चौदह रत्न : धरोहर का स्मरण कराता संग्रह

 समीक्षा का शुक्रवार


पुस्तक का नाम - चौदह रत्न

विधा - कविता

कवयित्री - डॉ. ज्योति कृष्ण

प्रकाशन - क्षितिज प्रकाशन, पुणे 

समुद्र मंथन हमारे पुराणों में वर्णित एक प्रमुख घटना है। इस मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई थी। इसी भाँति लम्बे समय के चिंतन-मनन के पश्चात कवयित्री डॉ. ज्योति कृष्ण का कविता-संग्रह ‘चौदह रत्न’ अब पाठकों के हाथ में है। संग्रह में मुख्य रूप से चौदह पौराणिक आख्यानों पर आधारित कविताएँ हैं।

संग्रह का आरम्भ श्री गणेश एवं सरस्वती वंदना से होता है। कवयित्री की कामना है कि माँ सरस्वती उनके घर में विराजें।

 श्वेत कमल का छोड़के आसन,

चरणों को धरती पे धारो ज़रा।

रख दो मेरे सर पे ज्ञान का हाथ,

माँ, आज विराजो तुम मेरे ही घर में॥

 लयात्मकता का अपना प्रभाव होता है। लय के चलते रचनाएँ सरलता से कंठस्थ हो जाती हैं। यही कारण रहा कि हमारी श्रुति परंपरा में इसका बड़ा योगदान रहा। कंठस्थ साहित्य एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक सहज रूप से संप्रेषित हो जाता है। इसका यह प्रमाण देखिए-

सिद्ध स्वाभिमान की, पुत्री वृषभान की,

मुरली की तान की पुकार जैसी राधिका।

कानन में, कुँज में, कृष्ण की कलाई धरे,

कच्ची, कली कोरी, कचनार जैसी राधिका॥

श्री राम और श्री कृष्ण हमारे लोकनायक हैं। उनकी जीवनगाथा हमारे जीवन के कण-कण में है, क्षण-क्षण में है। श्री राम के लिए कहा गया है, ‘रमते कणे कणे इति राम:।’ जो कण-कण में रमता हो, वही श्री राम हैं। संग्रह की चौदह कविताओं में श्री राम के जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित पर पाँच रचनाएँ हैं। इस रचना में श्री राम के प्रति कवयित्री का यह विश्वास देखिए-

अनुनय-विनय सब काम आ जाएँगे,

स्मरण करो तो सारे नाम आ जाएँगे,

छोड़कर अयोध्या का धाम आ जाएँगे,

हृदय से पुकार लो तो राम आ जाएँगे॥

वनवास के लिए निकले श्री राम भारद्वाज आश्रम पहुँचे थे। भारद्वाज मुनि से श्री राम ने पूछा था कि वे किस स्थान कहाँ रहें? भारद्वाज मुनि ने उन्हें नाना स्थान सुझाए। उसका एक उदाहरण देखिए-

जिनके मन में काम नहीं, क्रोध नहीं मद, मोह नहीं,

उसी हृदय में रहो जहाँ पर, लोभ नहीं और द्रोह नहीं।

जो मनुष्य नित विचार कर कहते प्रिय और सत्य वचन,

उसी हृदय में रहो सर्वदा सिय सहित तुम रघुनंदन॥

श्री राम यूँ ही पुरुषोत्तम नहीं हैं। वे मनुष्यता का मर्म हैं-

राम केवल नाम नहीं, सद्भाव है, सत्कर्म हैं ,

अंतस में विराजती इस मनुष्यता का मर्म हैं।

श्री राम कण-कण में हैं तो श्री कृष्ण चराचर में बसते हैं। वे सृष्टि का बीज तत्व हैं। श्रीमद्भागवद्गीता में स्वयं योगेश्वर का उवाच है-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(अध्याय 10, श्लोक 39)


भावार्थ है कि चराचर का बीज कृष्ण हैं। उनके बिना किसी भी चर या अचर का अस्तित्व नहीं है। चराचर में विराजमान माधव के जीवन से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सम्बंधित दो प्रसंग इन कविताओं में हैं। महाभारत से सम्बंधित प्रसंग भी इनमें देखने को मिलते हैं।

इन्हीं में एक प्रसंग अक्षय पात्र का है। सर्वविदित है कि केशव ने अक्षयपात्र द्वारा द्रौपदी एवं पांडवों की दुर्वासा मुनि के क्रोध से रक्षा  की थी। ब्रह्मांड के स्वामी का एक अन्न के एक दाने से तृप्त होना, जगत की तृप्ति है। इस भाव का यह प्रकटन देखिए-

इस कथा से केशव ने जग को दिया यही संदेश,

अन्न के प्रत्येक दाने की महत्ता है विशेष।

सारा ब्रह्मांड जिन योगेश्वर श्रीकृष्ण में व्याप्त है,

उनका भोजन करके तृप्त हो जाना पर्याप्त है।

श्री कृष्ण का जीवन 64 कलाओं में निपुणता का अनन्य उदाहरण है। कौन सोच सकता है कि जीवन के उत्तरार्द्ध में गीता का ज्ञान देनेवाला योगेश्वर, पूर्वार्द्ध में मनभावन कान्हा था। कान्हा का यह मनभावन रूप कवयित्री की इन पंक्तियों में अनुभव कीजिए-

सिर मोरपंख धारे, कारे नैन कजरारे,

मतवाले अलकों के झोल मनभावने॥

धूल-मिट्टी खाए, जसुमति रिसियाए,

बोले तोतले से मीठे-मीठे बोल मनभावने॥

मनभावन मनोहर रूप आगे चलकर अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक और मनुज के उत्थान का मानक बना।


अधर्म पर धर्म की विजय प्रतीक कृष्ण हैं,

पाप के कुचक्र का उत्तर सटीक कृष्ण हैं॥

................................


जिनके बिन हर कथा अधूरी वह कथानक कृष्ण हैं,

मनुज के उत्थान का सर्वोच्च मानक कृष्ण हैं॥


गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य के साथ जो अन्याय किया, वह गुरुता के विरुद्ध था। शक्तिशाली की निर्बलता पर कवयित्री की यह अभिव्यक्ति देखिए-


अद्भुत, अद्वितीय, बेमिसाल थी वो दक्षिणा,

उससे भी बढ़कर वह निश्छल उसकी गुरुभक्ति थी।

एक परंपरा का दुरुपयोग करते-करते

निर्बल साबित हो गए वे श्रेष्ठ जिनमें शक्ति थी॥

कहा जाता है कि अंतर्मन से, करुण स्वर में, पूर्ण निष्ठा से ईश्वर को पुकारा जाए और ईश्वर न आएँ, यह हो ही नहीं सकता। गज और ग्राह के संघर्ष के संदर्भ में कवयित्री की ये पंक्तियाँ देखिए-

निश्छल मन करुण स्वरों में, जब हम उन्हें पुकारेंगे,

निस्संदेह विकट घड़ी से, हमको भगवान उबारेंगे।

इसी भाव का विस्तार इन पंक्तियों में शब्दबद्ध हुआ है-

जिनका स्वरूप निर्विकार है,उनके चरणों में नमस्कार है,

जो हरि गरुड़ पर सवार हैं, उनके चरणों में नमस्कार है।

मानव के भीतर देवता और दानव दोनों निवास करते हैं। यही कारण है कि एक देवव्रत और एक दुर्योधन हम सबके हिस्से में आया है। अपनी-अपनी शर-शय्या पर लेटे मनुष्य का यह चित्रण भीतर तक उतर जाता है-एक देवव्रत छिपा हुआ है, हम साधारण मानव में भी,

किसी न किसी माँ गंगा के, हम सारे भी बेटे हैं।

और एक दुर्योधन भी आया है हम सबके हिस्से में,

इसीलिये हम अपनी-अपनी शर-शय्या पर लेटे हैं॥

भारतीय संस्कृति में गंगा, नदी मात्र नहीं अपितु माँ है। शिव ने जिसे जटा में धारण किया हो, जिसके जल का छिड़काव हर संस्कार में हमारी जीवन पद्धति का अंश हो, वह अमृतदायिनी मात्र नदी हो भी नहीं सकती। इस पयस्विनी की जो दुर्दशा हमने की है, कवयित्री उसके लिए माता से क्षमायाचना करती हैं-

अवनि पर अवतरित हो सब पाप तुमने धो दिए,

कृतज्ञता हमको दिखानी थी, मगर हम स्वार्थी हैं।

हमसे हुआ अपराध गंगे, भूल हमसे हो गई,

शर्म से गर्दन झुकी है, हम क्षमा के प्रार्थी हैं॥

संग्रह में माँ दुर्गा एवं महादेव की स्तुति पर आधारित रचनाएँ हैं। देवी-देवताओं की गाथा पर छोटी कविताएँ हैं। गंगा के प्रदूषण पर विमर्श है तो राधा रानी, गोपियों, बाँसुरी, माँ सीता, शबरी, कैकेयी पर भी चर्चा है।

कुल मिलाकर प्रस्तुत कविता संग्रह मूल रूप से आध्यात्मिक, धार्मिक आख्यानों पर आधारित है। यह काव्यात्मक प्रस्तुति आख्यानों को स्मृति में रखने में सहायक सिद्ध होगी। इसके माध्यम से संस्कृति से कट रही पीढ़ी हमारी धरोहर से परिचित भी हो सकेगी।

डॉ. ज्योति कृष्ण का प्रकाशित होने वाला यह पहली कविता संग्रह है। प्रकाशन का आरम्भ संस्कृति, दर्शन एवं आस्था पर आधारित रचनाओं से हो रहा है। यह शुभ लक्षण है। वे निरंतर लिखती रहें। कामना है कि उनकी आने वाली पुस्तकों के माध्यम से साहित्य एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो सके।

संजय भारद्वाज✍

sanjayuvach2018@gmail.com

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