ग़ज़ल



समय के साथ जो चलता नहीं है।

कभी वो वृक्ष फल सकता नहीं है।।


अलौकिक चाह है दुनिया में सबकी,

कोई लौकिक से पर बचता नहीं है।


तेरे रुख़सार को जो देख ले तो,

उसे फिर और कुछ दिखता नहीं है।


सियासत में जो माहिर हो गया वो,

कभी फिर आदमी बनता नहीं है।


बदलता है जो रंग गिरगिट सा हरदम,

उसे तो साॅंप भी डसता नहीं है।


बहार आई है कैसी इस दफ़ा ये,

हरा पत्ता कहीं मिलता नहीं है।


न जाने इस धरा को क्या हुआ है,

कहीं कोई भी गुल खिलता नहीं है।


यहाॅं फैली है दहशत इस क़दर की,

कभी कोई भी सच कहता नहीं है।


संभलकर जो क़दम रखता है हरदम,

फिसलकर वो कभी गिरता नहीं है।


मुहब्बत में निगाहों से जो पी ले,

नशा कुछ और फिर चढ़ता नहीं है।


अगर है साधना सच्ची विजय तो,

कोई साधक कभी मरता नहीं है।

                  विजय तिवारी, अहमदाबाद


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