डॉ. गिरीश कुमार वर्मा
“कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है, क्योंकि यह मनुष्य के विचा)रों को दिशा देती है।”---यह कहावत युगों से लेखक के दायित्व का सार प्रकट करती आई है।
लेखन केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि एक विचार-क्रांति का माध्यम है। लेखक अपनी संवेदनाओं, अनुभूतियों, दृष्टिकोण और अनुभवों को शब्दों में ढालकर समाज के समक्ष रखता है। लेखन का उद्देश्य केवल आत्म-अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना और मानवता को उसके सार से जोड़ना होता है।
हर युग का लेखक अपने समय की पीड़ा, संघर्ष और आकांक्षाओं का प्रतिनिधि होता है। समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं — और उनके साथ लेखन के मुद्दे व भावभूमि भी बदल जाती है। यही कारण है कि अश्वघोष अपने युग की अध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं, कालिदास प्रकृति और प्रेम की सौंदर्यदृष्टि के, और प्रेमचंद यथार्थवादी सामाजिक चेतना के। आधुनिक युग में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने लेखन के माध्यम से दलित समाज की पीड़ा को मुखर किया। इस प्रकार हर युग का लेखक अपने समय का जीवंत साक्षी और सृजनशील इतिहासकार होता है।
लेखकीय दायित्व : कल
प्राचीन और मध्यकालीन युग के लेखक समाज की नैतिक दिशा के प्रहरी थे। उनके लेखन में धर्म, नीति, नीति-सूत्र और जीवन- मूल्यों की प्रधानता थी। उदाहरण के लिए, कालिदास ने सौंदर्य और संस्कार का समन्वय किया, जबकि निराला ने अपने लेखन में सामाजिक सरोकार और करुणा का संदेश दिया। साहित्य लोकमंगल का साधन था — “साहित्य का उद्देश्य हितोपदेश” माना गया
लेखकीय दायित्व : आज
आधुनिक युग में लेखन का स्वरूप और ज़िम्मेदारी दोनों व्यापक हो गए हैं। अब लेखक केवल कथा या कविता का रचयिता नहीं, बल्कि सामाजिक विवेक का संरक्षक है। प्रेमचंद ने जमींदारी, गरीबी, अंधविश्वास और जातिवाद की जड़ें उजागर कीं। उनके लेखन ने भारतीय समाज को अपने वास्तविक रूप में देखने की दृष्टि दी। राहुल सांकृत्यायन ने ज्ञानवर्धन के साथ- साथ भारत की प्राचीन संस्कृति और मानवतावादी मूल्यों की पुनर्स्थापना की प्रेरणा दी। वहीं दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी जैसे कवियों ने अन्याय, भ्रष्टाचार और असमानता के विरुद्ध अपनी कलम को हथियार बनाया।
आज के लेखक के सामने नई चुनौतियाँ हैं, सूचना का विस्फोट, सोशल मीडिया की चकाचौंध, और साहित्य का व्यावसायी -करण। ऐसे समय में लेखक का दायित्व है कि वह सत्य और असत्य के बीच की महीन रेखा को पहचानकर समाज को वस्तुनिष्ठ दृष्टि प्रदान करे।
नैतिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी
लेखन केवल मनोरंजन या आर्थिक लाभ का माध्यम नहीं, बल्कि एक नैतिक साधना है। लेखक को अपने लेखन में ईमानदारी, सत्य और करुणा का पालन करना चाहिए। उसकी रचना पाठकों में सोचने, प्रश्न करने और सुधार की प्रेरणा जगाए।
महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जैसी लेखिकाओं ने स्त्री-संवेदना को स्वर दिया, तो हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल ने सामाजिक पाखंड और भ्रष्टादधचार पर तीखा व्यंग्य किया। इन सबका उद्देश्य एक ही रहा — समाज में विवेक और मानवीयता को सशक्त करना। साहित्य केवल आज का नहीं, आने वाले कल का भी साक्षी होता है। इस दृष्टि से लेखक की भूमिका संस्कृति और परंपरा के संरक्षण की भी है। लोककथाएँ, लोकगीत, भाषाई विविधता — ये सब साहित्य के माध्यम से ही जीवित रहते हैं। इसलिए लेखक का यह दायित्व है कि वह अपनी लेखनी से भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखे।
कुल मिलाकर, लेखकीय दायित्व समय के साथ विस्तृत और जटिल हुआ है, पर उसका मूल भाव वही है — सत्य, मानवता और न्याय की रक्षा। लेखक की कलम समाज के सोचने के तरीके, दृष्टिकोण और आदर्शों को बदल सकती है। इसलिए उसका लेखन केवल अभिव्यक्ति नहीं, प्रेरणा भी होना चाहिए। “जब तक लेखक की कलम सच कहने का साहस रखेगी, समाज दिशा नहीं भूलेगा। लेखक का दायित्व ही उसकी अमरता का आधार है।”
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