श्रीनगर गढ़वाल में "मि उत्तराखंडी छौं'...


बंधुओ, उत्तराखंड की हृदयस्थली और शतकों तक गढ़वाल की राजधानी रही श्रीनगर गढ़वाल के गोला बाजार में एक लोक परिधान प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।

हालांकि समारोह का वीडियो देखते हुए मन गदगद हो रहा था कि अब जबकि एक ओर दुनिया वैश्वीकरण के नाम पर आधुनिकता का लबादा ओढ़कर अपनी परंपराओं को तिलांजलि दे रही है, वहीं हम अपने लोक को बचाए रखने हेतु भले ही मंच पर प्रदर्शन के नाते ही सही, परंतु किसी न किसी रूप में जागृत तो हैं। लेकिन मुझे इस समारोह में जो सबसे अधिक मनभावन बात लगी वह था, बैनर पर अंकित ध्येय वाक्य ! मि उत्तराखंडी छौं...

जब हम बचपन में इसी गोला बाजार में घूमते थे, तो तब हम उत्तराखंडी तो दूर, अपने को गढ़वाली भी नहीं बल्कि श्रीनगरी कहलाने पर गर्व करते थे। इतना ही नहीं, तो हमारी पहली पीढ़ी तो श्रीनगरी भी नहीं बल्कि अपने को बजरिया कहलाते थे। 

जो लोग कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य बनने से क्या मिला ? तो उनको बताइए! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब हम बजरिया, श्रीनगरी या गढ़वाली नहीं बल्कि गर्व से कहते हैं कि मि उत्तराखंडी छौं,...

लेकिन खेद का विषय यह भी है कि जहां एक ओर हम प्रशासनिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक व सामाजिक रूप में अपनी क्षेत्रीय पहचान को व्यापक रूप देते हुए उत्तराखंडी कहने और कहलाने में गर्व कर रहे हैं, वहीं हमारे उत्तराखंड के क्षेत्रीय साहित्यकार अभी तक भी केवल गढ़वाली, कुमाऊनी व जौनसारी का झंडा डंडा लेकर हमारे समाज को बांटने का कार्य कर रहे हैं। जैसे हिमाचल में भी आठ-दस क्षेत्रीय बोली भाषाएं हैं, पर वे अपने को हिमाचली, छत्तीसगढ़ वाले छत्तीसगढ़ी व हरियाणा वाले हरयाणवी कहलाने में गर्व का अहसास जगाते हैं, ठीक उसी तरह से हम उत्तराखंड के क्षेत्रीय विद्वतजनों को भी चाहिए कि हम भी उत्तराखंड की अपनी गढ़वाली-कुमाऊनी और जौनसारी आदि 20-22 क्षेत्रीय बोली-भाषाओं की अपेक्षा अपने को गर्व के साथ उत्तराखंडी भाषी कहलाएं। स्वाभाविक है कि इससे हमारी उत्तराखंडी भाषा एक दिन हिंदी की प्रमुख सहायक भाषा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी और फिर हम गर्व के साथ कह सकेंगे कि "मि उत्तराखंडी छौं !  - डा. राजेश्वर उनियाल


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