ती है--अपना समझ कर! मैं भी उसे गई-गुजरी मानकर यतीमखाने में छोड़ आता, और उसकी शक्ल भी न देखता तो चैन से जी पाता!



आप ही देखिए! यह गुरुग्राम का द्वारका एक्सप्रेस मार्ग हाल में ही बना है। अभी नई नवेली दुल्हन की तरह सजा है। पर इस पर लगे हिंदी के नामपट्ट देखो! लगता है, लंदन से बनकर आए हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अँधेर नगरी में लिखा था न -- मानहु राजा रहत बिदेसा।  सचमुच यहाँ की सड़कों का राजा तो विदेश में ही बसा है। वही छूट दे रहा है-- लिखो, जैसे भी लिखो। यह हिंदी गरीब की जोरू है, इसे चाहे जैसे भी छेड़ो। कहीं से विरूप कर डालो, विद्रूप कर दो। और तुम गोरे क्यों करते हो, इन्हीं हिंदी वालों से करवाओ। हमने इनकी हिंदी को इन्हीं की नज़रों में इतना गिरा दिया है कि ये अब खुद अपनी माँ बोली का हुलिया बिगाड़ देंगे। इन्हें अपनी हिंदी को गरिमामय बनाने न दो। इनके दिमाग़ में भर दो कि भाषा का व्याकरण सीखने की कोई जरूरत नहीं। कैसे भी बोलो, कुछ भी बोलो! शुक्र है, गणित इनके हाथ नहीं चढ़ा। वरना कहते -- क्या फर्क पड़ता है, 3+3 लिखो या 3×3.

द्वारका एक्सप्रेस वे के नामपट्ट कोई हिंदी का जानकार बनवाता तो यह जरूर ध्यान रखता कि हिंदी में लघुनामों की अंग्रेजी जैसी परम्परा नहीं है। परम्परा छोड़ो, ये लघुनाम अंग्रेजी की तर्ज पर लिखे ही नहीं जा सकते। अगर ऐसा सम्भव होता तो हम देश के प्रथम प्रधानमंत्री को ज.ला.नेहरू कहते, कवि केशवलाल को के.ला. कहते, बिहारीलाल को बि.ला.कहते, माखनलाल चतुर्वेदी को मा.ला. कहते। फिर माकपा की तरह उन्हें जला, केला, बिला और माला कहते। 

हिंदी का नौसिखिया से नौसिखिया विद्वान भी यह रहस्य जानता है। फिर भी कोई इसे लिख और लिखवा रहा है तो जरूर उसके पीछे कोई षड्यंत्र बुद्धि है, या खतरनाक लापरवाही है या गड्ढे में फेंक देने वाली विद्रूप मानसिकता -- वही मानसिकता जिसने गुड़गाँव की नई-नई सड़कों के बीच-बीच में ऐसे खतरनाक गड्ढे देखकर भी चुप्पी साध ली है कि मरते हैं तो मरने दो, मुझे क्या?


जिसने भी ये नामपट्ट बनवाए हैं, मैं उनसे कहता हूँ कि इनका उच्चारण करके दिखाओ-- ईंगाँअँ हवाई अड्डा। बोलो, लोग कैसे बोलेंगे ? यह लोगों की जुबान पर कैसे चढ़ेगा? अगर नहीं चढ़ सकता, तो लिखते क्यों हो? क्या अपनी मज़ाक उड़वाने के लिए? 

लिखवाने वाला (कम्बख्त) यह भी नहीं जानता कि हिन्दी के वर्ण शुद्धतम और साक्षात ध्वनि - रूप हैं।  इसका एक- एक वर्ण अर्थ बदलने की क्षमता रखता है। अंग्रेजी की वर्णमाला के वर्ण नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे वाली तबियत के हैं। उसमें  ab का कोई अर्थ नहीं है, किंतु हिन्दी में अ ब पास-पास आ जाएँ तो अब यानी अर्थवान हो जाते हैं। इसीलिए हम अमिताभ बच्चन हों या अभिषेक बच्चन, दोनों को अब नहीं कहते। काशी नाथ सिंह को का. ना. सिंह या कानासिंह नहीं कहते। बताइए, छोटा लिखने के चक़्कर में काना कौन बनना चाहेगा?

परन्तु विदेशियों का हुक्का भरने वाले,  भाषा के सर्वोच्च आसनों को लज्जित करने वाले हमारे ये लज्जाप्रूफ मित्र यह सोचते हैं कि हिन्दी की बर्बादी पर कुछ सोचना समय नष्ट करना है। तभी तो उन्होंने हिंदी व्याकरण को सब्ज़ीमंडी में घूमते आवारा पशुओं की तरह खुला छोड़ दिया । यह आवारा जानवर है। इससे बचो बस! यह कहीं बैठे, कहीं मुड़े, कैसे भी उकडू बैठ जाए, इस पर ध्यान न दो। यह कोई अंग्रेजी या फ्रेंच का मसला थोड़ी है जिसकी नज़ाकत बरकरार रखने के लिए किसी फ्रेंचकट विद्वान को लाखों क्या करोड़ों दिए जाएँगे। और हिन्दी के विद्वानों पर कौड़ी भी खर्च करना अमृत धन को नाले में बहाना है।


ये द्वारका एक्सप्रेस वे के सरगना  इतना ही कर लेते कि इंदिरा के लिए सब जगह इं ही लिख देते। नहीं, कहीं इं, कहीं ईं तो कहीं इ। गाँधी का लघु रूप भी कहीं गाँ, कहीं गां, तो कहीं गा। अंतरराष्ट्रीय तो शुक्र है, लिखा ही नहीं। नहीं तो अंतर्राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय का जिन्न बाहर निकल आता।

अंतरराष्ट्रीय को कहीं अ लिखा है, कहीं अं तो कहीं अँ। कोई आपत्ति भी नहीं उठाता। सब जानते हैं कि हिन्दी बनाना स्टेट है। कुछ भी बोलो, लिखो! वह केवल खाया जाने के लिए बना है। केले में हड्डी तो होती नहीं। वह हाथ लगाते ही पिघल जाता है। 

जरा ध्यान से देखें। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा की कितनी वर्तनियाँ हैं, कितने रूप हैं! कोई रूप टिकता ही नहीं। मज़े की बात यह है कि किसी को दिखता नहीं। और जिसे दिखता है,  उसे चुभता नहीं। वे संन्यासी हो गए हैं -- सुख दुख से परे, मान -अपमान से परे! या धोबी के गधे, जिसे चाहो लात मारो, चाहे डंडा, उसे धोबी का भार उठाना है। 


द्वारका एक्सप्रेस वे पर, जिसे बनाने में हज़ारों करोड़ रुपये लगे, वहाँ अड्डा भी लिखा है, अड् डा भी, और अडड्ा भी। मज़े की बात -- यह अडड्ा होकर भी नहीं हो सकता। फिर भी हम देखते नहीं। कैसे हैं हम?

माना कि हिन्दी में दोनों रूप मान्य हैं -- हिंदी और हिन्दी।  परन्तु इतना तो विवेक रखें कि एक लेख में एक ही वर्तनी रहे। यह नहीं कि कहीं हिन्दी, कहीं हिंदी।  इससे चेतना बँटती है, विश्वास को धक्का लगता है। 


परन्तु प्रश्न यह है कि यह जटिल काम करे कौन! हमारे मन का राजा तो बिदेस में है। तन इंडिया में मन लंदन में। जब वह चाहेगा तो हम मानक बनेंगे। वरना छोड़ दो छुट्टे सांड की तरह इसे।  विदेशी मानसिकता ने ही यह नेरेटिव सेट किया है पिछले चार दशकों से -- भाषा मत पढ़ाओ, व्याकरण मत पढ़ाओ! क्या फर्क पड़ता है,  अगर कोई हिंदी को हीन्दी लिख दे। है तो हिंदी ही। वह विदेशी जानता है कि जब यह सर्वसुंदरी हिंदी अपनी व्याकरण- सम्मत मस्त मानक साड़ी में सजधज कर निकलेगी तो ट्रम्प भी हिंडी नहीं हिन्दी बोलने के लिए कोचिंग लेंगे। पर वो ऐसा करेंगे क्यों??

बस एक ही संभावना है! हो सकता है,  

कभी हमारी गोरी संतानों को लज्जा आए, शर्म आए। नहीं, लज्जा नहीं, कोई मिस ब्रिटेनिका उसे शेम शेम कहे कि चल दुष्ट! भाग मेरे यहाँ से। जो अपनी माँ का नहीं हुआ, वह मेरा कैसे होगा!!


डॉ. अशोक बत्रा 

गुरुग्राम 



विश्वरंग समारोह : भोपाल से वैश्विक सांस्कृतिक दस्तक

 विश्वरंग समारोह : भोपाल से वैश्विक सांस्कृतिक दस्तक 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


भोपाल का सांस्कृतिक परिदृश्य एक बार फिर विश्वस्तरीय आयोजन की तैयारियों में गुंजायमान है। रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित छठवें विश्वरंग अंतरराष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव की तिथियाँ घोषित हो चुकी हैं। यह भव्य समारोह 27 से 29 नवंबर 2025 तक भोपाल के प्रतिष्ठित रवीन्द्र भवन में आयोजित किया जाएगा। यह महोत्सव अपने सातवें संस्करण में प्रवेश करते हुए एक नया कीर्तिमान स्थापित करने जा रहा है, जिसमें 65 से अधिक देशों के साहित्यकार, कलाकार और विद्वान हिस्सेदारी करेंगे। सितंबर 2025 में आयोजित अंतरराष्ट्रीय समिति की बैठक और पोस्टर लॉन्च ने इस आयोजन के प्रति उत्सुकता को दुनियां भर में  बढ़ा दिया है।


विश्वरंग का यह संस्करण साहित्य और कला के बहुरंगी स्वरूप को समर्पित है। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय साहित्य, कला और संस्कृति का वैश्विक विस्तार करना है साथ ही नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना है। महोत्सव में साहित्यिक गोष्ठियाँ, काव्य पाठ, संवाद सत्र, नाट्य मंचन, चित्रकला प्रदर्शनी, संगीत समारोह, फिल्म स्क्रीनिंग और नृत्य प्रस्तुतियाँ शामिल हैं। दक्षिण एशिया, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका महाद्वीपों से आने वाले हिंदी प्रेमी  रचनाकार , कलाकार इस आयोजन को वास्तविक अर्थों में अंतरराष्ट्रीय बना रहे हैं। एक विशेष आकर्षण 'विश्वरंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी ओलंपियाड' का  सत्र होगा ।  जो 65 देशों में आयोजित होने के बाद भोपाल में अपने पूर्णता चरण में पहुँचेगा।


इस भव्य आयोजन की सफलता में प्रमुख भूमिका  मुख्य विचार देने वाले कुलाधिपति संतोष चौबे, प्रवासी संकाय के निदेशक डॉ. जवाहर कर्णावट, श्री मुकेश वर्मा, सुश्री ज्योति रघुवंशी , श्री विनय उपाध्याय,  तथा विश्वविद्यालय की समूची टीम की है। रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय के निदेशक मंडल और विश्वरंग फाउंडेशन द्वारा इसकी परिकल्पना को मूर्त रूप में साकार किया जा रहा है। इस आयोजन के पीछे भारतीय बहुभाषिकता और सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देना, हिंदी एवं अन्य भाषाओं का वैश्विक प्रसार करना, लोक एवं समकालीन साहित्य को मंच देना और नई पीढ़ी को भारतीयता के वैश्विक संदर्भों से जोड़ना जैसे महत्वपूर्ण उद्देश्य निहित हैं।


महोत्सव से पूर्व ही इसकी झलकियाँ देशभर में देखने को मिल रही हैं। मुंबई में 'आरंभ' नामक प्री-इवेंट का सफल आयोजन हुआ, जबकि सितंबर 2025 में श्रीलंका में दो दिवसीय विश्वरंग कार्यक्रम ने इसकी वैश्विक पहुँच को प्रदर्शित किया। विश्वरंग 2025 सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक जीवंत मंच है, जहाँ हिंदी ओलंपियाड, युवा मंच, बच्चों का साहित्य, अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन, चित्रकला, कठपुतली प्रदर्शन और लोक-गीत जैसे अनेकानेक विविध कार्यक्रमों की धूम रहेगी। भारत, अमेरिका , यू के , मॉरिशस, यू ए ई, श्रीलंका, नेपाल, थाईलैंड सहित 65 से ज्यादा  देशों के प्रतिभागी इस सांस्कृतिक समागम का हिस्सा बनेंगे।


 विश्वरंग 2025 भोपाल शहर को वैश्विक सांस्कृतिक मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का सफल प्रयास है। यह महोत्सव रवींद्रनाथ टैगोर की सार्वभौमिक दृष्टि और समकालीन भारत की रचनात्मक ऊर्जा का सुंदर समन्वय है। तीन दिनों तक चलने वाला यह सांस्कृतिक उत्सव साहित्य, कला और संस्कृति के प्रेमियों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभूति लेकर आएगा। यह भोपाल से होने वाली वह सांस्कृतिक दस्तक है जो विश्व भर में भारतीय कला और साहित्य की गूंज को पहुँचाएगी। रंगों का यह महाकुम्भ मानवीय संवेदनाओं और सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का ऐसा संगम सिद्ध होगा, जो संस्कृति प्रेमियों की स्मृतियों में लंबे समय तक जीवित रहेगा।


विवेक रंजन श्रीवास्तव 

 दुबई 


तुम्हारा सिंगार किया।

 दो-चार पंक्तियाँ

प्रेम से

तुम्हारे लिए लिखीं।


तुम पर शब्दों की

प्रेम–कविता-रूपी माला से

तुम्हारा सिंगार किया।


और तुम्हें लिखते-लिखते

कब मैंने

अपने आप को पा लिया—

मुझे ख़बर तक नहीं लगी।


मानो जैसे

मुसाफ़िर को

मंज़िल मिल गई हो।


इतना बड़ा योगदान है

तुम्हारा मेरे जीवन में—

कैसे मैं तुम्हें

भूल पाऊँ?


– मिलिंद बोरकर


सुबह का सूरज

 आधुनिक जीवन  ने क्या गजब किया, दुनिया के सबसे बड़े प्रकाश- पुंज ,सूरज को भी निष्प्रभ किया,

आजकल जब दिल्ली में 

 सुबह का सूरज जब  प्राची में आता है 

वह सबसे पहले अपनी किरणों का 'टॉर्च' जलता है,

क्योंकि दिल्ली पर तो प्रदूषण का घना कोहरा छाया रहता है 

 सूरज बेचारे को आकाश का मार्ग भी नहीं सूझता है,

टॉर्च से जब वह रह पा जाता है तब धीरे-धीरे ऊपर आकाश में पाता है,

क्षितिज में तो कभी उसका चेहरा भी नहीं दिखता 

बल्लियों चढ़ जाने पर ही मानव उसका दर्शन पाता है,

कभी-कभी तो मध्यान्ह तक भी उसका चेहरा नहीं दीखता 

 प्रदूषण का आवरण उस पर छाया रहता है।

सरोजिनी पाण्डेय 

स्वाभिमान



उस मुहल्ले में बहुत दिनों बाद आई है चमेली। आँगन में बैठ ढोलकी की रस्सी को खींच-खींचकर सँभाला उसने। फिर मारे दो थाप। अब उसके गले से एक से एक सोहर और बधाइयाँ निकलने लगीं। 

चाभियों के गुच्छे की छनक गजब संगीत पैदा कर रही थी। अब भी घर की मालकिन शर्मीली चाबियाँ कमर में खोंसे रखती हैं। 

थोड़ी देर बाद उसने साथिन हिजड़े को ढोलकी थमा दी। खुद नवजात को गोद में लेकर, गोल-गोल फिरकनी लेने लगी। सूप पर लिटाकर नवजात को निहुछा। पुनः गोलाकार घूमती हुई नृत्य किया और आशीष की झड़ियों संग मालकिन की गोद में दे दिया। 

  "लो चमेली। चार हजार एक हैं।" 

  "नहीं! रख लीजिए।"

  "ओह, तो ज्यादा चाहिए? चलो पाँच हजार...मेरे बीमार बच्चे को इतना कीमती आशीर्वाद दिया है तुम चारों ने।" 

  "अरे! नहीं, वह बात नहीं है।"

  "बात क्या है?"

  "अब हाथ फैलाने की जरूरत नहीं रही। अब नजरें नीची नहीं कर सकती कभी।"

  आश्चर्य से ताकती शर्मीली को देखा चमेली ने। कहा,

  "हमको टीचर की नौकरी मिल गई है।"

आत्मविश्वास के साथ उसने बच्चे के सर पर हाथ रखा।

 "आपके घर हमेशा इज्जत मिली है। इसीलिए बच्चे को आशीर्वाद देने से खुद को रोक नहीं पाए हम।"

अनिता रश्मि 




सर्वधर्म समभाव



" देख भाई ! वो क्या करते हैं और क्या नहीं , मुझे इससे कुछ भी लेना - देना नहीं है । " 

" तू क्या इस देश का नागरिक नहीं है ? " 

" क्यों नहीं हूं , बिल्कुल हूं , जन्म से हूं ।" 

" तेरे देश में इतने लोगों की राह चलते हत्या हो जाय और तुझे उससे कोई मतलब ही न रहे ?  देश का कैसा नागरिक है तू ? "

" जैसा तू है , वैसा ही मैं भी हूं ।"

" नहीं ! मैं तो इस जेहादी दरिंदगी के विरुद्ध हूं और इन हत्याओं से आहत भी हूं ।" 

" होता रह । यह काम सरकार का है कि वह उन लोगों का पता लगाए, जिन्होंने यह कुकृत्य किया है । उन्हें सजा दे या न दे , यह भी सरकार ही जाने । " 

" देश का नागरिक है तू । इस विषय में तेरी भी तो कुछ राय होनी चाहिए।" 

" मैं सर्वधर्म समभाव में यकीन करता हूं । मैं तो यही जानता हूं कि जो जैसा करेगा , वैसा भरेगा भी ...।" 

वो अभी अपनी बात पूरी कर ही रहा था कि एक पत्थर आया और उसके चेहरे को उसके ही लहू से लहू - लूहान कर गया । 

चोट के साथ दर्द इतना दर्दनाक था कि वह कुछ भी कहने - सुनने की हालत में नहीं बचा ।


सुरेंद्र कुमार अरोड़ा , साहिबाबाद ।


आधुनिक भारतीय गुरु -शिष्य परंपरा का भावबोध

 


कॉलेज की छात्राओं को लेकर दार्जीलिंग  जा रही थी।जमशेदपुर से हावड़ा ट्रेन में 70 छात्राएं चार डिब्बे में बिखरी हुई थीं। सबों का अटेंडेंस  मैं ले रही थी और गिनती कर रही थी कि सभी अपनी अपनी जगह पर बैठी या नहीं? जनरल कंपार्टमेंट में अन्य यात्रियों के साथ भी हमारी छात्राओं की सीट थी इसलिए थोड़ी चिंता अधिक हो रही थी। जब मैं गिनती करती हुई जा रही थी तभी अचानक एक सज्जन ने मुझे टोक कर कहा 'प्रणाम मैम' आपने मुझे पहचाना ? मैं अपने छात्र-छात्राओं की गिनती पूरी करने की धुन में थी...मैंने उसे फटकार लगाई  कैसे पहचानूंगी, कॉलेज आते नहीं हो और दार्जीलिंग घूमने चले हो, बैठो चुपचाप से.... बेचारा चुप से बैठ गया...... मैं फिर अगले कोच में अपनी गिनती पूरी करने के लिए निकल यात्रियों को हटाते हुए आगे चल  पड़ी।


जब सभी  छात्रों की गिनती पूरी हो गई तो वापस मैं अपने कोच की तरफ लौट रही थी और उसी व्यक्ति ने मुझे पुनः टोका "मैम आपने मुझे पहचाना नहीं इस बार मैंने रुक कर कहा कि आपकी शक्ल कुछ जानी पहचानी लग रही है लेकिन नाम नहीं याद आ रहा ......तब उसने अपना परिचय दिया कि   मैं आपका छात्र था 2005 में, और अब मैं सरकारी स्कूल में प्रिन्सिपल हूँ.....झुक कर दो यात्रियों के बीच से अपना सर आगे बढ़ाते हुए उसने मुझसे मेरा आशीर्वाद माँगा। फिर बातचीत के सिलसिले में पता चला वह किसी ट्रेनिंग में चाकुलिया जा रहा है ।अगले स्टेशन पर उतरने से पहले उसने मेरे साथ एक तस्वीर खिंचवाई और जैसे ही वह अपने गंतव्य स्थल पर पहुंचा  और  जब तक मैं अपनी सीट पर पहुंची तब तक प्राचार्य बने मेरे छात्र ने अपने मोबाइल स्टेटस को अपडेट कर दिया था।

डा० जूही समर्पिता 

,जमशेदपुर,झारखण्ड।


त्यौहार में बुजुर्ग


ईशा अपनी देवरानी ,जेठानी और  ननद को फोन पर बात कर रही थीं।ये सभी अलग अलग शहरों में रह रहे थे।सबके पति नौकरी पेशा थे।सभी किराए के फ्लैट में रहते थे।

ईशा ने अपनी देवरानी से फोन पर कहा रश्मि तुमको तो पता ही है आनेवाले दिनों में त्यौहारों का महीना आनेवाला है।बच्चों की भी छुट्टियां रहेगी तो वो घर पर ही रहेंगे ।हमारा छोटा सा घर है।मैं और मेरा पति त्यौहारों में व्यस्त रहेंगे ।पूजा पाठ भी करनी होगी ।बच्चों को मेला भी घुमाना होगा।ऐसे में मैं अपने सास ससुर का ख्याल कैसे रख पाऊंगी।मैं चाहती हूं एक डेढ़ महीने सास ससुर को तुम अपने यहाँ रख लेती ।

उसकी बात सुनते ही उसकी  देवरानी भड़क गई।आप क्या समझती हैं दीदी हमलोग यहां महल में रहते हैं।

और क्या हम लोगों के लिए त्यौहार नहीं है।दीदी माफ करना हमलोग सास ससुर को अपने यहां नहीं रख सकते । इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

ईशा ने फिर अपनी जेठानी को फोन लगाया।जेठानी ने उसकी बात सुनते ही गुस्सा हो गई और खूब खरी खोटी सुनाई दी।बोली दुबारा इसके लिए मुझे फोन मत करना वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगी।

ईशा निराश होकर अपनी ननद को फोन करके वहीं बात दोहराई।उसकी ननद मंजरी ने सुनते ही दुखी होकर कहा_ भाभी मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।

लोग बड़े बूढों के लिए तरसते है कि कस उनके  घर में उनके माता पिता या सास ससुर हो तो उनका मार्गदर्शन और आशीर्वाद मिले लेकिन आप त्यौहारों में मेरे मम्मी पापा को घर से बाहर भेजना चाहती हो।

सबसे बड़ी पूजा तो बड़े बुजुर्गों की सेवा करना है।उनके साथ हर त्यौहार हंसी खुशी मनाने में है।

तो तुम अपने मम्मी पापा को अपने पास क्यों नहीं बुला लेती और थोड़ा पुण्य कमा लेती ।ईशा ने नाराज होते हुए कहा।

मैं जरूर रख लेती भाभी लेकिन तुमको पता है मेरे ससुराल में मेरे अपने सास ससुर है और भरा पूरा परिवार है।घर ऐसा है कि अपने परिवार को ही रहने में दिक्कत होती है।

ऐसे में मैं अपने मम्मी पापा को अपने घर में कैसे बुला लूं।अगर बुला भी लूं तो क्या मेरे ससुराल वाले राजी होंगे?

मंजरी ने अपनी मजबूरी सुनाते हुए कहा।

लेकिन आपके तो अपने सास ससुर है ।वे आपके माता पिता के समान हैं।आप चाहे कितना भी पूजा पाठ कर लो लेकिन उनका तिरस्कार करके आपको पूजा पाठ का कोई पुण्य नहीं मिलने वाला है।

इतनी बात सुनाने से अच्छा है तुम साफ साफ मना क्यों नहीं कर देती ईशा ने चिढ़ते हुए कहा।

मैं मना नहीं कर रही हूं अपनी मजबूरी सुना रही हूं भाभी।मंजरी ने कहा।

लेकिन त्यौहारों में कुछ दिनों के लिए अपने मम्मी पापा से मिलने जरूर आएंगी।आपसे विनती है भाभी की आप त्यौहार मम्मी पापा के साथ मनाए।उनसे आपको कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि खुशी होगी।

तुम मुझे सलाह मत दे इतना कह कर ईशा ने खुद ही फोन काट दिया।

ईशा के दोनों बच्चे अपने दादा दादी के साथ ही ज्यादा समय बिताते थे।जब उन्हें पता चला उनकी मां उनके दादा दादी को घर से बाहर भेजना चाहती तो वे बड़े उदास हो गए।वे अपने दादा दादी से दूर नहीं होना चाहते थे।उन्होंने अपनी मां को बहुत समझाया लेकिन वो नहीं मानी।

तब बच्चों ने आपस में कुछ योजना बनाया और फोन से अपने मोहल्ले और दूसरे मोहल्ले के  तमाम दोस्तो से संपर्क किया।सबकी एक गुप्त मीटिंग हुई।सबने अपनी योजना के तहत सभी पूजा समितियों  दुर्गा पूजा ,दिवाली  और छठ पूजा समिति के सदस्यों से संपर्क कर अपनी योजना बताई

अगले ही दिन से सभी समिति वाले मोहल्ले के सभी घरों में गए और जिन घरों में बुजुर्ग थे उनकी सूची बनाने लगे।दो दिनों बाद सभी बुजुर्गों को पूजा पंडालों का जजमान बना दिया गया ।साथ ही सबके रहने की व्यवस्था पूजा पंडालों के पास ही कर दी गई।ईशा के सास ससुर को भी उनके मोहल्ले के पंडाल में जजमान बना दिया गया और भी पंडाल के पास  रहने चले गए।अब सबके दादा दादी जजमान बनकर पूजा पंडालों में चले गए तो बच्चे भी दिन भर उनके पास ही रहने लगे।

इससे ईशा बहुत चिंतित रहने लगी।बिना बच्चों के उसका मन भी नहीं लग रहा था।हद तो तब हो गई जब बच्चों ने मेला घूमने से भी मना कर दिया।

अंततः मजबूर होकर उनके माता पिता को भी पूजा पंडालों में जाकर अपने अपने घर के बुजुर्गो और बच्चों से मिलना पड़ता था।

घर बुजुर्गों और बच्चों बिना सुना सुना लगने लगा।

ईशा ने बहुत कोशिश किया कि अपने सास ससुर और बच्चों को घर ले आए लेकिन पूजा समितियों ने साफ मना कर दिया और कहा अब सभी बुजुर्ग छठ पूजा के बाद ही घर जा पाएंगे।

सभी त्यौहार और पूजा इन बुर्जुगों के मार्गदर्शन में ही होगा।

ऐसा पहली बार हो रहा था कि सारे बुजुर्ग पूजा पंडालों में जजमान बनकर पूजा करवा रहे थे और वहीं रह रहे थे।

पूजा समिति वाले बहुत खुश थे।दरअसल देवी देवताओं की पूजा के साथ मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों की भी सेवा हो रही थी।

त्यौहार खत्म होने के बाद ईशा को अपनी गलती का एहसास हुआ।बड़ी मुश्किल से उसने अपने बच्चों और समिति वालो को समझा बुझाकर अपने सास ससुर को अपने घर ले पाई।

अब उसका घर भरा पूरा लग रहा था।सास ससुर और बच्चों के नहीं रहने से घर कैसा लग रहा था अब उसे समझ में आ रहा था।

मोहल्ले वालो पर भी ईश्वरीय कृपा का फल मिल रहा था।


 _ श्याम कुंवर भारती

बोकारो,झारखंड 


प्रवासी अनुभवों, द्वंद्व और सांस्कृतिक पुलों का संगम है काव्य संग्रह 'अनछुए स्पर्श'

प्रोफेसर (डॉ.) प्रकाश शंकरराव चिकुर्डेकर. 

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डॉ. सुनीता शर्मा एक बहुमुखी और प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार हैं, जिन्होंने कविता, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, हाइकु, क्षणिका, और सेदोका जैसी विविध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। दिल्ली में जन्मी और पली-बढ़ी डॉ. शर्मा ने डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उनका शोध "कृष्णा सोबती: युगबोध एवं मूल्य संक्रमण" पर केंद्रित है, जो आधुनिक हिंदी साहित्य में मूल्य-बोध और सामाजिक परिवर्तन के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण योगदान है।

उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियों में कविता संग्रह 'मैं गांधारी नहीं', 'अनछुए स्पर्श', 'चिर प्रतीक्षित', कहानी संग्रह 'जागृति', और साझा काव्य संग्रह 'मिट्टी की सुगंध', 'कविता के प्रमुख हस्ताक्षर', और 'गुल्लक किस्सों का' (सह-संपादक) शामिल हैं। उनकी कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, जिनमें प्रवासी जीवन, नारी अस्मिता, सांस्कृतिक द्वंद्व, और पहचान के विषय प्रमुख हैं।

डॉ. शर्मा को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें 'इंडियन डायमंड डिग्निटी अवार्ड 2024', 'किस्सा कोताह लघुकथा सम्मान 2024', 'विश्व साहित्य शिखर सम्मान 2023', 'वैश्विक साहित्यकार सम्मान 2023', 'सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान 2023', और 'स्वयंसिद्धा अवार्ड 2022' प्रमुख हैं।

उनकी लेखनी में नारी चेतना, प्रवासी अनुभव, सामाजिक यथार्थ, और आत्मान्वेषण की गहरी समझ देखने को मिलती है। उनके साहित्य में भावनाओं की गहराई, भाषा की सहजता, और विषयगत विविधता विशेष रूप से उल्लेखनीय है।डॉ. सुनीता शर्मा हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व हैं, जिनके कार्य प्रवासी साहित्य के अध्ययन के लिए एक अमूल्य संदर्भ प्रदान करते हैं।

‘अनछुए स्पर्श’: प्रवासी साहित्य की अनूठी संवेदना

प्रवासी साहित्य वह साहित्यिक धारा है, जो अपने देश से दूर रहने वाले लेखकों द्वारा रचित होती है और इसमें उनकी जड़ों, पहचान, और नए परिवेश के साथ उनके संबंधों की झलक मिलती है। डॉ. सुनीता शर्मा का काव्य संग्रह 'अनछुए स्पर्श' प्रवासी साहित्य के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण योगदान है। इसमें प्रवासी अनुभवों, भावनात्मक द्वंद्व, और सांस्कृतिक पुलों का सुंदर संगम है l

 ‘अनछुए स्पर्श’ डॉ. शर्मा का एक ऐसा काव्य संग्रह है जो प्रवासी जीवन की अनकही कहानियों, अदृश्य पीड़ाओं और अंतर्द्वंद्वों को सजीव रूप में प्रस्तुत करता है। कुल मिलाकर 107 कविताओं का संग्रह और 187 पृष्ठों में बंधा यह संग्रह केवल कवयित्री के निजी अनुभवों की व्याख्या नहीं करता, बल्कि प्रवासी भारतीयों के सामूहिक मनोविज्ञान का स्वर भी है। कविता संग्रह का शीर्षक और मुख्य पृष्ठ इतना आकर्षक रोचक रंगी बिरंगी बना दिया है जो वास्तव शीर्षक के अनुरूप अपनी एक विशिष्ट पहचान बना देता है।

प्रेम: मौन की सबसे मुखर भाषा- संग्रह की पहली ही रचना "अच्छा लगता है..." इस ओर संकेत देती है कि प्रेम, जब अभिव्यक्त होता है, तो वह केवल जुबान नहीं बोलती — हर धड़कन, हर लहर, हर स्मृति में उतर जाता है।

इसी तरह, कविता “न जुड़कर भी” में गहरी भावात्मक छवि उभरती है:

"तुमने कहा था ऑंख भर कर देख लिया करो,

आजकल ऑंखें तो भर भर आती हैं,

तुम क्यों नजर नहीं आते..."

स्त्री-मन की अंतर्ध्वनियाँ

डॉ. सुनीता जी की कविताएँ किसी विशेष ‘फेमिनिस्ट’ आग्रह से प्रेरित नहीं हैं, बल्कि वे एक स्त्री की आत्म-स्वीकृति, द्वंद्व और आत्म-संवाद की कविता हैं। “आईना,” “दर्पण को,” “मेकअप बिना अधूरी औरत” जैसी कविताएँ स्त्री की आंतरिक जटिलताओं को बड़ी सहजता से उकेरती हैं:

"यूँ तो है वाकिफ वह सारी हकीकतों से,

पर उनके मन का तिमिर सच्चाई से उन्हें डराने लगा है..."

लगता है दर्पण को भी आईना दिखाने का वक्त आ गया है..!"

यह आज की स्त्री की पहचान है — जो आईनों से परे जाकर आत्मा को देखने का साहस रखती है।

डॉ. सुनीता शर्मा की कविताएं केवल भावों की प्रस्तुति नहीं हैं, वे आत्मा की पुकार हैं — एक स्त्री की वह मौन चीख जो समाज के मुखौटों में खो जाती है, पर रचनाओं में मुखर हो जाती है। "मैं अधूरी ही सुंदर..." से शुरू हुई यात्रा, केवल सौंदर्य की नहीं, अस्तित्व की पुनर्परिभाषा की यात्रा है।

प्रवासी अनुभव और हिंदी की भूमिका

डॉ. शर्मा एक प्रवासी साहित्यकार हैं — और उनके काव्य में 'दूरी' नहीं, बल्कि 'स्मृति की निकटता' अधिक उभरती है। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि भावनाएँ सीमाओं से परे होती हैं। वे हिंदी को न केवल अपने भाव की भाषा मानती हैं, बल्कि अपनी मातृभूमि की सांसों की भाषा भी।

"अनछुए स्पर्श" यह एक अंतरंग यात्रा है — स्त्रीत्व, प्रेम, प्रवास, और आत्मिक द्वंद्वों के बीच से गुजरती हुई। स्त्री के आत्मसंघर्ष, प्रेम, पहचान, अधूरेपन की सुंदरता, और सामाजिक दोहरापन — इन सबका अद्भुत समावेश"अनछुए स्पर्श” में है। यह संग्रह अपने पाठकों को केवल भावनाओं की यात्रा नहीं कराता, बल्कि उन्हें भीतर तक उजागर, विचलित और फिर सशक्त करता है।काव्य-संग्रह हिंदी साहित्य को संवेदना, गरिमा और गहराई से समृद्ध करता है। उनकी लेखनी प्रवासी जीवन की वास्तविकताओं, स्त्री की आत्मजागृति और प्रेम की शाश्वतता को सधे हुए स्वर में सामने लाती है।

1.पीड़ा का सौंदर्य बोध – 

कवयित्री दर्द को आत्मबोध और सृजन की प्रेरणा में रूपांतरित करती हैं। कवयित्री ने दर्द और पीड़ा को केवल शारीरिक या भावनात्मक अनुभव के रूप में नहीं प्रस्तुत किया है, बल्कि इसे जीवन की रचनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा माना है।

उदाहरण:"अरे वह क्या!!!

तुम्हारे लिए भी कितना आसान है

इस दर्द को 'आदत' कह देना

और फिर उसे महसूसते हुए

चुपचाप जीते रहना..."

यह कविता प्रवासी जीवन के मानसिक संघर्ष और दर्द को दर्शाती है, जहाँ पीड़ा को झेलना और उसमें जीवन की राह तलाशना एक आम अनुभव बन जाता है।

3. अकेलापन और संवाद – 

प्रवासी जीवन के अकेलेपन और आंतरिक संवाद की झलक। प्रवासी जीवन में अकेलापन एक आम अनुभूति है, जिसे कवयित्री ने अपनी कविताओं में बहुत संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है।

उदाहरण:"कहाँ ढूँढूँ रूह को—सुकून?

जिंदगी ऐ किताब की..?

कलम दर्द कहीं

स्याही की तलवार...!"

यह पंक्तियाँ उस आंतरिक अकेलेपन को दर्शाती हैं, जहाँ व्यक्ति खुद से ही संवाद करता है और अपने अस्तित्व को समझने की कोशिश करता है।

  आशा और जीवन का उत्सव – 

विषाद के बीच उम्मीद की उजास। कवयित्री का दृष्टिकोण नकारात्मक नहीं है; वे जीवन की चुनौतियों के बावजूद आशा और संघर्ष की भावना को प्रकट करती हैं।

"फूल समझती हुई चली मैं...

अग्नि परीक्षा के अंगारों को

शीतल जल समझती हुई जली मैं..."

यह कविता स्पष्ट रूप से जीवन के संघर्षों में भी उम्मीद और सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने की बात करती है। कवयित्री ने यह दिखाया है कि कठिनाइयाँ हमें मजबूत बनाती हैं।. आत्मनिर्भरता और नारी चेतना – 

 जड़ों से जुड़ाव –

 मातृभूमि की स्मृतियाँ उनकी कविताओं में बार-बार लौटती हैं। प्रवासी साहित्य का एक प्रमुख पहलू होता है अपनी मातृभूमि और संस्कृति के प्रति गहरे लगाव को बनाए रखना। 'अनछुए स्पर्श' में कवयित्री ने अपनी भारतीय जड़ों और भावनात्मक संबंधों को सजीव रूप से प्रस्तुत किया है।

उदाहरण: "विदेश की गलियों में

माँ की रसोई की खुशबू

अब भी ढूँढ लेती हूँ

हर अनजाने कोने में।"

यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि भौगोलिक दूरी के बावजूद, अपनी मातृभूमि की यादें और संस्कार प्रवासी जीवन का अभिन्न हिस्सा बने रहते हैं।

डॉ. सुनीता शर्मा का काव्य संग्रह 'अनछुए स्पर्श' प्रवासी साहित्य के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण रचना है, जो न केवल व्यक्तिगत भावनाओं और अनुभवों को उजागर करता है, बल्कि व्यापक सांस्कृतिक, सामाजिक, और भाषाई संदर्भों में भी अपनी जगह बनाता है। संग्रह की कविताएँ प्रवासी जीवन के विविध पहलुओं—जैसे जड़ों से जुड़ाव, नई संस्कृति में अनुकूलन, आत्म-चिंतन, और पहचान की खोज—को गहराई से छूती हैं। यह संग्रह प्रवासी भारतीय साहित्य में न केवल एक व्यक्तिगत दस्तावेज है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर हिंदी साहित्य की समृद्धि में भी योगदान करता है।

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‘अनछुए स्पर्श’ केवल एक काव्य-संग्रह नहीं, एक भाव-संग्रह है—जिसमें प्रवासी जीवन की संवेदनाएँ, संघर्ष, स्मृतियाँ, और सांस्कृतिक पुल एक साथ पिरोए गए हैं। डॉ. सुनीता शर्मा की यह रचना हिंदी प्रवासी साहित्य को समृद्ध करती है, और एक नई पीढ़ी के लिए संवेदना, साहस, और आत्म-पहचान का मार्गदर्शक बनती है।उनकी कविता का स्वर पाठक के भीतर तक उतरता है, वहाँ जहाँ भाषा समाप्त हो जाती है और अनछुए स्पर्श प्रारंभ होते हैं।

प्रकाशक: बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग,

बिलासपुर, छत्तीसगढ़, भारत, 495001 

संस्करण: प्रथम, वर्ष: 2022

आईएसबीएन: 978-93-5535-157-9 

कॉपीराइट © डॉ. सुनीता शर्मा 

शैली: कविता ₹: 220/-

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प्रोफेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष, , वारणानगर-416113,


कृपया विचारें

 अरविन्द जैन 

 हमें यह समझना ही होगा कि व्यक्तिगत क्षमता सीमित होती है और कॉर्पोरेट क्षमता असीमित हो सकती है | स्थानीय पारमार्थिक संस्थाएं सीमित कार्य कर सकती हैं और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थान चमत्कारिक कार्य कर सकते हैं | दानी और लाभार्थी का सीधा संपर्क वहीँ संभव है जहाँ किसी छोटे उद्देश्य की प्राप्ति का कार्य हो और हम लोग कल्पना करें विश्वस्तरीय उद्देश्य प्राप्ति का | ये सब उसी प्रकार  की बात है जैसे कोई बबूल बो कर आम प्राप्ति की कल्पना करे | पीढ़ियों से जैन समाज में दान के माध्यम से सामान्यतः सीधे लाभार्थी से संपर्क के माध्यम से दान की परम्परा रही है स्थानीय औषधालय स्थानीय विद्यालय ज्यादा से ज्यादा धर्मशाला और सबसे ज्यादा दान की महिमा है भव्य मन्दिर का निर्माण करवा देना | विश्विद्यालय या मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल या मेडिकल कॉलेज या शोध संस्थान की स्थापना के बारे में नही सोचा जाता | हमारे समाज की पहली आवश्यकता सोच में परवर्तन की तथा दीर्घकालिक दृष्टिकोण बनाने की है तभी हम सुरक्षित रहेंगे और युवाओं का पलायन रोक सकेंगे | उच्च रोजगार परक अवसर और उच्च जीवन शैली का आकर्षण ही आज के युवाओं का भविष्य है इनको जहाँ ये सब मिलेगा ये वहां का रुख करेंगे | हमारे समाज में चिंतकों और विचारकों का आभाव होता जा रहा है |


बिरसा मुंडा : धरती का बेटा, जिसने जंगलों में आज़ादी की आग जलाई

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भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, उसमें एक नाम हमेशा लौह–अक्षरों में चमकता रहेगा— बिरसा मुंडा।

वह कोई राजा नहीं थे, न बड़े शिक्षित नेता, न ही विशाल सेनाओं के स्वामी।लेकिन जनजातीय धरती का एक साधारण बालक होकर भी वह वह काम कर गए जो बड़े–बड़े साम्राज्यों को हिला दे।उनका पूरा जीवन एक आंदोलन, एक विश्वास, और एक क्रांति का संदेश देता है।

जन्म और बचपन— जंगलों में पली एक ज्वाला

15 नवंबर 1875 को झारखंड के उलिहातु गाँव में एक गरीब मुंडा परिवार में जन्मा यह बच्चा किसे पता था कि एक दिन अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने ही चुनौती बन जाएगा।

बचपन में ही बिरसा ने देखा—

जंगलों पर अंग्रेजों का कब्ज़ा

ज़मीनों को हड़पते जमींदार

मज़दूरी में पिसते आदिवासी

धर्मांतरण के प्रयास

गरीबी, भुखमरी और अन्याय

इन दर्दों ने उनके भीतर एक जंगली आग जलाई— जल, जंगल और जमीन को बचाने की आग।

शिक्षा और आध्यात्मिक जागरण

बिरसा ने मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की थी।

वह तेज़ दिमाग थे, लेकिन धर्मांतरण की कोशिशों से व्यथित होकर स्कूल छोड़ दिया।

यहीं से उनके भीतर आध्यात्मिक शक्ति का उदय हुआ।

धीरे–धीरे लोग उन्हें “धरती आबा” — धरती पिता कहकर पूजने लगे।

उनकी वाणी में करिश्मा था, उनके शब्दों में भविष्य की चिंगारी।


वे कहते थे—


> “जंगल हमारा है, इसे कोई नहीं छीन सकता।”

“अन्याय के आगे झुकना पाप है।”

“अपनी जमीन बचाओ, अपना धर्म बचाओ, अपनी पहचान बचाओ।”



ब्रिटिश ज़ुल्म और जमींदारी अन्याय


अंग्रेजों ने कानून बनाकर आदिवासियों की जमीन छीन ली थी।

वे किसान, जो सदियों से खेत जोतते थे, अचानक अपने ही खेतों में मज़दूर बना दिए गए।


जमींदार, पुलिस और अंग्रेज अधिकारी—

सब मिलकर आदिवासियों को दबाते, पीटते, लूटते।

इन सबका प्रतिकार केवल एक व्यक्ति के भीतर फूटने लगा— बिरसा मुंडा।



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उलगुलान – महान क्रांति की शुरुआत


1890 के दशक में बिरसा ने एक आंदोलन शुरू किया जिसे लोग आज भी उलगुलान (महाविद्रोह) कहते हैं।


यह केवल विद्रोह नहीं था,

यह एक सामाजिक सुधार अभियान भी था।

बिरसा ने आदिवासियों को कहा—

शराब छोड़ो बुराइयाँ छोड़ो एकजुट हो जाओ   बंधुआ मज़दूरी का विरोध करो  जमीन और जंगल को वापस लो  अंग्रेजी हुकूमत से लड़ो उनकी बातें जंगल में आग की तरह फैल गईं।

हर गाँव में, हर टोले में एक ही नारा गूंजने लगा—

 “अबुआ दिसुम अबुआ राज”

(हमारा देश, हमारा राज)

मुंडा विद्रोह— जब पहाड़ों ने भी जंग छेड़ दी

1899–1900 में बिरसा के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों की ठाणों, पुलिस चौकियों और जमींदारों के घरों पर हमला किया।

ब्रिटिश हुकूमत हिल गई।

उन्होंने सेना भेज दी।

लेकिन आदिवासी जंगलों में गायब हो जाते, फिर अचानक हमला बोल देते।

यह इतिहास के सबसे शक्तिशाली गुरिल्ला आंदोलनों में से एक था।---

गिरफ्तारी — पराजय नहीं, एक अमर शुरुआत

अंततः अंग्रेजों ने 3 फरवरी 1900 को बिरसा को धोखे से गिरफ्तार कर लिया।

उन्हें रांची जेल में बंद कर दिया गया।

और फिर हुआ एक ऐसा अंत, जिसे आज भी भारत में सही तरीके से समझा नहीं गया—

9 जून 1900 को बिरसा मुंडा की जेल में मृत्यु हो गई।

अंग्रेजों ने कहा—

“बीमारी से हुई।”

लेकिन इतिहास जानता है—

साम्राज्य केवल शरीर मार सकता है, विचार नहीं।

और बिरसा मुंडा अब एक विचार बन चुके थे।

बिरसा मुंडा की विरासत— एक अनंत प्रकाश

आज उनके नाम पर—

भारत संसद परिसर में प्रतिमा

कई विश्वविद्यालय भारत सरकार की जनजातीय योजनाएँ

झारखंड स्थापना दिवस (15 नवंबर)

उनकी सबसे अनमोल देन थी—

आदिवासियों की पहचान, अधिकार और सम्मान को पुनर्जीवित करना।

उन्होंने यह साबित कर दिया—

 “स्वतंत्रता केवल पुस्तकों में लिखी परिभाषा नहीं,

यह जंगलों में रहने वाले एक साधारण आदमी की भी सांस है।”

बिरसा मुंडा क्यों अमर हैं?

क्योंकि उन्होंने अपने जीवन से यह बताया कि हथियारों से बड़ी चीज है— एकता

क्योंकि उन्होंने दिखाया कि अपनी जमीन और संस्कृति के लिए लड़ना पवित्र कर्तव्य है

क्योंकि उन्होंने मरकर भी आदिवासी समाज की आत्मा को बचाया

उन्होंने ऐसा भारत का सपना देखा था जहाँ—

कोई शोषण न हो

कोई भेदभाव न हो

प्रकृति और मनुष्य एक ही परिवार हों

समापन : धरती का पुत्र बना इतिहास का योद्धा

बिरसा मुंडा केवल एक व्यक्ति नहीं थे—

वह एक आँधी थे,

एक जागरण थे,

एक उम्मीद, एक पुकार।

उनकी कहानी आज भी कहती है—

 “स्वतंत्रता जंगलों से भी उग सकती है,

क्योंकि क्रांति का रास्ता किसी एक शहर का नहीं—

हर उस दिल का होता है, जिसमें दर्द और साहस दोनों जगे हों।”


डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत"


"मांग रहे हो मान"

 "


"मांग रहे हो मान"


भाती मन को कब कहां,कंजूसन बकवास।

भारी मन से सुन रहे,निर्धन के आवास।।

*

मीठे मीठे बोल अब,कैसे आए रास।

पत्र चुनावी घोषणा,सा प्रियतम आभास।।

*

घोड़े अब मजबूर हैं,करने को उपवास।

चने गधों के भाग में,हरी भरी सब घास।।

*

कुछ भी कोई भी कहे,नहीं करेंगे क्रोध।

क्रोध मिटाता बोध को,ऐसा होता बोध।।

*

गाली मीठी भी बुरी,देना इसका पाप।

लेने वाला ले रहा,घटे मिटेंगे आप।।

*

चुटकी भर सिंदूर सा,देकर कृष्णम ज्ञान 

लेकर मेरी जान भी,मांग रहे हो मान।।


त्यागी अशोका कृष्णम्

कुरकावली,संभल,उत्तर प्रदेश


सुनें भगवान रे सबकी,



बदी की राह पर चलता, नहीं तुझको लगे क्या डर।


धर्म की आड़ में तुमने, उजाड़े हैं बहुत से घर।


छुपा कुछ भी नहीं उससे, खुला सबका वहाँ खाता।


सुनें भगवान रे सबकी, सितमगर तू सितम ना कर।


 जगबीर कौशिक


🙏🌹🙏🌹🙏🌹


कवि वाक्य है


कवि शब्द नहीं हो सकता 

कि वह कोश में पड़ा रहे!

और निशब्द हो जाए!

कवि वह है 

जो कारकों से मिले 

और पद हो जाए!

मिलकर गदगद हो जाए!


कवि तंदुल है बासमती!

गंध तभी छोड़ता है 

जब वाक्य को समर्पित होता है 

खुद को भाव से जोड़ता है!


प्रिय कवि!

तुम शब्द नहीं हो 

वाक्य हो!

कुछ कहो!

सोते सोते न कहो!

जागकर कहो!

अपनी कहन में खो जाओ!

हस्ताक्षर बनो 

समय के वक्ष पर 

और एक दिन 

कहते कहते सो जाओ!


डॉ. अशोक बत्रा 

गुरुग्राम 


बचपन

... 

 



✒मनस्विनी ✒


वह अल्हड़,

भोला बचपन मेरा

मन–कोटर में

टुकुर-टुकुर मुस्काए,

समय भले उसको

 पीछे छोड़े, 

पर बारंबार वही लौट आए।


जीवन–पथ की

कठिन - धूप में

अंकुर-सा प्रकाश जगाए,

थके कदमों को सहलाकर

राह नई फिर-फिर दिखलाए।


मन-अंतर में कोमल स्पंदन

 जीने का सबब बन जाए 

कभी थमा, स्वप्नों की पतंग 

 निर्मल सुख–सागर लाए।


उम्र भले  बढ़ जाए

पर बचपन फिर-फिर

 पलट के आए,

सूखे हृदय–तट

पर मधुर रसों का

शांत, सुकोमल

 जल भर जाए।


अपने होने का मीठा अमृत

रसधारों में चुपके घुल जाए

   थकी साँसों में

     नव–प्राण बन

  गुब्बारे-सा उजास भर

जीवन आनंदित कर जाए।


वर्तमान में स्वाध्याय परम तप क्यों है ?




     - प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली 


वर्तमान में पंचकल्याणक , महामस्तकाभिषेक,चातुर्मास आदि और बड़े बड़े धार्मिक आयोजन करवाना फिर भी आसान लगता है किंतु नियमित शास्त्र स्वाध्याय चलाना बहुत कठिन दिखाई देता है । 

जबकि स्वाध्याय शास्त्र सभा में कम से कम सिर्फ चार चीजें चाहिए 1. एक शास्त्र चाहिए 2.एक पढ़ने वाला 3.कम से कम दो सुनने वाले 4.सुनने सुनाने वाले की पवित्र भावना, बस ।इसके लिए तो करोड़ो की बोली,लाखों के टेंट और स्पीकर साउंड,भोजन व्यवस्था ,पोस्टर ,बैनर,पूजन सामग्री के खर्च आदि आदि भी जरूरी नहीं होती । जब कि अन्य कार्यक्रम के लिए ये बहुत जरूरी और अनिवार्य हैं । फिर भी मात्र इन चार सहज चीजों का संयोग आज के समय में कितना कठिन है । यह बहुत गंभीरता से विचारणीय है । शायद यही कारण है कि स्वाध्याय को परम तप कहा गया है । मगर इसे 'परम' तो छोड़ो कोई सामान्य तप भी मानने को तैयार नहीं है । 


प्रसन्नता की बात है कि श्रावक के छह कर्तव्यों में देव पूजा- अभिषेक न हो , गुरु पूजा न हो , दान न हो तो तो थोड़ी परेशानी दिखती भी है लेकिन दुख इस बात का है कि स्वाध्याय,संयम और तप न हो तो किसी को कोई परेशानी नहीं दिखाई देती । खासकरस्वाध्याय सभा न हो तो किसी को कोई परेशानी नहीं होती । परेशानी तो तब होती है जब वह हो । यदि किसी तरह कैसे भी करके स्वाध्याय सभा हो तो कमेटी आदि वाले भी परेशान हो जाते हैं । किससे पूछकर ये शुरू किया ? यही वाला अनुयोग या ग्रंथ क्यों पढ़ा रहे ? इसके पीछे क्या साजिश है ? ये प्रवचन में हमारी कमियां तो नहीं गिना रहे ? 

फिर ये ही क्यों पढ़ा रहे हैं ? क्या और लोग नहीं हैं ? सुनने वाले तो ज्यादा हैं नहीं फिर इसे चलाने से क्या फायदा ? ये बीस पंथ वाले हैं या तेरापंथ वाले ? किसी तरह किसी श्रोता की रुचि शास्त्र सुनने में हो भी जाय तो उन्हें अच्छे तरीके से भड़काने वालों की भी कमी नहीं हैं । उससे तो अच्छा तुम ये करो ,वो करो ,पहले आचरण पालो , सिर्फ सुनने से कुछ नहीं होगा - आदि आदि ।


यदि प्रवचन करने वाले विद्वान् निःस्वार्थ भाव से प्रवचन करते हैं तो उनके लिए 'ये जो शास्त्र सुना रहे हैं वो अपना पंथ फैलाने के लिए निःशुल्क प्रवचन करते हैं ,इनका ये मिशन है ,इनका या इनके गुरु महाराज का कोई हिडेन एजेंडा होगा , इन्हें किसी संस्थान या ट्रस्ट से इस कार्य के लिए पैसा मिलता होगा अन्यथा ये फ्री में इतना समय क्यों दे रहे हैं ? इनके चक्कर में मत आना ' -  और यदि कोई वक्ता सम्मान राशि स्वीकार कर ले तो 'ये तो जिनवाणी बेचते हैं' निर्माल्य का खाते हैं ,बहुत लालची हैं, बिके हुए हैं या इनसे अच्छा तो अन्य दूसरे वक्ता बोलते हैं उनसे सुना करो , या इन्हें तो कुछ आता नहीं है ,इनसे ज्यादा तो तुम जानते ही हो ....इत्यादि इत्यादि कहकर विद्वान् वक्ता की उपेक्षा और श्रोता का समर्पण कम करने की निरंतर कोशिश करते रहते हैं । वक्ता की महिमा मिटाने का पूरा प्रयास किया जाता है । 


इसके विपरीत कोई कवि या गायक लाखों रुपये लेकर भी मंच पर बैनर से नाम पढ़कर पुरानी कविता में नाम बदलकर गुरु भगवंतों की महिमा गाये , धार्मिक मंचों पर मसखरे लगा कर सबका मनोरंजन करे तो किसी को वह बिका हुआ ,लालची,निर्माल्य भोगी नजर नहीं आता है । उसके पोस्टर लगवाते हैं ,उसका सम्मान बहुमान करते हैं उसकी महिमा गाते फिरते हैं । 


इन सब बातों का सार यह निकलता है कि स्वाध्याय न ही हो तो सबसे अच्छा है , पूर्वोक्त कोई भी समस्या आएगी ही नहीं । 


यही कारण है कि नियमित तो छोड़ दीजिए ,अन्यान्य स्थानों पर तो पर्युषण दशलक्षण पर्वों पर भी अब स्वाध्याय प्रवचन नहीं होते । या होते भी हैं तो उपेक्षा भाव से सिर्फ रस्म अदायगी के लिए । उसमें भी लोगों को शाब्दिक मनोरंजन चाहिए,सास बहू के किस्से चाहिए अन्यथा तत्त्व और वैराग्य की बातें लोग सुनना भी नहीं चाहते हैं । शाम को आरती भजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दबाव बीच कुछ शास्त्र बांच लिया जाय तो बहुत बड़ी बात होती है । इन सब कष्टों को सहन करके भी , किसी के भड़काने पर भी न भड़कते हुए , अपने उपयोग को निर्मल रखकर , चित्त को एकाग्र करके जो जिन वचनों को अत्यंत उत्साह और प्रीति पूर्वक सुनता है वह ही स्वाध्याय जैसा परम तप कर पाता है । वह ही सम्यग्दर्शन का भी अधिकारी होता है ।वास्तविकस्वाध्याय में आपकी प्रशंसा नहीं होती, उल्टी आपकी कमियां गिनाई जाती हैं , आपको माला नहीं पहनाई जाती है , आपका नाम नहीं लिया जाता ,कोई विशेष सम्मान आदि नहीं किया जाता है ,कोई मान बढ़ाई नहीं होती है , कोई मसखरे नहीं लगाए जाते हैं,  मनोरंजन नहीं किया जाता है , कोई चमत्कार नहीं दिखलाया जाता है , कोई प्रलोभन नहीं दिया जाता है ...मात्र आपके हित का उपदेश और तत्त्वज्ञान दिया जाता है । यदि इन सभी सांसारिक आकर्षणों  से भी परे जाकर , शास्त्र सभा में आकर मात्र आत्म कल्याण की भावना से आप शास्त्र सुन और गुन रहे हैं तो आप वास्तव में परम तपस्वी हैं । 

स्वाध्याय की गिनती अंतरंग तप में की जाती है किंतु इसका बहिरंग तप भी कम नहीं है । 

इसीलिए स्वाध्याय को परम तप कहा गया है ।


वेदने! तुम्हारा मतवाला

 

इस विरह-वेदना के संबल ने,

                  दिए तृषा के हार मुझे!

व्यक्तित्व    गढ़ा   पीड़ा   ने,

         देकर अपना खूब दुलार मुझे!


कविताई ने कोमलता दी,

           हृद में भर दी अति भावुकता ।

मैं अचिर वस्तु पर क्या मरता?

            जब मिली वेदना की शुभता।


कल्याणमयी  इस पीड़ा का नित-नित वंदन, मुझको पाला ।

वेदने! तुम्हारा  मतवाला।।.....  (१)


जब जलन बढ़ी छलनाओं की,

          जब दुखों-दाह  की पीर चलीं।

 तब याम-योम सब भूल तुम्हीं,

            नयनों  से  लेकर  नीर  चलीं।


 सब छोड़ चले, तुम साथ रहीं,

             अब  छोड़  कहाँ  बैराती  हो?

 यह मधुर गृहस्थी मत तोड़ो,

                मैं  दीया  हूँ  तुम बाती  हो!


संसार दुलार हजार करे, मैं प्यार नहीं करने वाला।

 वेदने ! तुम्हारा मतवाला......(२)


ओ क्रूर नियति! कर दे विदीर्ण ,

            सुख स्वयं मुझे स्वीकार नहीं।

 आनंद महान महादुख में,

              इससे बढ़कर उपकार नहीं ।


जगती से तिल भर द्वेष नहीं, 

           सबका शत-शत आभारी हूँ।

युग-जीवन  की पीड़ाओं का,

                मैं सूत्रधार अधिकारी हूँ।


कविता प्याले में भरता हूँ, मैं अन्तर्ज्वाला की हाला।

वेदने! तुम्हारा मतवाला.....(३)

     ~ यतीश अकिञ्चन


जीवन है सौग़ात

 जीवन है सौग़ात ।

आओ इसे संभालें ।

 ये है ईश्वर का उपहार ।

इसका आनंद उठा लें ।

जी लें इसके हर पल को ।

इसका त्यौहार मना लें ।

छोटी छोटी खुशियों का ।

मिलकर  आओ मज़ा लें ।

हर दिन है एक सौग़ात।

इसको ना व्यर्थ गुज़ारें ।

सुखों को संजोएं दिल में ।

तनावों को दिल से हटा दें ।

मिलता है ये एक बार ही ।

तो इसको सफ़ल बना दें ।

अपनी मेहनत के दम पर ।

आओ इसको चमका दें ।

गिराकर झूठी बुनियादें ।

सच का परचम लहरा दें ।

छोड़कर सारी बुराई ।

किरदार को ऊंचा उठा दें !


प्रगति दत्त


"बचपन वाले साल"


हंसता गाता खेलता,देने को उल्लास। 

रंग बिरंगी याद ले ,बचपन का मधुमास।

बोला गुमसुम हैं बड़े,अकड़े अकड़े आप,

बालक बनकर देख लो,हो जाओगे पास।।

*

खट्टी मीठी गोलियां,चूरन वाला स्वाद। 

बिस्कुट करते साफ हम,खान पान के बाद।

सोते थे फिर चैन से,लिपट मात के अंग,

रह रह कर आती मुझे,सुंदर बचपन याद।।

*

मार मार कर भागना,खींच बहन के बाल।  

लड़ते भिड़ते थे मगर,खुश रहते हर हाल।

भैया रहते रौब में,बहना करतीं प्यार,

याद सुहाने आ रहे,बचपन वाले साल।।


वैशाली रस्तौगी

जकार्ता,इंडोनेशिया


पूत- कपूत (लघुकथा)


रवि बेटा तुम क्या कर रहे हो? 

मां" तुम जाओ अंदर मुझे मेरा काम करने दो,तुम्हें क्या पता ?मैं क्या कर रहा हूं।"

हां- हां मैं तो अनपढ़ हूं मुझे तो कुछ भी पता नहीं, पता नहीं आज कल के बच्चों को क्या हो गया है।

मां देख लेना,

एक दिन इतना पैसा कमाऊंगा ना कि तुम दंग रह जाओगी देखकर।

जा -जा ख्याली पुलाव मत बना।

चौबीस घंटे फोन लेकर बस  ब्लॉग वगैरा बनाता रहता है । 

पैसा कमाएगा, हमारे जमाने में तो पता भी नहीं था ,

ब्लॉग होता क्या है? 

जब तुम्हें कुछ पता ही नहीं तो तुम जाओ यहां से मुझे मेरा काम करने दो। 

भगवान जाने आजकल की औलाद को क्या हो गया है ?इनको तो इतनी भी तमीज नहीं ,की मां-बाप से बात कैसे की जाती है! हमारे जमाने में तो मां-बाप को देखते ही हमारी बोलती बंद हो जाता थी।

जवाब देना तो दूर की बात।

मां मैं ब्लॉग बनाने के लिए दिल्ली जा रहा हूं मुझे कुछ पैसे दे दो।

नहीं है मेरे पास पैसे,

उलटे-सिधे मुंह बनाने के लिए,

जब कमा कर लाऊंगा तब देखना , चल भाग यहां से फिलहाल तो हमारे ही पैसे खर्च हो रहे हैं। 

पूरा दिन लफंगों की तरह घूमता रहता है ।आवारा लड़कों के साथ ना काम का ना काज का दुश्मन अनाज का।

तुझे क्या पता? कि पैसे कितनी मेहनत से कमाए जाते हैं। जा ₹1 कमा कर दिखा ,मैं भी देखती हूं तुझे कौन देगा।

कुछ पैसे मांगे थे इस पर तुम लेक्चर देना शुरू हो गई। 

जाओ मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे पैसे में खुद  कमाऊंगा, तो तब मुझसे मांगना तुम्हें ₹1 नहीं दूंगा।


जा- जा बढ़ा आया। हमें तेरे पैसे की जरूरत नहीं है।

भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है बस भगवान तुझे बुद्धि दे ।

इन ब्लॉगर दोस्तों से दूर रखें। 

इंटरनेट ने तो लोगों की जिंदगी खराब कर दी। जेब में ₹2 नहीं तो खुद को बादशाह समझते हैं। 

रवि ज्योति की बातें सुनकर बहुत दुखी हो गया उसे ज्योति पर बहुत गुस्सा आ रहा था।

"मेरी मां बहुत खिच -खिच करती है अभी अंदर ही अंदर बड़बड़ा रहा था"!

रात को रवि ने खाना खाया और सोने चला गया।

ज्योति भी अपने कमरे में सोने के लिए चली गई।सुबह  वाली बात रवि के दिमाग में हलचल मचा रही थी।

उसे नींद नहीं आ रही थी, उसके अंदर का शैतान जाग उठा। 

मां बहुत बोलती है क्यों नहीं इसका काम ही तमाम कर दूं आज रात को?

चुपके से उठा और ज्योति के सिर पर एक बहुत बड़ा पत्थर दे, मारा ।

 ज्योति लहूलुहान हो गई और रवि घर से भाग गया।

रवि को घर से भागता देखकर ज्योति भी उसके पीछे भागी 

 रवि ,रवि रुको ,रुको, रुको।

तुमको मेरी कसम है ज्योति के सिर  से खून बह रहा था।

जब बाकी लोग भी इकट्ठे हो गए तो वह कहने लगे नहीं- नहीं। कुछ नहीं हुआ सब ठीक है पर बहन तुम्हारे सिर से तो खून बह रहा है ,किसी ने हम पर हमला कर दिया था। उसी के पिछे भाग रहे थे मैं ओर रवि, जी हां वह दो अनजान व्यक्ति यही से भागे हैं।

पुलिस स्टेशन  में एफआईआर लिखवाई गई। कि अनजान व्यक्ति आए थे हमला कर दिया...

आखिर मां तो मां ही होती है...

क्या ज्योति को ऐसा करना चाहिए था?

डा 0 मुक्ता 

मुक्तक

 

संस्कार से हीन हो गया सामाजिक परिवेश|

बिखर रहा परिवार चतुर्दिक बढ़े घृणा औ द्वेष|

संस्कार से रहित व्यक्ति रहता समाज में पशुवत 

संवेदनशीलता मर गई भोग रहा नर क्लेश||


जहां पर कद्र नहीं वहां कभी जाना नहीं|
जो नजरों से गिर जाय उसे उठाना नहीं|
जो सत्य पर रूठे उसे मनाने की क्या जरूरत 
मौसम की तरह जो दोस्त बदले अपनाना नहीं||

डॉ वीरेंद्र सिंह कुसुमाकर प्रयागराज

बाल दिवस पण्डित जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन पर एक रिपोर्ट


नेहरू निर्विवाद रूप से स्वतंत्रता बाद भारत के सर्वोच्च नेता थे भारत का ही सोचा, उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।  चीन के धोखे के कारण उन्हें जोरदार हृदयाघात लगा जनवरी 1964 में भुबनेश्वर में आये धक्के से तो किसी प्रकार बच गए पर 27 मई 1964 को प्रातः 6 बजे आये झटके से न बच सके 2 बजे उन्हें मृत घोषित किया गया। मैं 12 वर्ष का बालक था रेडियो पर यह समाचार जब प्रसारित हुआ तो पूरा भारत सन्नाटे में था कि अब क्या होगा देश कैसे चलेगा एक बड़ा शून्य हो भारत के नेतृत्व में आ गया था। 

आईये जानते हैं नेहरू के बारे में उनके जन्म दिवस पर।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था। इनके माता जी का नाम स्वरूपरानी नेहरु और पिताजी का नाम मोतीलाल नेहरु था। पंडित मोतीलाल पेशे से बैरिस्टर थे। वहीं, पंडित नेहरू की धर्मपत्नी का नाम कमला नेहरु था। इनकी एक बेटी इंदिरा गांधी थी। नेहरू जी धनी संपन्न परिवार से तालुक्क रखते थे। साथ ही नेहरू जी तीन बहनों के अकेले भाई थे। इसके चलते नेहरू जी की परवरिश में कभी कोई कमी नहीं आई। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद में प्राप्त की। वहीं, उच्च शिक्षा इंग्लैंड में पूरी की। लंदन से इन्होंने लॉ की पढ़ाई पूरी की। इस दौरान नेहरू जी ने समाजवाद की जानकारी भी इकठ्ठा की। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद नेहरू जी साल 1912 में स्वदेश वापस लौट आए और स्वतंतत्रा संग्राम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

नेहरू जी ने साल 1916 में कमला जी से शादी कर ली। इसके एक साल बाद 1917 में होम रुल लीग से जुड़े और देश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाई। वहीं, साल 1919 में नेहरू जी पहली बार गांधी जी के संपर्क आए। यहीं से नेहरू जी की राजनीति जीवन की शुरुआत हुई। इसके बाद गांधी जी के साथ मिलकर नेहरू जी ने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इतिहासकारों की मानें तो लाहौर अधिवेशन के अंतर्गत पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार 31 दिसंबर, 1929 ई. को रावी नदी के तट पर तिरंगे को 12 बजे रात में फहराया था। 

लालबहादुर शास्त्री जी के प्रेस सचिव रहे कुलदीप नैयर ने भारतीय राजनीति पर दो पुस्तकें लिखी हैं "इंडिया द क्रिटिकल इयर्स और बिटवीन द लाइन्स"

उन्होंने स्पस्ट लिखा है कि नेहरू की आंतरिक कामना थी कि उनके बाद इंदिरा ही उनकी उत्तराधिकारी बने , कामराज प्लान कैसे तैयार किया गया उसका ब्यौरा भी दिया है परंतु उनकी मृत्यु पर मोरारजी के अड़ जाने पर शास्त्री जी का चयन किया गया क्योंकि वे ही एक निर्विवाद चेहरे थे।

"प्रसिद्ध पत्रकार श्री दुर्गादास की बहू चर्चित पुस्तक "इंडिया कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर दैट" के कुछ अंश।

१९४६ :इस बरस भारत में एक अंतरिम सरकार बनाने का फैसला लिया गया।

 माँउंटबेटन के मातहत कार्यरत डिप्टी को वायसराय के जाने के बाद सत्ता सौंप दी जायेगी यह सुनिश्चित कर लिया गया था।   उन दिनों भारत पंद्रह प्रांतों में विभक्त था हरेक के लिए एक प्रदेश कांग्रेस कमिटी थी जिसे PCC (Provincial Congress Committee )कहा जाता था। फैसला किया गया प्रत्येक राज्य नंबर दो की पोज़िशन के लिए एक एक नाम बंद लिफ़ाफ़े में केंद्रीय कार्यकारी समिति CWC को भेजेगा ।

जब इन लिफाफों को खोला गया तब सरदार पटेल के हक़ में बारह ,आचार्य जे. बी. कृपलानी के हक़ में दो तथा एक राज्य ने श्री  पट्टाभि सीतारमैया के नाम का प्रस्ताव माउंबेटन के डिप्टी के लिए  बंद लिफाफों में भेजा जिन्हें कांग्रेस कार्यकारी  समिति (CWC) ने सभी सदस्यों की मौजूदगी में खोला था।

उस वक्त नेहरू  गांधी जी के एक पार्श्व में बैठे थे सरदार वल्लभ भाई पटेल दूसरे  में।  अब गांधी जी ने जैसा कि इस किताब में लिखा है कृपलानी जी की ओर जो बापू के सामने बैठे थे अर्थपूर्ण दृष्टिपात किया। कृपलानी हाथ जोड़े खड़े हुए और कहा बापू सभी जानते हैं आप इस पोज़िशन के लिए पंडित जी के हक़ में हैं इसलिए मैं अपने दो मत पंडित जी को देते हुए इनका नाम डिप्टी के लिए प्रस्तावित करता हूँ। ऐसा कह के आचार्य कृपलानी ने अर्थगर्भित नेत्रों से पटेल की ओर देखा जो मन ही मन हो सकता है सोच रहें हों कि नेहरू जी कहेंगें नहीं-नहीं मैं जनभावनाओं का सम्मान करता हूँ लेकिन नेहरू खामोश रहे और चिरंजीवी आत्मीय सरदार वल्लभभाई पटेल ने प्लेटिनम के थाल में रखके अपने बारह मत भी नेहरू के पक्ष में भेंट कर दिए।

नेहरू का प्रधानमन्त्री बनना पक्का हो गया।   अब माननीय दुर्गा दास जी ने एक ज़िम्मेवार पत्रकार होने के नाते बापू को लिखा -बापू बहुमत सरदार के पक्ष में हैं डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी भी उनके पक्ष में हैं फिर आप क्यों जवाहर लाल ,जवाहर लाल की रट लगाए हैं ?

"जवाहर बढ़िया अंग्रेज़ी बोलता है "-ज़वाब मिला

यह पत्राचार किताब में मौजूद है।"


कई लोग अफवाह उड़ाते हैं की वे गयासुद्दीन गाजी के परिवार से हैं इत्यादि इत्यादि जबकि मैंने उनकी पीढ़ी जानने का प्रयत्न किया मुझे जो जानकारी मिली उसके अनुसार उनकी 5 पीढियां इस प्रकार हैं।


1687 से पीढ़ी

राजनारायण कौल

मोसराम कौल

लक्ष्मी नारायण कौल नेहरू

गंगाधर कौल नेहरू

मोतिल लाल नेहरू

जवाहर लाल नेहरू

नेहरू की शिक्षा विलायत में हुई थी अतः उनकी सोच पर अंग्रेजों की गहरी छाप थी वही उनकी लिखी पुस्तकों में भी मिलती है जैसे डिस्कवरी ऑफ इंडिया में आर्यों का भारत पर आक्रमण कर बाहर से आना, भारत का सांप संपेरों का देश इत्यादि।

मेरा अपना एक संस्मरण नेहरू जी के साथ है जिसे साझा करने से अपने को नहीं रोक पा रहा हूँ:

"आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का जन्म दिन है, उनकी इस जन्मतिथि को बाल दिवस के रूप में भी मनाया जाता है, क्यूँ बाल दिवस ? एक व्यक्तिगत संस्मरण से शायद यह स्पष्ट हो सके|

आज कोलकाता में जो सड़क खिदिरपुर से हेस्टिंग्स होते हुए प्रिंसप घाट जाती है और इधर रेसकोर्स उस पुरे क्षेत्र में पहले एक खुबसूरत मैदान हुआ करता था, आज तो बस वहाँ दुसरे हुगली ब्रिज के लिए जाने वाले फ्लाईओवर का जाल बिछा है| उस समय हर संध्या बच्चे खेलने के लिए जमा होते थे जैसे की अभी मैदान क्षेत्र में, विक्टोरिया के सामने होते हैं| उस मैदान के ठीक सामने वाली सड़क क्लाईड रो कहलाती है, उसमें १/१ नंबर में मेरे नाना जी का मकान है जिसे अभी झुंझनु प्रगति संघ  हेतु दे दिया गया है. हर छुट्टियों में हम यहाँ आते थे और संध्या शाम को मैदान में खेलने जाते थे, यह बात 1960 के आसपास की होगी समय और वर्ष मात्र याद से लिख रहा हूँ, 8/9 वर्ष का रहा होऊंगा| हम बच्चे खेल रहे थे तभी मैदान को चारों तरफ से पुलिस ने आकर घेर लिया और अफरातफरी मच गयी की हेलीकाप्टर से नेहरु जी आ रहे हैं और सामने मिलट्री हेड क्वार्टर जायेंगे| मैं था, मेरी माता जी थी और मेरा छोटा भाई महेश भी था, देखते ही देखते पुरे मैदान में लोगों की भीड़ जमा हो गयी और लोग एक रास्ता बना कर उसके दोनों तरफ खड़े हो गए| कुछ ही देर में हेलीकाप्टर से नेहरु जी दल बदल आये, और उस रास्ते से सामने सड़क पर खड़े वाहन की तरफ जाने लगे, जैसे ही हमारे सामने से गुजरे उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखा और मेरे छोटे भाई को जो उस समय 3 वर्ष का रहा होगा गोद में लिया और चूमा, फिर थोड़ी दूर ले जाकर उतार दिया, हम सब अचंभित से देख रहे थे |

यह था उनका बाल प्रेम जिसके चलते उन्हें चाचा कहते थे, और बालकों के प्रेमी, यही वजह है की आज के दिन को बालदिवस के रूप में मनाया जाता है| 

आज राजनैतिक वजहों से कितनी भी आलोचना हो, पर अपने समय में निर्विविद रूप से वे सर्वप्रिय नेता थे, गलतियाँ होना मानव स्वभाव में है पर मैं कभी नहीं मान सकता की देशहित से परे उन्होंने कभी कुछ सोचा हो|

सुरेश चौधरी 

स्वयंसिद्धि

 

प्रेम प्यार की बात जो करते,

नफ़रत की सेज पर सोते हैं।

हैं सच की वंशी सदा बजाते,

पर सच सुनने से वे डरते हैं।‌


सदा सादगी में ही रहते जो,

पल - पल श्रृंगार बदलते हैं।

है ध्यान समाधी सदा लगाते,

पर वो सदा क्रोध में रहते हैं।


लालच से हैं जो दूर हमेशा,

हर-दम वे ललचाये रहते हैं।

अहम-वहम से दूर ही रहते,

पर  तू- तू - मैं - मैं करते हैं।


विश्व शांति के गीत हैं गाते,

पर ख़ुद अशांत ही रहते हैं।

फूलों‌ के ही उपवन में रहते,

पर, काँटों को बोते रहते हैं।


नित मतवाले स्वयंसिद्धि में,

पर-सुख  से जलते  रहते हैं,

है कथनी-करनी एक हमारी,

वह ताल ठोंक कर कहते है।

    -अरुण कुमार पाठक


बच्चों का होता बाल दिवस|


चाचा नेहरू का जन्म दिवस 

बच्चों का होता बाल दिवस|

बाल दिवस है उन्हें समर्पित 

बाल दिवस खुशियों से गर्वित|

चाचा को बच्चे थे प्यारे

उनकी आंखों के थे तारे |

बच्चों को प्यार दुलार दिया 

बच्चों को नव उपहार दिया|

बच्चे होते भविष्य देश के 

कई पंथ के विविध वेश के|

भारत मां के सभी ये बच्चे 

होते हैं ये मन के सच्चे|

ये भारत के कर्ण धार हैं 

भारत मां के शुभ श्रृंगार हैं|

भारत मां के ये सपने हैं 

वसुंधरा के ये गहने है|

स्वर्णिम भारत के दृष्टि है 

बच्चे विकास की वृष्टि है|

धर्म पथ मजहब ना जाने

बच्चे जाति भेद ना माने|

भारत मां की मुस्कान है ये

विहंगों के मधुर गान है ये|

बच्चे भारत के गौरव हैं 

बच्चे भारत के वैभव हैं|

बच्चों का मन कितना सुंदर 

उनकी छवि लगती है मनहर|

बाल दिवस शुभ आया है 

बच्चों को अतिशय भायाहै|


डॉ वीरेंद्र सिंह कुसुमाकर प्रयागराज


खुशियों का खजाना

वे प्यार भरे  बचपन के  दिन, वह गांव पुराना याद आया।

उस खिली सुनहरी धूप तले, डाली का दाना याद आया।।

महुआ,  पीपल  थे  चौकीदार, तो नीम शुद्धता के साधन।

अरहर के खरहर से दुआरभर को, चमकाना याद आया।।

वह गांव नहीं घर था अपना,खलिहान खेत सब थे अपने।

पोरे  पर  बिना  बिछोने के, वह नींद सुहाना याद आया।।

जब चढ़े  पलानी पर  अपने, लौकी नेनुआ के लालच में।

भुजिया चटनी संग लिट्टी ले,माई का बुलाना याद आया।।

उत्तम फल-सब्जी  उगा-उगा, थोड़ा रख बेच दिया करते।

कीचड़  पानी  में  रेंग-रेंग,  वह तालमखाना याद आया।।

दो  चोटी  वाली  वह  लड़की,  फीते से  बंधे फूल सुन्दर।

अल्हड़ सी खूब सांवली सी,उसपे बलखाना याद आया।।

सावन में भींग-भींग सोहनी, आलू उखाड़कर भून दिया।

ले नून लगा वह गरम-गरम,मुंह बाकर खाना याद आया।।

गहरी  निद्रा  में  स्वप्न  मधुर, तब जगा दिये थे पढ़ने को।

बैठा आधा  कम्बल ओढ़े, वह झपकी आना याद आया।।

चूरा  मूसल  से  कूट-कूट, भेली संग  मुंह भर-भर खाना।

काका फूंके ‘होरहा’ मन से, तब उन्हें मनाना याद आया।।

हां  एक-एक  से  रिश्ते  थे, किस घर से हूं था उन्हें पता।

छोटी से छोटी  गलती पर, वह आंख चुराना याद आया।।

था  व्यस्त  गांव भर  शादी में,  बुआ की आई थी बरात।

ना  हलवाई  ना  टंट-घंट,  वह द्वार सजाना याद आया।।

हर  एक  काम  हर  रश्मों  पर, थे  गीत गवनई हो जाते।

वह दौड़-दौड़ वह पूछ-पूछ,वह पात खिलाना याद आया।।

उत्सव के  अलग मजे  होते,  हफ्ते दस दिन सब रहते थे।

कुछ पाहुन फूफा लोगों का, वह गाल बजाना याद आया।।

अब लोग  सिपारिस पर  आते, अब होते खेल दिखावे के।

हम  कैद हुए दीवारों में, खुशियों का खजाना याद आया।।

                                                               …”अनंग”


'भ्रम'

 'भ्रम'


आकर इधर देख आली।

इस निर्झर की धारा में

यह झिलमिल सा 

क्या होता

जैसे चाँदी का सजलगात

क्या कोई बहा गया है 

ढेरों बेला के फूल आज।

या नैसर्गिक आभा ले

इस संध्या बेला में

करने को अठखेली

हैं कोई अप्सरा उतरी

जो भटक गयी हैं 

यहाँ आज।

या लगता कुछ ऐसा

कुछ दिव्य लोक के वासी

मानसरोवर से कुछ

हंस यहाँ पर आये

निर्मल जल में जाकर 

करते विहार जो पंक्ति बांध।

या फिर संध्या होने से

पाकर एकांत इस तट पर

कुछ तारे टूट गगन से

गिर पड़े सलिल आँचल में

जो टिमटिम से करते 

तैर रहे हैं पास-पास।

या सुंदर सी जलपरियाँ

श्वेत वसन पहन कर

धरती की शोभा लखने 

आईं समुद्र के तल से

वह सब मिलजुल कर

तैर रही हैं एक साथ

आकर इधर देख आली।

-शन्नो अग्रवाल


ग़ज़ल



समय के साथ जो चलता नहीं है।

कभी वो वृक्ष फल सकता नहीं है।।


अलौकिक चाह है दुनिया में सबकी,

कोई लौकिक से पर बचता नहीं है।


तेरे रुख़सार को जो देख ले तो,

उसे फिर और कुछ दिखता नहीं है।


सियासत में जो माहिर हो गया वो,

कभी फिर आदमी बनता नहीं है।


बदलता है जो रंग गिरगिट सा हरदम,

उसे तो साॅंप भी डसता नहीं है।


बहार आई है कैसी इस दफ़ा ये,

हरा पत्ता कहीं मिलता नहीं है।


न जाने इस धरा को क्या हुआ है,

कहीं कोई भी गुल खिलता नहीं है।


यहाॅं फैली है दहशत इस क़दर की,

कभी कोई भी सच कहता नहीं है।


संभलकर जो क़दम रखता है हरदम,

फिसलकर वो कभी गिरता नहीं है।


मुहब्बत में निगाहों से जो पी ले,

नशा कुछ और फिर चढ़ता नहीं है।


अगर है साधना सच्ची विजय तो,

कोई साधक कभी मरता नहीं है।

                  विजय तिवारी, अहमदाबाद


“भलाई का दंश”


धर्म पथ पर चलो तो सावधान रहना यार,

दूध पिलाओगे साँपों को, डसेंगे बारंबार। 


सत्य की मशाल जलाओगे, आँधियाँ उठेंगी,

नेकी का साथ दोगे तो नज़रें बदलेंगी।


भलाई का फल तुरंत नहीं, देर से आता है,

पर झूठ का पेड़ जल्दी ही मुरझाता है।


जो मुस्कराएँ संग तुम्हारे, वही वार करेंगे,

जो आँसू पोंछने आएँ, ज़हर उधार देंगे।


सच बोलना आसान नहीं, ये तप की राह है,

हर शब्द पे जग झूठा, बस यही आह है।


धर्म का दीप जो जलता है तूफ़ानों में,

वो बुझ नहीं सकता, रहता है ईमानों में।


कई बार अपनी ही छाया भी डराती है,

जब सत्य की तलवार नीयत पर चल जाती है।


धोखे की मंडी में सच्चाई बिकती नहीं,

दिल से जो निकली, वो दुआ रुकती नहीं।


समय साक्षी है, कर्मों का हिसाब होगा,

साँप भी थकेंगे, पर धर्म का जवाब होगा।


जो दर्द देंगे वही एक दिन नतमस्तक होंगे,

सत्य के सूरज के आगे सब झुकेंगे। 


तो चलो उस राह जहाँ दिल सच्चा रहे,

भले ज़हर मिले, पर मन अच्छा रहे। 


- डॉ. सत्यवान सौरभ


उनका भोलापन



गांवों के वह लिपे पुते घर, फैलें से आंगन 

बरबस हमें मोह लेता है, उनका भोलापन 


हरी फसल की चुनरी ओढ़े, धरती हिय हरसाए 

कोयल मधुर मिलन के चातक, गीत विरह के गाए

झूम झूम कर करने लगते, हैं मयूर नर्तन,बरबस,,,,,,


प्राकृतिक सौंदर्य सुशोभित, गर्वीली  गोरी 

यौवन के मद में मदमाती,वह कमनीय किशोरी 

कजरारे से नवल नयन है, चंचल सी चितवन,बरबस,,,,,,


ऊषा से पहले उठ कर,कर लेती सब तैयारी 

दही बिलोती है भाभी के, संग ननद सुकुमारी 

तरल तक्र के तल पर तैरे,मधुमय मृदु मक्खन,बरबस,,,,


पनघट पर जुड़ रहीं, एक से बढ़कर इक पनिहारी 

अपलक रहे निहार रसीले,सुध बुध भूले सारी 

पग पायलिया बोल सुनाए,छूम छनन छन छन,बरबस,,,,,


जे ग्रामीण बधूटीं  ,सब कामों में हाथ  बँटातीं

घर से कुछ अवकाश मिला तो, पहुंच खेत पर जातीं 

कभी सरोवर में करने, लगतीं जल अवगाहन 

,बरबस हमें मोह लेता, लोगों का भोलापन 


              प्रभु दयाल श्रीवास्तव पीयूष टीकमगढ़


लेखकीय दायित्व : कल और आज


डॉ. गिरीश कुमार वर्मा

“कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है, क्योंकि यह मनुष्य के विचा)रों को दिशा देती है।”---यह कहावत युगों से लेखक के दायित्व का सार प्रकट करती आई है।

लेखन केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि एक विचार-क्रांति का माध्यम है। लेखक अपनी संवेदनाओं, अनुभूतियों, दृष्टिकोण और अनुभवों को शब्दों में ढालकर समाज के समक्ष रखता है। लेखन का उद्देश्य केवल आत्म-अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना और मानवता को उसके सार से जोड़ना होता है।

हर युग का लेखक अपने समय की पीड़ा, संघर्ष और आकांक्षाओं का प्रतिनिधि होता है। समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं — और उनके साथ लेखन के मुद्दे व भावभूमि भी बदल जाती है। यही कारण है कि अश्वघोष अपने युग की अध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं, कालिदास प्रकृति और प्रेम की सौंदर्यदृष्टि के, और प्रेमचंद यथार्थवादी सामाजिक चेतना के। आधुनिक युग में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने लेखन के माध्यम से दलित समाज की पीड़ा को मुखर किया। इस प्रकार हर युग का लेखक अपने समय का जीवंत साक्षी और सृजनशील इतिहासकार होता है।

लेखकीय दायित्व : कल

प्राचीन और मध्यकालीन युग के लेखक समाज की नैतिक दिशा के प्रहरी थे। उनके लेखन में धर्म, नीति, नीति-सूत्र और जीवन- मूल्यों की प्रधानता थी। उदाहरण के लिए, कालिदास ने सौंदर्य और संस्कार का समन्वय किया, जबकि निराला ने अपने लेखन में सामाजिक सरोकार और करुणा का संदेश दिया। साहित्य लोकमंगल का साधन था — “साहित्य का उद्देश्य हितोपदेश” माना गया

लेखकीय दायित्व : आज

आधुनिक युग में लेखन का स्वरूप और ज़िम्मेदारी दोनों व्यापक हो गए हैं। अब लेखक केवल कथा या कविता का रचयिता नहीं, बल्कि सामाजिक विवेक का संरक्षक है। प्रेमचंद ने जमींदारी, गरीबी, अंधविश्वास और जातिवाद की जड़ें उजागर कीं। उनके लेखन ने भारतीय समाज को अपने वास्तविक रूप में देखने की दृष्टि दी। राहुल सांकृत्यायन ने ज्ञानवर्धन के साथ- साथ भारत की प्राचीन संस्कृति और मानवतावादी मूल्यों की पुनर्स्थापना की प्रेरणा दी। वहीं दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी जैसे कवियों ने अन्याय, भ्रष्टाचार और असमानता के विरुद्ध अपनी कलम को हथियार बनाया।

आज के लेखक के सामने नई चुनौतियाँ हैं, सूचना का विस्फोट, सोशल मीडिया की चकाचौंध, और साहित्य का व्यावसायी -करण। ऐसे समय में लेखक का दायित्व है कि वह सत्य और असत्य के बीच की महीन रेखा को पहचानकर समाज को वस्तुनिष्ठ दृष्टि प्रदान करे।

नैतिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी

लेखन केवल मनोरंजन या आर्थिक लाभ का माध्यम नहीं, बल्कि एक नैतिक साधना है। लेखक को अपने लेखन में ईमानदारी, सत्य और करुणा का पालन करना चाहिए। उसकी रचना पाठकों में सोचने, प्रश्न करने और सुधार की प्रेरणा जगाए।

महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जैसी लेखिकाओं ने स्त्री-संवेदना को स्वर दिया, तो हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल ने सामाजिक पाखंड और भ्रष्टादधचार पर तीखा व्यंग्य किया। इन सबका उद्देश्य एक ही रहा — समाज में विवेक और मानवीयता को सशक्त करना। साहित्य केवल आज का नहीं, आने वाले कल का भी साक्षी होता है। इस दृष्टि से लेखक की भूमिका संस्कृति और परंपरा के संरक्षण की भी है। लोककथाएँ, लोकगीत, भाषाई विविधता — ये सब साहित्य के माध्यम से ही जीवित रहते हैं। इसलिए लेखक का यह दायित्व है कि वह अपनी लेखनी से भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखे।

कुल मिलाकर, लेखकीय दायित्व समय के साथ विस्तृत और जटिल हुआ है, पर उसका मूल भाव वही है — सत्य, मानवता और न्याय की रक्षा। लेखक की कलम समाज के सोचने के तरीके, दृष्टिकोण और आदर्शों को बदल सकती है। इसलिए उसका लेखन केवल अभिव्यक्ति नहीं, प्रेरणा भी होना चाहिए। “जब तक लेखक की कलम सच कहने का साहस रखेगी, समाज दिशा नहीं भूलेगा। लेखक का दायित्व ही उसकी अमरता का आधार है।”


श्रीनगर गढ़वाल में "मि उत्तराखंडी छौं'...


बंधुओ, उत्तराखंड की हृदयस्थली और शतकों तक गढ़वाल की राजधानी रही श्रीनगर गढ़वाल के गोला बाजार में एक लोक परिधान प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।

हालांकि समारोह का वीडियो देखते हुए मन गदगद हो रहा था कि अब जबकि एक ओर दुनिया वैश्वीकरण के नाम पर आधुनिकता का लबादा ओढ़कर अपनी परंपराओं को तिलांजलि दे रही है, वहीं हम अपने लोक को बचाए रखने हेतु भले ही मंच पर प्रदर्शन के नाते ही सही, परंतु किसी न किसी रूप में जागृत तो हैं। लेकिन मुझे इस समारोह में जो सबसे अधिक मनभावन बात लगी वह था, बैनर पर अंकित ध्येय वाक्य ! मि उत्तराखंडी छौं...

जब हम बचपन में इसी गोला बाजार में घूमते थे, तो तब हम उत्तराखंडी तो दूर, अपने को गढ़वाली भी नहीं बल्कि श्रीनगरी कहलाने पर गर्व करते थे। इतना ही नहीं, तो हमारी पहली पीढ़ी तो श्रीनगरी भी नहीं बल्कि अपने को बजरिया कहलाते थे। 

जो लोग कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य बनने से क्या मिला ? तो उनको बताइए! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब हम बजरिया, श्रीनगरी या गढ़वाली नहीं बल्कि गर्व से कहते हैं कि मि उत्तराखंडी छौं,...

लेकिन खेद का विषय यह भी है कि जहां एक ओर हम प्रशासनिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक व सामाजिक रूप में अपनी क्षेत्रीय पहचान को व्यापक रूप देते हुए उत्तराखंडी कहने और कहलाने में गर्व कर रहे हैं, वहीं हमारे उत्तराखंड के क्षेत्रीय साहित्यकार अभी तक भी केवल गढ़वाली, कुमाऊनी व जौनसारी का झंडा डंडा लेकर हमारे समाज को बांटने का कार्य कर रहे हैं। जैसे हिमाचल में भी आठ-दस क्षेत्रीय बोली भाषाएं हैं, पर वे अपने को हिमाचली, छत्तीसगढ़ वाले छत्तीसगढ़ी व हरियाणा वाले हरयाणवी कहलाने में गर्व का अहसास जगाते हैं, ठीक उसी तरह से हम उत्तराखंड के क्षेत्रीय विद्वतजनों को भी चाहिए कि हम भी उत्तराखंड की अपनी गढ़वाली-कुमाऊनी और जौनसारी आदि 20-22 क्षेत्रीय बोली-भाषाओं की अपेक्षा अपने को गर्व के साथ उत्तराखंडी भाषी कहलाएं। स्वाभाविक है कि इससे हमारी उत्तराखंडी भाषा एक दिन हिंदी की प्रमुख सहायक भाषा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी और फिर हम गर्व के साथ कह सकेंगे कि "मि उत्तराखंडी छौं !  - डा. राजेश्वर उनियाल


[भाषा की पाठशाला : श्रीमती, श्रीमति और दम्पती



वर्तनी के प्रति लापरवाही के कारण लोग 'सूचि' (सूई) के बदले 'सूची'(लिस्ट) और 'आदि' (इस प्रकार के अन्य का वाचक शब्द) के बदले 'आदी'(अभ्यस्त) लिखते हैं। विचारणीय है कि हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता को देखते हुए, अगर हम ‘शब्द-मूल’ पर तनिक भी ध्यान दे दें, तो ये अशुद्धियाँ अपने-आप तिरोहित हो जाएँगी। आइए, इसे एक उदाहरण से समझते हैं:–


मुहावरे के अर्थ में ‘मति’(बुद्धि) मारी जाती है, ‘मती’(स्त्री) नहीं। इसी तरह, ‘श्रीमती’ को ‘श्रीमति’ और ‘पत्नी’ को ‘पत्नि’ लिखने की ग़लती आम है! वस्तुतः, श्रीमान् का स्त्रीलिंग रूप 'श्रीमती' है, जिसका अर्थ है– विवाहिता नारी अथवा घर की लक्ष्मी। श्री (लक्ष्मी/समृद्धि)+ मती (स्त्री)– 'श्रीमती'। कुछ लोग इसे ‘श्रीमति’ लिख देते हैं। 'मति'(मन् +क्तिन् =मति) शब्द का अर्थ है– ‘बुद्धि’। इस तरह, ‘श्रीमति’ का अर्थ हुआ– 'लक्ष्मी-बुद्धि'। स्पष्ट है कि व्यक्ति यह कहना नहीं चाह रहा होगा।


'मती' 'स्त्रीलिंग सूचक है। इस प्रकार ‘बुद्धिमती’ का अर्थ हुआ– ‘तीक्ष्ण बुद्धि वाली स्त्री या लड़की’, जो बुद्धिमान् का स्त्रीलिंग रूप है। कोई लड़की बुद्धिमान् नहीं होती वरन् बुद्धिमती होती है। इसी प्रकार, आयुष्मती का अर्थ हुआ– ‘अधिक आयु पाने वाली लड़की/स्त्री’, जो आयुष्मान् का स्त्रीलिंग रूप है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘मती’ शब्द का एक अन्य अर्थ किसी प्रकार का मत अथवा राय रखने वाला भी है। जैसे आग्रह करनेवाले को 'आग्रही', हठ करने वाले को 'हठी', वैसे ही मत रखने वाले को 'मती' कह सकते हैं।

दम्पती :  पति और पत्नी जब एक साथ हों, तो उनके लिए शब्द है– दम्पती(या दंपती), जिसे बहुधा लोग ग़लती से दंपति, दम्पत्ति, दंपत्ती इत्यादि लिख देते हैं।


विशेष : वस्तुतः, इ’ एवं ‘ई’ के अनुचित प्रयोग से प्रायः अर्थ-वैपरीत्य तथा अनिष्ट अर्थ की संप्राप्ति होती है। अतः, इस संदर्भ में सावधानी अपेक्षित है। अग्रलिखित शब्दों में दीर्घ ‘ई’ का प्रयोग करना चाहिए– मंत्री, शताब्दी, सूची, पक्षी, योगी इत्यादि; परन्तु इन शब्दों के जब युग्म बनते हैं, तो ह्रस्व ‘इ’ का रूप धारण कर लेते हैं, यथा : मंत्रिपरिषद, शताब्दिसमारोह, सूचिपत्र, पक्षिराज, योगिराज इत्यादि।


ज्ञातव्य है कि  'शताब्दी' शब्द में 'ई' की मात्रा है, जबकि समारोह के साथ यह ह्रस्व होकर 'शताब्दिसमारोह' हो जाता है। ठीक इसी तरह 'मंत्रिपरिषद्' से पृथक् होकर 'मंत्री' में 'ई' है और योगिराज से पृथक् होकर 'योगी' में भी 'ई' है; क्योंकि संधि में ये मंत्रिन् , योगिन् आदि रूप में हैं।

कमलेश kamal

श्रीनगर गढ़वाल में "मि उत्तराखंडी छौं'...

बंधुओ, उत्तराखंड की हृदयस्थली और शतकों तक गढ़वाल की राजधानी रही श्रीनगर गढ़वाल के गोला बाजार में एक लोक परिधान प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।

हालांकि समारोह का वीडियो देखते हुए मन गदगद हो रहा था कि अब जबकि एक ओर दुनिया वैश्वीकरण के नाम पर आधुनिकता का लबादा ओढ़कर अपनी परंपराओं को तिलांजलि दे रही है, वहीं हम अपने लोक को बचाए रखने हेतु भले ही मंच पर प्रदर्शन के नाते ही सही, परंतु किसी न किसी रूप में जागृत तो हैं। लेकिन मुझे इस समारोह में जो सबसे अधिक मनभावन बात लगी वह था, बैनर पर अंकित ध्येय वाक्य ! मि उत्तराखंडी छौं...

जब हम बचपन में इसी गोला बाजार में घूमते थे, तो तब हम उत्तराखंडी तो दूर, अपने को गढ़वाली भी नहीं बल्कि श्रीनगरी कहलाने पर गर्व करते थे। इतना ही नहीं, तो हमारी पहली पीढ़ी तो श्रीनगरी भी नहीं बल्कि अपने को बजरिया कहलाते थे। 

जो लोग कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य बनने से क्या मिला ? तो उनको बताइए! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब हम बजरिया, श्रीनगरी या गढ़वाली नहीं बल्कि गर्व से कहते हैं कि मि उत्तराखंडी छौं,...

लेकिन खेद का विषय यह भी है कि जहां एक ओर हम प्रशासनिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक व सामाजिक रूप में अपनी क्षेत्रीय पहचान को व्यापक रूप देते हुए उत्तराखंडी कहने और कहलाने में गर्व कर रहे हैं, वहीं हमारे उत्तराखंड के क्षेत्रीय साहित्यकार अभी तक भी केवल गढ़वाली, कुमाऊनी व जौनसारी का झंडा डंडा लेकर हमारे समाज को बांटने का कार्य कर रहे हैं। जैसे हिमाचल में भी आठ-दस क्षेत्रीय बोली भाषाएं हैं, पर वे अपने को हिमाचली, छत्तीसगढ़ वाले छत्तीसगढ़ी व हरियाणा वाले हरयाणवी कहलाने में गर्व का अहसास जगाते हैं, ठीक उसी तरह से हम उत्तराखंड के क्षेत्रीय विद्वतजनों को भी चाहिए कि हम भी उत्तराखंड की अपनी गढ़वाली-कुमाऊनी और जौनसारी आदि 20-22 क्षेत्रीय बोली-भाषाओं की अपेक्षा अपने को गर्व के साथ उत्तराखंडी भाषी कहलाएं। स्वाभाविक है कि इससे हमारी उत्तराखंडी भाषा एक दिन हिंदी की प्रमुख सहायक भाषा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी और फिर हम गर्व के साथ कह सकेंगे कि "मि उत्तराखंडी छौं !  - डा. राजेश्वर उनियाल


कच्ची हैं सब सड़कें



घासफूस के घर हैं कच्चे, 

कच्ची हैं  सब  सड़कें। 

पेड़-पौध खलिहान खेत में,

जनजीवन नित धड़कें॥

मध्य  मार्ग में  कुत्ते  खेलें, 

सड़क किनारे  बच्चे। 

लोग-लुगाई हिलमिल रहते, 

लगते  हैं  सब सच्चे॥


चुन्नू-मुन्नू दौड़ लगाते, 

टायर लेकर दर पर। 

मुनिया रानी छतरी लेकर, 

लौट रही है घर पर॥

लोग-बाग सब त्रस्त हुए हैं, 

सूरज चमके नभ में। 

हरियाली खेतों में छाई, 

पुष्प खिले सौरभ में॥


दादी-अम्मा जल भर लातीं,

झटपट चापाकल से।

बंटी लोटा लिए खड़ा है, 

स्नान करेगा जल से॥ 

पनिहारिन नित आतीं-जातीं, 

मटका उनके सर पर। 

पीने का पानी संग्रह कर, 

लातीं अपने  घर पर॥


कच्ची पगडण्डी पर चलकर,

अन्य  ग्राम  सब  जाते। 

अन्न उगाते खेतों में सब, 

फिर मिलजुल कर खाते॥ 

सीधा-सादा जीवन इनका, 

मीठी इनकी बोली। 

प्यार बाँटते रहते निशदिन, 

करते हँसी ठिठोली॥


कहीं ताड़ के पेड़ खड़े हैं, 

कहीं आम अरु महुआ।

कहीं कँटीली झाड़ी फैली, 

कहीं नीम अरु बहुआ॥

ताल-तलैया पनघट पंक्षी, 

है वीरान मड़ैया। 

गौशाला में पशु पालन है, 

ढोर मवेशी गैया॥


 डॉ अर्जुन गुप्ता 'गुंजन'

          प्रयागराज, उत्तर प्रदेश


गर्व हमें बेटियों पर


मुक्तक 

गर्व हमें बेटियों पर अपने भारत मां का मान बढ़ाया|

अपनी प्रतिभा और साहस से भारत मां का ध्वज फहराया|

जीत लिया बेटियां विश्व कप नव नूतन इतिहास गढ़ा 

हर बेटी है लक्ष्मी बाई शौर्य पराक्रम को दर्शाया||


मुक्तक 

भारत मां की वीर बेटियां भारत मां की शान है|

अपनी प्रतिभा अदम्य साहस से गढ़ा नवल प्रतिमान है|

गर्व हमें है बालाओं पर भारत का परचम लहराया 

गर्वित आज है देश हमारा दीनूतन पहचान है||


डॉक्टर वीरेंद्र सिंह कुसुमाकर प्रयागराज


-जमीर बेचकर अमीर बन जाना,


-जमीर बेचकर अमीर बन जाना,

इससे बेहतर है फकीर बन जाना---

जमीरियत इन्सान मे अब रह कहाँ गयी है

जर के लोभ मे सरे बाज़ार बिक गयी है

स्वहित सुखाय के आगे परहित अब बेकाम हो गये

स्वार्थ लोभ आज के दौर के   सर्वथा पहचान हो गये

आदमी का जीवन अब चार दिवारी के भीतर ही सिमट गया

चार दिवारी के पार भी दुनियाँ आदमी ये भूल गया

कदम दर कदम ही ईमान के सौदे हो रहे है 

जमीर को ताक पर रख बाप बेटे बेटा बाप को बेच रहे है

कलयुग का प्रकोप माँ की ममता भी सरे राह बिकती है

ऊंच नीच के फेर मे माँ भी औलादों मे बंटती है

जमीरियत अब गुजरे दौर की कहानी बन गयी

किस्से कहानियों की जबानी बन गयी

जमीर आत्मा पर चले गिनती ही रह गयी

नोचने खसोटने की ये इंसानी बस्ती बन गयी

ईमानदारी परमार्थ अब किताबी शब्द हो गये

हकीकत की दुनियाँ से कोंसो दूर हो गये

एक बाप थे मेरे जिन्होने आत्मा की आवाज को सुना

स्वार्थ स्वहित ठुकरा परमार्थ नैकियत ईमानदारी को चुना

आज भी हमने रहती दुनियाँ मे अन्दर की आवाज को जाना

जमीर बेचकर अमीर बन जाना,इससे बेहतर है फकीर बन जाना

संदीप सक्सेना

जबलपुर म प्र


चौदह रत्न : धरोहर का स्मरण कराता संग्रह

 समीक्षा का शुक्रवार


पुस्तक का नाम - चौदह रत्न

विधा - कविता

कवयित्री - डॉ. ज्योति कृष्ण

प्रकाशन - क्षितिज प्रकाशन, पुणे 

समुद्र मंथन हमारे पुराणों में वर्णित एक प्रमुख घटना है। इस मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई थी। इसी भाँति लम्बे समय के चिंतन-मनन के पश्चात कवयित्री डॉ. ज्योति कृष्ण का कविता-संग्रह ‘चौदह रत्न’ अब पाठकों के हाथ में है। संग्रह में मुख्य रूप से चौदह पौराणिक आख्यानों पर आधारित कविताएँ हैं।

संग्रह का आरम्भ श्री गणेश एवं सरस्वती वंदना से होता है। कवयित्री की कामना है कि माँ सरस्वती उनके घर में विराजें।

 श्वेत कमल का छोड़के आसन,

चरणों को धरती पे धारो ज़रा।

रख दो मेरे सर पे ज्ञान का हाथ,

माँ, आज विराजो तुम मेरे ही घर में॥

 लयात्मकता का अपना प्रभाव होता है। लय के चलते रचनाएँ सरलता से कंठस्थ हो जाती हैं। यही कारण रहा कि हमारी श्रुति परंपरा में इसका बड़ा योगदान रहा। कंठस्थ साहित्य एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक सहज रूप से संप्रेषित हो जाता है। इसका यह प्रमाण देखिए-

सिद्ध स्वाभिमान की, पुत्री वृषभान की,

मुरली की तान की पुकार जैसी राधिका।

कानन में, कुँज में, कृष्ण की कलाई धरे,

कच्ची, कली कोरी, कचनार जैसी राधिका॥

श्री राम और श्री कृष्ण हमारे लोकनायक हैं। उनकी जीवनगाथा हमारे जीवन के कण-कण में है, क्षण-क्षण में है। श्री राम के लिए कहा गया है, ‘रमते कणे कणे इति राम:।’ जो कण-कण में रमता हो, वही श्री राम हैं। संग्रह की चौदह कविताओं में श्री राम के जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित पर पाँच रचनाएँ हैं। इस रचना में श्री राम के प्रति कवयित्री का यह विश्वास देखिए-

अनुनय-विनय सब काम आ जाएँगे,

स्मरण करो तो सारे नाम आ जाएँगे,

छोड़कर अयोध्या का धाम आ जाएँगे,

हृदय से पुकार लो तो राम आ जाएँगे॥

वनवास के लिए निकले श्री राम भारद्वाज आश्रम पहुँचे थे। भारद्वाज मुनि से श्री राम ने पूछा था कि वे किस स्थान कहाँ रहें? भारद्वाज मुनि ने उन्हें नाना स्थान सुझाए। उसका एक उदाहरण देखिए-

जिनके मन में काम नहीं, क्रोध नहीं मद, मोह नहीं,

उसी हृदय में रहो जहाँ पर, लोभ नहीं और द्रोह नहीं।

जो मनुष्य नित विचार कर कहते प्रिय और सत्य वचन,

उसी हृदय में रहो सर्वदा सिय सहित तुम रघुनंदन॥

श्री राम यूँ ही पुरुषोत्तम नहीं हैं। वे मनुष्यता का मर्म हैं-

राम केवल नाम नहीं, सद्भाव है, सत्कर्म हैं ,

अंतस में विराजती इस मनुष्यता का मर्म हैं।

श्री राम कण-कण में हैं तो श्री कृष्ण चराचर में बसते हैं। वे सृष्टि का बीज तत्व हैं। श्रीमद्भागवद्गीता में स्वयं योगेश्वर का उवाच है-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(अध्याय 10, श्लोक 39)


भावार्थ है कि चराचर का बीज कृष्ण हैं। उनके बिना किसी भी चर या अचर का अस्तित्व नहीं है। चराचर में विराजमान माधव के जीवन से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सम्बंधित दो प्रसंग इन कविताओं में हैं। महाभारत से सम्बंधित प्रसंग भी इनमें देखने को मिलते हैं।

इन्हीं में एक प्रसंग अक्षय पात्र का है। सर्वविदित है कि केशव ने अक्षयपात्र द्वारा द्रौपदी एवं पांडवों की दुर्वासा मुनि के क्रोध से रक्षा  की थी। ब्रह्मांड के स्वामी का एक अन्न के एक दाने से तृप्त होना, जगत की तृप्ति है। इस भाव का यह प्रकटन देखिए-

इस कथा से केशव ने जग को दिया यही संदेश,

अन्न के प्रत्येक दाने की महत्ता है विशेष।

सारा ब्रह्मांड जिन योगेश्वर श्रीकृष्ण में व्याप्त है,

उनका भोजन करके तृप्त हो जाना पर्याप्त है।

श्री कृष्ण का जीवन 64 कलाओं में निपुणता का अनन्य उदाहरण है। कौन सोच सकता है कि जीवन के उत्तरार्द्ध में गीता का ज्ञान देनेवाला योगेश्वर, पूर्वार्द्ध में मनभावन कान्हा था। कान्हा का यह मनभावन रूप कवयित्री की इन पंक्तियों में अनुभव कीजिए-

सिर मोरपंख धारे, कारे नैन कजरारे,

मतवाले अलकों के झोल मनभावने॥

धूल-मिट्टी खाए, जसुमति रिसियाए,

बोले तोतले से मीठे-मीठे बोल मनभावने॥

मनभावन मनोहर रूप आगे चलकर अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक और मनुज के उत्थान का मानक बना।


अधर्म पर धर्म की विजय प्रतीक कृष्ण हैं,

पाप के कुचक्र का उत्तर सटीक कृष्ण हैं॥

................................


जिनके बिन हर कथा अधूरी वह कथानक कृष्ण हैं,

मनुज के उत्थान का सर्वोच्च मानक कृष्ण हैं॥


गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य के साथ जो अन्याय किया, वह गुरुता के विरुद्ध था। शक्तिशाली की निर्बलता पर कवयित्री की यह अभिव्यक्ति देखिए-


अद्भुत, अद्वितीय, बेमिसाल थी वो दक्षिणा,

उससे भी बढ़कर वह निश्छल उसकी गुरुभक्ति थी।

एक परंपरा का दुरुपयोग करते-करते

निर्बल साबित हो गए वे श्रेष्ठ जिनमें शक्ति थी॥

कहा जाता है कि अंतर्मन से, करुण स्वर में, पूर्ण निष्ठा से ईश्वर को पुकारा जाए और ईश्वर न आएँ, यह हो ही नहीं सकता। गज और ग्राह के संघर्ष के संदर्भ में कवयित्री की ये पंक्तियाँ देखिए-

निश्छल मन करुण स्वरों में, जब हम उन्हें पुकारेंगे,

निस्संदेह विकट घड़ी से, हमको भगवान उबारेंगे।

इसी भाव का विस्तार इन पंक्तियों में शब्दबद्ध हुआ है-

जिनका स्वरूप निर्विकार है,उनके चरणों में नमस्कार है,

जो हरि गरुड़ पर सवार हैं, उनके चरणों में नमस्कार है।

मानव के भीतर देवता और दानव दोनों निवास करते हैं। यही कारण है कि एक देवव्रत और एक दुर्योधन हम सबके हिस्से में आया है। अपनी-अपनी शर-शय्या पर लेटे मनुष्य का यह चित्रण भीतर तक उतर जाता है-एक देवव्रत छिपा हुआ है, हम साधारण मानव में भी,

किसी न किसी माँ गंगा के, हम सारे भी बेटे हैं।

और एक दुर्योधन भी आया है हम सबके हिस्से में,

इसीलिये हम अपनी-अपनी शर-शय्या पर लेटे हैं॥

भारतीय संस्कृति में गंगा, नदी मात्र नहीं अपितु माँ है। शिव ने जिसे जटा में धारण किया हो, जिसके जल का छिड़काव हर संस्कार में हमारी जीवन पद्धति का अंश हो, वह अमृतदायिनी मात्र नदी हो भी नहीं सकती। इस पयस्विनी की जो दुर्दशा हमने की है, कवयित्री उसके लिए माता से क्षमायाचना करती हैं-

अवनि पर अवतरित हो सब पाप तुमने धो दिए,

कृतज्ञता हमको दिखानी थी, मगर हम स्वार्थी हैं।

हमसे हुआ अपराध गंगे, भूल हमसे हो गई,

शर्म से गर्दन झुकी है, हम क्षमा के प्रार्थी हैं॥

संग्रह में माँ दुर्गा एवं महादेव की स्तुति पर आधारित रचनाएँ हैं। देवी-देवताओं की गाथा पर छोटी कविताएँ हैं। गंगा के प्रदूषण पर विमर्श है तो राधा रानी, गोपियों, बाँसुरी, माँ सीता, शबरी, कैकेयी पर भी चर्चा है।

कुल मिलाकर प्रस्तुत कविता संग्रह मूल रूप से आध्यात्मिक, धार्मिक आख्यानों पर आधारित है। यह काव्यात्मक प्रस्तुति आख्यानों को स्मृति में रखने में सहायक सिद्ध होगी। इसके माध्यम से संस्कृति से कट रही पीढ़ी हमारी धरोहर से परिचित भी हो सकेगी।

डॉ. ज्योति कृष्ण का प्रकाशित होने वाला यह पहली कविता संग्रह है। प्रकाशन का आरम्भ संस्कृति, दर्शन एवं आस्था पर आधारित रचनाओं से हो रहा है। यह शुभ लक्षण है। वे निरंतर लिखती रहें। कामना है कि उनकी आने वाली पुस्तकों के माध्यम से साहित्य एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो सके।

संजय भारद्वाज✍

sanjayuvach2018@gmail.com

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