इश्क में बस वो सितम करते रहे।
और हम हंसकर के सब सहते रहे।।
ज़िन्दगी जीने की क़ीमत है यही,
हर घड़ी घुट-घुट के ही मरते रहे।
जिनको सींचा हमने अपने ख़ून से,
फूल वो भी शूल बन चुभते रहे।
ख़त में सब जज़्बात हमने लिख दिए,
और वो बस शब्द ही पढ़ते रहे।
कोई भी साया न काम आया कभी,
ज़िन्दगी भर धूप में चलते रहे।
इस क़दर दहशत में पूरा बाग़ है,
बाग़बां सैयाद को कहते रहे।
आग के दरिया से भी खेले हैं हम,
और वो शबनम से भी जलते रहे।
हम क़सम खाते थे वो मासूम है,
और हम पर दोष वो मढ़ते रहे।
नेट, मोबाइल का दिल से शुक्रिया,
दूर रहकर भी सदा मिलते रहे।
हम जहाॅं से भी गुजरते हैं विजय,
कहकशां से रास्ते सजते रहे।
विजय तिवारी, अहमदाबाद
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