'भ्रम'
आकर इधर देख आली।
इस निर्झर की धारा में
यह झिलमिल सा
क्या होता
जैसे चाँदी का सजलगात
क्या कोई बहा गया है
ढेरों बेला के फूल आज।
या नैसर्गिक आभा ले
इस संध्या बेला में
करने को अठखेली
हैं कोई अप्सरा उतरी
जो भटक गयी हैं
यहाँ आज।
या लगता कुछ ऐसा
कुछ दिव्य लोक के वासी
मानसरोवर से कुछ
हंस यहाँ पर आये
निर्मल जल में जाकर
करते विहार जो पंक्ति बांध।
या फिर संध्या होने से
पाकर एकांत इस तट पर
कुछ तारे टूट गगन से
गिर पड़े सलिल आँचल में
जो टिमटिम से करते
तैर रहे हैं पास-पास।
या सुंदर सी जलपरियाँ
श्वेत वसन पहन कर
धरती की शोभा लखने
आईं समुद्र के तल से
वह सब मिलजुल कर
तैर रही हैं एक साथ
आकर इधर देख आली।
-शन्नो अग्रवाल
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