मुक्तक

 

संस्कार से हीन हो गया सामाजिक परिवेश|

बिखर रहा परिवार चतुर्दिक बढ़े घृणा औ द्वेष|

संस्कार से रहित व्यक्ति रहता समाज में पशुवत 

संवेदनशीलता मर गई भोग रहा नर क्लेश||


जहां पर कद्र नहीं वहां कभी जाना नहीं|
जो नजरों से गिर जाय उसे उठाना नहीं|
जो सत्य पर रूठे उसे मनाने की क्या जरूरत 
मौसम की तरह जो दोस्त बदले अपनाना नहीं||

डॉ वीरेंद्र सिंह कुसुमाकर प्रयागराज

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