वे प्यार भरे बचपन के दिन, वह गांव पुराना याद आया।
उस खिली सुनहरी धूप तले, डाली का दाना याद आया।।
महुआ, पीपल थे चौकीदार, तो नीम शुद्धता के साधन।
अरहर के खरहर से दुआरभर को, चमकाना याद आया।।
वह गांव नहीं घर था अपना,खलिहान खेत सब थे अपने।
पोरे पर बिना बिछोने के, वह नींद सुहाना याद आया।।
जब चढ़े पलानी पर अपने, लौकी नेनुआ के लालच में।
भुजिया चटनी संग लिट्टी ले,माई का बुलाना याद आया।।
उत्तम फल-सब्जी उगा-उगा, थोड़ा रख बेच दिया करते।
कीचड़ पानी में रेंग-रेंग, वह तालमखाना याद आया।।
दो चोटी वाली वह लड़की, फीते से बंधे फूल सुन्दर।
अल्हड़ सी खूब सांवली सी,उसपे बलखाना याद आया।।
सावन में भींग-भींग सोहनी, आलू उखाड़कर भून दिया।
ले नून लगा वह गरम-गरम,मुंह बाकर खाना याद आया।।
गहरी निद्रा में स्वप्न मधुर, तब जगा दिये थे पढ़ने को।
बैठा आधा कम्बल ओढ़े, वह झपकी आना याद आया।।
चूरा मूसल से कूट-कूट, भेली संग मुंह भर-भर खाना।
काका फूंके ‘होरहा’ मन से, तब उन्हें मनाना याद आया।।
हां एक-एक से रिश्ते थे, किस घर से हूं था उन्हें पता।
छोटी से छोटी गलती पर, वह आंख चुराना याद आया।।
था व्यस्त गांव भर शादी में, बुआ की आई थी बरात।
ना हलवाई ना टंट-घंट, वह द्वार सजाना याद आया।।
हर एक काम हर रश्मों पर, थे गीत गवनई हो जाते।
वह दौड़-दौड़ वह पूछ-पूछ,वह पात खिलाना याद आया।।
उत्सव के अलग मजे होते, हफ्ते दस दिन सब रहते थे।
कुछ पाहुन फूफा लोगों का, वह गाल बजाना याद आया।।
अब लोग सिपारिस पर आते, अब होते खेल दिखावे के।
हम कैद हुए दीवारों में, खुशियों का खजाना याद आया।।
…”अनंग”
No comments:
Post a Comment