गांवों के वह लिपे पुते घर, फैलें से आंगन
बरबस हमें मोह लेता है, उनका भोलापन
हरी फसल की चुनरी ओढ़े, धरती हिय हरसाए
कोयल मधुर मिलन के चातक, गीत विरह के गाए
झूम झूम कर करने लगते, हैं मयूर नर्तन,बरबस,,,,,,
प्राकृतिक सौंदर्य सुशोभित, गर्वीली गोरी
यौवन के मद में मदमाती,वह कमनीय किशोरी
कजरारे से नवल नयन है, चंचल सी चितवन,बरबस,,,,,,
ऊषा से पहले उठ कर,कर लेती सब तैयारी
दही बिलोती है भाभी के, संग ननद सुकुमारी
तरल तक्र के तल पर तैरे,मधुमय मृदु मक्खन,बरबस,,,,
पनघट पर जुड़ रहीं, एक से बढ़कर इक पनिहारी
अपलक रहे निहार रसीले,सुध बुध भूले सारी
पग पायलिया बोल सुनाए,छूम छनन छन छन,बरबस,,,,,
जे ग्रामीण बधूटीं ,सब कामों में हाथ बँटातीं
घर से कुछ अवकाश मिला तो, पहुंच खेत पर जातीं
कभी सरोवर में करने, लगतीं जल अवगाहन
,बरबस हमें मोह लेता, लोगों का भोलापन
प्रभु दयाल श्रीवास्तव पीयूष टीकमगढ़
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