दो-चार पंक्तियाँ
प्रेम से
तुम्हारे लिए लिखीं।
तुम पर शब्दों की
प्रेम–कविता-रूपी माला से
तुम्हारा सिंगार किया।
और तुम्हें लिखते-लिखते
कब मैंने
अपने आप को पा लिया—
मुझे ख़बर तक नहीं लगी।
मानो जैसे
मुसाफ़िर को
मंज़िल मिल गई हो।
इतना बड़ा योगदान है
तुम्हारा मेरे जीवन में—
कैसे मैं तुम्हें
भूल पाऊँ?
– मिलिंद बोरकर
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