स्वाभिमान



उस मुहल्ले में बहुत दिनों बाद आई है चमेली। आँगन में बैठ ढोलकी की रस्सी को खींच-खींचकर सँभाला उसने। फिर मारे दो थाप। अब उसके गले से एक से एक सोहर और बधाइयाँ निकलने लगीं। 

चाभियों के गुच्छे की छनक गजब संगीत पैदा कर रही थी। अब भी घर की मालकिन शर्मीली चाबियाँ कमर में खोंसे रखती हैं। 

थोड़ी देर बाद उसने साथिन हिजड़े को ढोलकी थमा दी। खुद नवजात को गोद में लेकर, गोल-गोल फिरकनी लेने लगी। सूप पर लिटाकर नवजात को निहुछा। पुनः गोलाकार घूमती हुई नृत्य किया और आशीष की झड़ियों संग मालकिन की गोद में दे दिया। 

  "लो चमेली। चार हजार एक हैं।" 

  "नहीं! रख लीजिए।"

  "ओह, तो ज्यादा चाहिए? चलो पाँच हजार...मेरे बीमार बच्चे को इतना कीमती आशीर्वाद दिया है तुम चारों ने।" 

  "अरे! नहीं, वह बात नहीं है।"

  "बात क्या है?"

  "अब हाथ फैलाने की जरूरत नहीं रही। अब नजरें नीची नहीं कर सकती कभी।"

  आश्चर्य से ताकती शर्मीली को देखा चमेली ने। कहा,

  "हमको टीचर की नौकरी मिल गई है।"

आत्मविश्वास के साथ उसने बच्चे के सर पर हाथ रखा।

 "आपके घर हमेशा इज्जत मिली है। इसीलिए बच्चे को आशीर्वाद देने से खुद को रोक नहीं पाए हम।"

अनिता रश्मि 




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