कसूरवार कौन

 अनिता रश्मि 

सविता की महेश ने रक्षा की। जान पर खेलकर बचाया उसे। वह उसका आभार मानती रही। सविता को उसकी झोपड़ी में पहुँचाया और पुलिस को इत्तिला कर दी। कर्तव्य पालन कर निश्चिंत हो गया, अब पुलिस गुंडों को देख लेगी। 

पुलिस भी काफी तत्पर। दारोगा गुंडों को पकड़ने के लिए कृतसंकल्प। पूछताछ जारी। 

रात के बारह बजे तक दारोगा ने अपने मकान में कदम नहीं रखा। प्रतीक्षारत बीवी निश्चिंत - काम में इतने इंन्वाल्व हो ही जाते हैं। 

दूसरे दिन की बस इतनी कथा कि सवेरे सविता का शव पँखे से लटका मिला और नौ बजे तक उसकी आत्महत्या का जिम्मेदार महेश पकड़ लिया गया। 

इधर मुकेश के कानों में फोन पर सविता का आर्तनाद गूँज रहा था, "दारोगा को छोड़ना नय बाबू...एकदम नय छोड़ना।" 


स्वयं को टटोले

 एक राह पर चलते -चलते दो व्यक्तियों की मुलाकात हुई । दोनों को एक ही शहर में 10 दिन रुकना था अतः साथ ही रहे।दस दिन बाद दोनों के अलग होने का समय आया तो एक ने कहा- भाई साहब !दस दिन तक हम दोनों साथ रहे, क्या आपने मुझे पहचाना ?दूसरे ने कहा:-  नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।

पहला यात्री बोला महोदय, मैं एक नामी चोर व चालाक व्यक्ति हूँ,परन्तु आप तो हमसे भी ज्यादा चालाक निकले।दूसरा यात्री बोला कैसे?पहला यात्री- कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर दस दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला । इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है ? बिल्कुल खाली हाथ हैं।दूसरा यात्री मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं भी हैं।पहला यात्री बोला तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिले क्यों नहीं ?दूसरा यात्री- मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था और तुम दस दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे।अपनी पोटली सँभालने की जरूरत ही नहीं समझी । तो फिर तुम्हें कुछ मिलता कहाँ से ?यही समस्या हर इंसान की है। क्योंकि निगाह सदैव दूसरे की गठरी पर होती है !ईश्वर नित नई खुशियाँ हमारी झोल़ी में डालता है, परन्तु हमें अपनी गठरी पर निगाह डालने की फुर्सत ही नहीं है । यही सबकी मूल भूत समस्या है । जिस दिन से इंसान दूसरे की ताकझांक बंद कर देगा उस क्षण सारी समस्या का समाधान हो जाऐगा !

अपनी गठरी ही टटोलें। जीवन में सबसे बड़ा गूढ़ मंत्र है । स्वयं को टटोले और जीवन-पथ पर आगे बढ़ें…सफलतायें आप की प्रतीक्षा में हैं।रजनी मिश्रा।

गौरैया

सबेरे रोज़ छत पर गीत तो गाती है गौरैया 

मगर जाने कहाँ फिर सारा दिन जाती है गौरैया 


हजारों पेड़ कटते जब कहीं बनता है हाई- वे 

सड़क के नाम से ही अब तो डर जाती है गौरैया 


शिकारी हर तरफ़ बैठे हैं ये भी जानती है वो  

मगर बच्चों को दाने खोजकर लाती है गौरैया 


हमारे पास तो घर है कि जिसमें एक हीटर है 

मगर इस ठण्ड से बचने कहाँ जाती है गौरैया 


अमूमन चैत्र के महिने में अपना घर सजाती है 

मगर कुछ जेठ के पहले ही शर्माती है गौरैया 


सुहूलत लाख हों लेकिन ग़ुलामी तो ग़ुलामी है 

किसी पिंजरे में देकर जान बतलाती है गौरैया 


@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

नंगेपन को आधुनिकता और दिगम्बरत्व को अश्लीलता समझने की भूल में भारतीय समाज


प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली  


दिगंबर जैन सम्प्रदाय के परम आराध्य जिनेन्द्र देव या तीर्थंकरों की खड्गासन मुद्रा में निर्वस्त्र और नग्न प्रतिमाओं को लेकर तथा दिगम्बर जैन मुनियों के नग्न विहार पर खासे संवाद और विवाद होते रहते हैं | नग्नता को अश्लीलता के परिप्रेक्ष्य में भी देखकर पीके जैसी फिल्मों में इसे मनोविनोद के केंद्र भी बनाने जैसे प्रयास होते रहते हैं | 


आये दिन आज के शिक्षित और ज्ञान युक्त विकसित समाज के बीच भी त्याग तपस्या की मूर्ति स्वरूप दिगम्बर जैन मुनि जब सम्पूर्ण भारत में नंगे पैर पैदल बिहार करके जगत को अध्यात्म, अहिंसा ,शांति और भाई चारे का संदेश देते हैं तब कई बार असामाजिक तत्त्व उन्हें अपमानित करने और कष्ट पहुंचाने का कार्य करके अपने अज्ञान का और अशिष्टता का परिचय देते रहते हैं ।


दिगम्बर साधना के पीछे,दिगंबर जैन मूर्तियों के पीछे जो दर्शन है ,जो अवधारणा है उसे समझे बिना ही अनेक अज्ञानी लोग कुछ भी कथन करने से पीछे नहीं रहते | इस विषय को आज के विकृत समाज को समझाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है | एक साहित्यकार का कथन है कि भारत में ऐसे दिन आने वाले हैं जब लोग युद्ध का तो समर्थन करेंगे और आध्यात्मिक नग्न साधना का विरोध करेंगे ।  


सुप्रसिद्ध जैन मनीषी सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री जी ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जैनधर्म’ में मूर्तिपूजा के प्रकरण में पृष्ठ ९८ -१०० तक इसकी सुन्दर व्याख्या की है जिसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर जी का वह वक्तव्य उद्धृत किया है जो उन्होंने श्रवणबेलगोला स्थित सुप्रसिद्ध भगवान् गोमटेश बाहुबली की विशाल नग्न प्रतिमा को देखकर प्रगट किये थे | 


वे लिखते हैं - जैन मूर्ति निरावरण और निराभरण होती है जो लोग सवस्त्र और सालंकार मूर्ति की उपासना करते हैं उन्हें शायद नग्न मूर्ति अश्लील प्रतीत होती है | इस संबंध में हम अपनी ओर से कुछ ना लिखकर सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर के वे उद्गार यहां अंकित करते हैं जो उन्होंने श्रवणबेलगोला में स्थित भगवान बाहुबली की प्रशांत किंतु नग्न मूर्ति को देखकर अपने एक लेख में व्यक्त किए थे |  

वे लिखते हैं – ‘सांसारिक शिष्टाचार में आसक्त हम इन मूर्ति को देखते ही मन में विचार करते हैं कि मूर्ति नग्न है | हम मन में और समाज में भांति भांति की मैली वस्तुओं का संग्रह करते हैं ,परंतु हमें उससे नहीं होती है घृणा और नहीं आती है लज्जा |  परंतु नग्नता देखकर घबराते हैं और नग्नता में अश्लीलता का अनुभव करते हैं | इसमें सदाचार का द्रोह है और यह लज्जास्पद है | अपनी नग्नता को छिपाने के लिए लोगों ने आत्महत्या भी की है परंतु क्या नग्नता वस्तुतः अभद्र है वास्तव में श्रीविहीन है ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसकी लज्जा आती | पुष्प नग्न होते हैं पशु पक्षी नग्न ही रहते हैं | प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोई है ऐसे बालक भी नग्न ही घूमते हैं | उनको इसकी शर्म नहीं आती और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी इसमें लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता | लज्जा की बात जाने दें | इसमें किसी प्रकार का अश्लील, विभत्स, जुगुप्सा, विश्री अरोचक हमें लगा है | ऐसा किसी भी मनुष्य को अनुभव नहीं | इसका कारण क्या है ? कारण यही की नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ स्वभाव शुदा है | 

मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने मन के विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्ते की ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभाव सुंदर नग्नता उसे सहन नहीं होती | दोष नग्नता का नहीं है पर अपने कृत्रिम जीवन का है | बीमार मनुष्य के समक्ष परिपथ को फल पौष्टिक मेवा और सात्विक आहार भी स्वतंत्रता पूर्वक रख नहीं सकते | 

यह दोष उन खाद्य पदार्थों का नहीं पर मनुष्य के मानसिक रोग का है | नग्नता छिपाने में नग्नता की लज्जा नहीं, पर  इसके मूल में विकारी पुरुष के प्रति दया भाव है, रक्षणवृति है | पर जैसे बालक के सामने-नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है वैसे ही पुण्यपुरुषों के सामने वीतराग विभूतियों के समक्ष भी शांत हो जाते हैं | जहां भव्यता है, दिव्यता है, वहां भी मनुष्य पराजित होकर विशुद्ध होता है | मूर्तिकार सोचते तो माधवीलता की एक शाखा जंघा के ऊपर से ले जाकर कमर पर्यंत ले जाते | इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नहीं थी | पर फिर तो उन्हें सारी फिलोसोफी की हत्या करनी पड़ती | बालक आपके समक्ष लग्न खड़े होते हैं | उस समय में कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियों के समान अपने हाथों द्वारा अपनी नग्नता नहीं छुपाते | उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नता को पवित्र करती है | उनके लिए दूसरा आवरण किस काम का है ? 

जब मैं काका कालेलकर के पास गोमटेश्वर की मूर्ति देखने गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध अनेक थे | हम में से किसी को भी इस मूर्ति का दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालूम नहीं हुआ | अस्वाभाविक प्रतीत होने का प्रश्न ही नहीं था | मैंने अनेक मूर्तियां देखी हैं और मन विकारी होने के बदले उल्टा इन दर्शनों के कारण ही निर्विकारी होने का अनुभव करता है | मैंने ऐसी भी मूर्तियां तथा चित्र देखें हैं कि जो वस्त्र आभूषण से आच्छादित होने पर भी केवल विकार प्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई हैं | केवल एक औपचारिक लंगोट पहनने वाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्य का वातावरण उपस्थित करते हैं | इसके विपरीत सिर से पैर पर्यंत वस्त्राभूषणों से लदे हुए व्यक्ति आपके एक इंगित मात्र से अथवा अपने नखरे के थोड़े से इशारे से मनुष्य को अस्वस्थ कर देते हैं, नीचे गिरा देते हैं | अतः हमारी नग्नता विषयक दृष्टि और हमारा विकारों की ओर सुझाव दोनों बदलने चाहिए | हम विकारों का पोषण करते जाते हैं और विवेक रखना चाहते हैं |’ 


इसके बाद पण्डित जी लिखते हैं कि ‘काका साहब के इन उद्गारों के बाद नग्नता के संबंध में कुछ कहना शेष नहीं रहता | अतः जैन मूर्तियों की नग्नता को लेकर जैन धर्म के संबंध में जो अनेक प्रकार के अपवाद फैलाए गए हैं वह सब सांप्रदायिक प्रद्वेषजन्य गलतफहमी के ही परिणाम हैं |


 जैन धर्म वीतरागता का उपासक है | जहां विकार है, राग है, कामुक प्रवृत्ति है, वही नग्नता को छिपाने की प्रवृत्ति पाई जाती है | निर्विकार के लिए उसकी आवश्यकता नहीं है | इसी भाव से जैन मूर्तियां नग्न होती हैं | उनके मुख पर सौम्यता और विरागता होती है | उनके दर्शन से विकार भागता है ना कि उत्पन्न होता है |’

कुल मिलाकर नग्नता बुरी नहीं होती ,बुरा होता है उस नग्नता के पीछे छुपा हुआ हमारा भाव । इसे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पतन की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा कि साधना के उद्देश्य से धारण स्वाभाविक नग्नता का हम विरोध करते हैं और अश्लीलता कामुकता से प्रेरित नग्नता के हम पक्षधर होते जा रहे हैं । 


*आचार्य - जैन दर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय

,नई दिल्ली -110016



दिसम्बर हमारी नजर में





काँपोगी जब ठण्ड से, आओगी तुम पास।

तभी दिसम्बर यह मुझे, लगता है प्रिय मास।।


रहे  दिसम्बर  में  सजन,  संगम  सातों  वार।

करना जीवन भर पिया, मम सोलह श्रृंगार।।


इक शेर


किसी अहसास से दामन जो मेरा भीग जाता है 

पवन के वेग से उड़ता दिसम्बर ख़ूब भाता है 


ग़ज़ल


दिसम्बर जा रहा है जनवरी गुलज़ार हो जाए

तमन्ना है सनम इक बार बस दीदार हो जाए


रखूँ कैसे क़दम मैं हमनवा के दिल के गुलशन में

अगर वो सौत के दिल का किराएदार हो जाए


समझती थी जिसे मैं बाग़बाँ माह-ए-मुहब्बत का

उसी के इश्क़ में दिल की कली कचनार हो जाए


बहाना गुनगुनी-सी धूप का करके चली आई

कभी तो सामने मेरे विसाल-ए- यार हो जाए


गुलाबी ठंड में भाने लगा सूरज ही रजनी को

क़मर को रश्क़ फिर कोई नहीं सरकार हो जाए


©रजनी गुप्ता 'पूनम चंद्रिका'

 लखनऊ  (उत्तर प्रदेश)


क्या होता

कभी यूं ही बैठे बैठे मैं सोचती हूँ,

 शब्दों की महिमा मन ही मन गुनती हूँ,

 

 उनींदे शिशु को जब मां थपकी दे सुलाती 

 शब्दों के अभाव में उसे लोरी कैसे सुनाती?

  स्नेह और ममत्व तो दे देती अपने स्पर्श और चुंबन से

   पर लोरी के बिना उन्हें परीलोक कैसे पहुंचाती?

   

 गुरु के आश्रम में शिष्य सीख लेते आचार- व्यवहार

  शब्दों के बिना वे मंत्र कैसे पाते ?

  कैसे गुंजरित होता आश्रम मंत्रोच्चार से! मार्गदर्शक वेदों को हम कैसे पाते?

  

 शब्द न होते तो कैसे बनते भजन- कीर्तन 

 ईश्वर तक अपना निवेदन हम कैसे पहुंचाते?

 

 निकट होने पर प्रेमी नैन -सैन से करते बतियां दूर होने पर प्रेमपत्र तो कतई न लिख पाते!!

 

 क्रोधित होने पर लड़ लेते लात -घूंसे चला गालियों के बिन मन की भड़ास कैसे निकालते!!!

 


 विरह की वेदना तो हो जाती प्रकट आहोंसे

  पर कालिदास मेघदूतम् तो न लिख पाते !

  

शब्द ही न होते तो कैसे बनती भाषा ?

भिन्न भाषा -भाषी फिर कैसे टकराते ??


होती न भाषाएं तो क्या युद्ध भी न होते !

वसुधा के सारे प्राणी क्या एक बड़ा कुटुंब हो पाते ??


क्या होता यदि शब्द ही न होते??

कभी मन ही मन  मैं यूं ही गुनती हूँ,

शब्दों की महिमा के बारे में सोचती हूँ।


सरोजिनी पाण्डेय्

26/4/21

मानवाधिकार दिवस

 आज मानवाधिकार दिवस है। आज का दिन मनुष्यता के आत्मावलोकन हेतु समर्पित है। वर्ष 2025 के मानवाधिकार दिवस की विषयवस्तु है-"हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतें”। 

आज हम यह सोचें कि मनुष्यता दिन प्रतिदिन क्यों छीजती जा रही है और सभ्य होने के तथाकथित दंभ के साथ मानवीय मूल्यों और मानवीय संवेदना की राह क्यों धूल धूसरित हो रही है? सभ्य होने की अंधी दौड़ में हम कंक्रीट के जंगलों में गुम होते जा रहे हैं और अन्य प्राणियों ही नहीं वरन् मनुष्य के लिए भी खतरा बनते जा रहे हैं। कोरोना विषाणु के विश्वव्यापी मानव जनित संकट तिस पर अल्फा, डेल्टा और ओमिक्रॉन जैसे रूप बदलते इस बहुरूपिए, दिन प्रतिदिन आते भूकंप, चक्रवात और भूस्खलन और युद्धों, आतंकवादी घटनाओं आदि ने जता दिया है कि यदि हम मनुष्य एकजुट होकर मनुष्यता के पक्ष में नहीं खड़े हुए तो आने वाला समय हमारे लिए विनाश से भरा हो सकता है। ऐसे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत और बाबा नागार्जुन की कविताएं मनुष्यता के प्रति पुनः आश्वस्ति जगाती हैं तो  हरिवंश राय बच्चन एवं अज्ञेय आदि की कविताएं हमें आसन्न खतरे के प्रति सचेत भी करती हैं ~


मनुष्यता / मैथिलीशरण गुप्त

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸

मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸

वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|

अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|

अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸

अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸

पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸

विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


मानव / सुमित्रानंदन पंत

 

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,

मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,

निर्मित सबकी तिल-सुषमा से

तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!

यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,

मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,

न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,

छाया-प्रकाश के रूप-रंग!

धावित कृश नील शिराओं में

मदिरा से मादक रुधिर-धार,

आँखें हैं दो लावण्य-लोक,

स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!

पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,

दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,

पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,

कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!

यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,

नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!

अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,

आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!

आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,

उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,

विश्वास, असद् सद् का विवेक,

दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!

मानसी भूतियाँ ये अमन्द,

सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--

हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,

संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!

मानव का मानव पर प्रत्यय,

परिचय, मानवता का विकास,

विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,

सब एक, एक सब में प्रकाश!

प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,

उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,

क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में

यदि बने रह सको तुम मानव!


मनुष्य हूँ / नागार्जुन


नहीं कभी क्या मैं थकता हूँ ?

अहोरात्र क्या नील गगन में उड़ सकता हूँ ?

मेरे चित्तकबरे पंखो की भास्वर छाया

क्या न कभी स्तम्भित होती है

हरे धान की स्निग्ध छटा पर ?

-उड़द मूँग की निविड़ जटा पर ?

आखिर मैं तो मनुष्य हूँ—–

उरूरहित सारथि है जिसका

एक मात्र पहिया है जिसमें

सात सात घोड़ो का वह रथ नहीं चाहिए

मुझको नियत दिशा का वह पथ नहीं चाहिए

पृथ्वी ही मेरी माता है

इसे देखकर हरित भारत , मन कैसा प्रमुदित हो जाता है ?

सब है इस पर ,

जीव -जंतु नाना प्रकार के

तृण -तरु लता गुल्म भी बहुविधि

चंद्र सूर्य हैं

ग्रहगण भी हैं

शत -सहस्र संख्या में बिखरे तारे भी हैं

सब है इस पर ,

कालकूट भी यही पड़ा है

अमृतकलश भी यहीं रखा पड़ा है

नीली ग्रीवावाले उस मृत्यंजय का भी बाप यहीं हैं

अमृत -प्राप्ति के हेतु देवगण

नहीं दुबारा

अब ठग सकते

दानव कुल को।


इंसान की भूल / हरिवंशराय बच्चन


भूल गया है क्यों इंसान!

सबकी है मिट्टी की काया,

सब पर नभ की निर्मम छाया,

यहाँ नहीं कोई आया है ले विशेष वरदान।

भूल गया है क्यों इंसान!

धरनी ने मानव उपजाये,

मानव ने ही देश बनाये,

बहु देशों में बसी हुई है एक धरा-संतान।

भूल गया है क्यों इंसान!

देश अलग हैं, देश अलग हों,

वेश अलग हैं, वेश अलग हों,

रंग-रूप निःशेष अलग हों,

मानव का मानव से लेकिन अलग न अंतर-प्राण।

भूल गया है क्यों इंसान!


हिरोशिमा / अज्ञेय

 

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं,

नगर के चौक :

धूप बरसी

पर अंतरिक्ष से नहीं,

फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहिन

सब ओर पड़ीं-वह सूरज

नहीं उगा था वह पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के:

काल-सूर्य के रथ के

पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर

बिखर गए हों

दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!

केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की

दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।

फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:

मानव ही सब भाप हो गए।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्‍थरों पर

उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज

मानव को भाप बनाकर सोख गया।

पत्‍थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।


मिर्ज़ा ग़ालिब 

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,

आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना।


सुदर्शन फाखिर

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं,

जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं।

खारिज इंसानियत से उस को समझो,

इंसाँ का अगर नहीं है हमदर्द इंसान।


मसूद मैकश मुरादाबादी

प्यार की चाँदनी में खिलते हैं,

दश्त-ए-इंसानियत के फूल हैं हम।


निदा फाजली

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा,

वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा।


गुलजार देहलवी

जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों जब्ह होती हो,

जहां तजलील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना।

बशीर बद्र

इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं,

तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं।

अल्ताफ हुसैन हाली

फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना,

मगर इस में लगती है मेहनत ज़ियादा।

जिगर मुरादाबादी

आदमी के पास सब कुछ है मगर,

एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं।

हफीज जौनपुरी

आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो ,

इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़।


हैदर अली आतिश

कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश',

शैख़ हो या कि बरहमन हो पर इंसाँ होवे।

कामिल बहज़ादी

क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह,

कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं।

आजिज़ मातवी

जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़,

मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम।

© प्रो. पुनीत बिसारिया

अधिष्ठाता कला संकाय एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग,

 बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी, उत्तर प्रदेश



न या ना


संसार मौन होकर भी सतत बोलता है और एक हम हैं बोल सकने वाले ऐसे प्राणी जिनके मुँह से एक शब्द निकला नहीं कि सुनने वाला टोका-टाकी किए बिना नहीं रहता है।

कुछ हुआ यूँ कि - मन ने कहा कि क्यों न कुछ देर के लिए ठंड की ठिठुरन धूप सेंक कर उतारी जाए। यही सोचकर खुले आँगन में बिछे खटौले पर जा लेटा। कुनकुनी धूप पाकर शरीर थोड़ा गर्म हुआ कि जुबान गुनगुनाने लगी- "..कहो ना प्यार है।"

तभी, किसी कनखड़े और जुबान से लड़खड़े तोता-रटंत वाचाल भाषा-विद् ने तुरंत टोका, ना नहीं, न बोलो।" यह सुनते ही अब चिहुँकने की बारी मेरी थी। सुना और मैं अनायास चिहुँक पड़ा, "अब्बे! ऐसी की तैसी तेरी। चहकने पर भी तोल- मोल करने की तेरी आदत?" कम से कम जो सुना गया है,उस पर भली प्रकार सोच-विचार तो लिया कर। लिखने वाले ने भी कुछ तो सोच-विचार कर ही गानेवाले से गीत गववाया होगा। सब तेरी तरह से टोका-टाकी करनेवाले लोग नहीं होते हैं। यह सुनकर वह भी चिहुँक पड़ा, "मतलब?" 

"मतलब यही कि अपनी जानकारी बढ़ा। नहीं बढ़ा सकता तो मेरी सुन! तेरा काम आसान कर दूँ।" मेरी यह बात सुनकर वह वाचाल भाषा-विद् उछल पड़ा और बोला, "बोल,वह ऐसा कौन-सा मंत्र? जो हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा कर सके।"

प्रत्युत्तर में हमने अपने ज्ञान के लिफ़ाफ़े का मुँह थोड़ा सा उसकी ओर घुमा दिया और अपना ज्ञान-विज्ञान धीरे-धीरे उसके भेजें में उँड़ेलना शुरू कर दिया...इस शर्त पर कि - "जो कुछ भी कहूँगा मैं, उस बात को चुप्पी साधे सुनना रेऽऽऽ! हो कितनी ही लंबी बात,उसे बस, सुनते जाना रेऽऽऽ।

...तो बात ऐसी है कि- न और ना दोनों अलग-अलग डिक्शनरी के दो अलग शब्द और शब्दांश हैं। इनमें 'न' हिंदी-संस्कृत डिक्शनरी का शब्द है, जिसका मतलब नकारात्मक या निषेधात्मक अर्थ 'नहीं' है। 'ना' फारसी डिक्शनरी का है, जो "आग्रह" के अर्थ में इस्तेमाल होता है। मसलन,

"ऊँची आवाज में ना बोल। कहीं कोई सुन न ले।"

मतलब यही कि- इस वाक्य के पहले हिज्जे में ऊँची आवाज में न बोलने का आग्रह किया जा रहा है और दूसरे हिज्जे में ऊँची आवाज का निषेध किया गया है।


पु०- बागों में बहार है?

म०- है।


पु०- कलियों में निखार है?

म०- है।

पु०- तुमको मुझसे प्यार है?

है ना! (साग्रह)

म०- न..न..न.. बिल्कुल नहीं।

कुल जमा-खर्च बात यह कि न प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में निषेध के रूप में प्रयुक्त होता है और ना प्रत्यक्ष  रूप में आग्रह करते हुए प्रयोग में लाया जाता है।तोता-रटंत वाचाल भाषा-विद् की तबियत गुनगुनी धूप खाकर कुछ-कुछ सुधरने लगी थी। हम मौन धारण किए उसके द्वारा खुद को दोबारा टोके जाने के इंतजार में खटिया पर पड़े शय्या-सुख का आनंद लूटने में निमग्न हो गए।..🙏

✍ अक्षय राज शर्मा


भारतीय संस्कृति में श्री राम और अयोध्यापुरी


          धन्यायोध्या  दशरथ नृप:  सा च  माता  च  धन्या ,

         धन्या वंशो  रघुपति भवो  यत्र: रामावतार:   ।।

        धन्या वाणी  कविवर मुखे  राम नाम    प्रपन्ना,       

    धन्या लोक: प्रतिदिनम्   सौ  रामव्रतम्, श्रुनोति ।।


भारतीय संस्कृति की आधारशिला  श्री राम  हैं । भारत की सभ्यता में श्री राम सदियों से लोगों के दिलों पर राज कर रह है । यहाँ के  प्रजाजन श्री राम से इतने प्रभावित है कि वे श्री राम के संदर्भ में ही   सभी घटनाओं का वर्णन  करते है।  उदाहरण के तौर पर  - केवल राम जानता है: राम-सीता की जोड़ी:  राम-लक्ष्मण की जोड़ी: राम भरोसे: राम के नाम पर  तो  पत्थर भी तैरता है: जो राम का नहीं वह किसीका नहीं.

कई युगों   से निरंतर  चल रही  रामलीला और दशहरा के त्यौहार लोगों की राम के प्रति आस्था, प्रेम और सम्मान दर्शाते है.

अयोध्यापुरी का गुण वैभव:

"पापेन योध्यतेयस्मातत्तेना  योध्यते कथ्यते।"

अर्थात- जहाँ पाप रूपी शत्रु आत्मा में प्रवेशता  नही  वह अयोध्या है.

पुराणों में प्रसिद्ध, अयोध्यापुरी  सात मोक्षदायी पवित्र नगरों में  से एक है। स्कंद-पुराण में पवित्र अयोध्या का संदर्भ शिव और पार्वती के संवाद के  रूप में उपलब्ध  है। अयोध्यापुरी सरयू नदी  के तट पर बसी  है. वशिष्ठ ऋषि अपनी घोर तपस्या द्वारा पवित्र सरयू नदी को मानसरोवर से यहां  लाए इसलिए इसे  वशिष्ठी भी कहा है,  इसके अतिरिक्त   रामगंगा, रामकृता और नेत्रजा  नाम भी सरयू के है । 

भारतीय दर्शन में श्री राम और रामायण:

भारतीय मूल के धर्म और दर्शन यहां की अध्यात्म धारा, साधना,  और योग से जुड़ा हुआ है, चाहे वह वैदिक हो या जैन या बौद्ध, सब में हमें एक ही संदेश मिलता है कि अहिंसा परमो धर्म और  सर्व जीवों का मंगल हो. लोग आज भी श्री राम को एक महान सम्राट के रूप में याद करते हैं, जिनके राज्य को रामराज्य कहा जाता  हैं। 

वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण आदि चरित्रों  की लोकप्रियता सदियों से इस भूमि के जनजीवन में  घुलमिल गई है. हमारे मन में सहज ही  सवाल उठता है कि  भारत का लगभग हर परिवार रामायण की कहानी से परिचित है, फिर रामलीला  और रामकथा  बार-बार क्यों दोहराई जाती है ?

इस दोहराव के पीछे दो-तीन  कारण  है -  

एक  तो  यह कि लोग अपनी पुरानी आध्यात्मिक संस्कृति को पुनः जागृत कर खुशी से रह सके.   

दूसरा  यह  कि आम लोग अपने पिता की बातों को माने.  तीसरा यह  कि शांति और न्याय की स्थापना के लिए  अपने नायक (राम) द्वारा उठाए गए कष्ट और  कदम  देखकर अपने  दुःख सरलता से सह ले।  

अयोध्यापुरी और रामकथा विस्तार से सभी धर्मो में प्राप्त होती है.

 बौद्ध धर्म अनुसार गौतम बुद्ध यहां आये  थे और एक  जातक कथा का नाम दशरथ जातक है. 

जैन धर्म अनुसार प्रथम तीर्थंकर का जन्म यहीं हुआ था।  वे  श्री राम के पूर्वज थे.. जैन धर्म के पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है,.. अयोध्या में पांच तीर्थंकर- ऋषभनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दनस्वामी, सुमतिनाथ और अनंतनाथ तथा  महावीरस्वामी के नौवें गणधर अचल भ्राता भी यहीं पैदा हुए थे।  तब अयोध्या का नाम साकेत था. वाल्मीकि की रामायण की तरह जैन धर्म में भी कई गुरु महाराजों ने राम के  चरित्र विस्तार से लिखा है।  उसमे सबसे पहला नाम आचार्य विमलासुरि का है. 

हम पहले अयोध्या तीर्थ की कथा पुराण अनुसार देखकर फिर जैन  साहित्य में रामायण की बात करेंगे.

सम्राट विक्रम की कहानी बहुत दिलचस्प है- 

एक बार राजा तीर्थों के दर्शन के लिए सरयू के तट पर निर्मली कुंड  आए। सरयू नदी का तट, मंदिरों और कुंडों  की श्रृंखला से सुंदर दिखता है - श्री स्वर्ग द्वार, नागेश्वर तीर्थ, श्री काले रामजी तीर्थ, श्री हनुमान गढ़ी मंदिर, श्री राम जन्मभूमि मंदिर, आदि  । 

उस समय यह स्थान घने जंगल से घिरा हुआ था। वहाँ उन्होंने काले घोड़े पर काले कपड़े पहने एक दिव्य पुरुष को देखा। वह नहाने के लिए सरयू नदी पर आया।  सरयू के "निर्मली कुंड" में  नहाने के बाद वह दिव्य पुरुष और उसका घोड़ा दोनों सफेद हो गए। तब राजा समझ गया कि यह  व्यक्ति  कोई देवता होना चाहिए।  सम्राट विक्रम  ने उस देवता से ‘आप कौन है’ ऐसा पूछने पर अपने घोडे से  उतरकर देव ने उत्तर  दिया कि वे  प्रयागराज है और रोजाना रात में सरयू नदी में लोगों के पाप धोने के लिए प्रयाग से यहाँ आता है।  विक्रम राजाने   उसे प्रभु  राम के मंदिरों के बारे में जानकारी मांगी।  तब  उस दिव्य पुरुष ने बताया कि,  यहां एक समय बहुत मंदिर थे पर अब उनके अस्तित्व के बारे में  उन्हें "काशी विश्वेश्वर" से पूछना चाहिए। इसलिए राजा काशी गए और शिव शंकर से प्रार्थना की। तब विश्वेश्वर शंकर से राजा विक्रम को  प्राचीन मंदिरों के स्थान का पता लगा और उन्होंने  अयोध्या में पांच मंदिरों की स्थापना की- 1. श्री राम जन्मभूमि मंदिर 2. रत्न सिम्हासन मंदिर 3. कनक मंदिर 4. सहस्रधारा तीर्थ मंदिर 5. देवकाली मंदिर . 

श्री कालेरामजी तीर्थ:

प्रभु राम जब बाल्यावस्था में थे तब से ही  लोग आज के जन्मस्थान को  रामलल्ला का  स्थान व मंदिर  कहते आये है. राजा विक्रम ने जन्मभूमि मंदिर का जीर्णोद्धार कराया.. और वहां के विशाल परिसर में 84 स्तंभों वाला   मंदिर बनवा कर  शालिग्राम से बनी श्री राम पंचायतन की मूर्ति स्थापित की। मोगल काल में श्रीराम की मूर्ति को सरयू के तट पर छुपा दिया गया था। बाद में वह मूर्ति पंडित नरसिम्हराव को मिली थी  जो कि नवनिर्मित काले रामजी मंदिर में,  कालेरामजी ट्रस्ट  द्वारा स्थापित की गई । 

यहां की मुख्य मूर्ति राजा विक्रम द्वारा स्थापित  श्री राम पंचायतन (श्री कालेरामजी) की है, जो सरयू के तट से प्राप्त हुई थी ।  

 रामं रामानुजम् सीतां भरतम् भरतानुजम्,

         अग्रे वायुसुतं यत्र प्रणमामि पुन: पुनः ।।

नुवाद: केंद्र में श्री राम  है। उनकी  बाईं  ओर माता सीता और भरत. जब कि लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनकी  दाहिने ओर।  सबसे प्रतिष्ठित  अमर भक्त  हनुमान  उनके पास बैठे हैं। 

शास्त्रों के अनुसार, श्री राम ने अयोध्या पर लगभग 10 हजार वर्षों तक शासन किया और अंत में उन्होंने मारुति को सिंहासन पर बैठाया, क्योंकि वे अमर  थे। मारुति का  स्थान "हनुमान गढ़ी"  बहुत ही शुभ और सजीव है। यहां मारुति का जन्म   त्यौहार के साथ मनाया जाता है। यह तीर्थ राम जन्मभूमि के पास है। इस स्थान के दर्शन से ही सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ कोई भी व्यक्ति  श्रीराम के आशीर्वाद पाने के लिए  उनकी मूर्ति स्थापित कर सकता है।

दूसरा मंदिर "रत्न सिंहासन” का है जहां श्री रामजी का राज्याभिषेक समारोह किया गया था। 

तीसरा स्थान कनक भवन है जहां राम-जानकी की प्रतिमा स्थापित है। कनक भवन की मूर्ति "पुष्य नक्षत्र" के दिन ओरछा राज्य की रानी को मिली थी जिसे उनके द्वारा ओरछा में  राजा राम के रूप में स्थापित किया गया । अन्य सभी मूर्तियाँ अपने अपने स्थानों पर हैं।

चौथा तीर्थस्थल "सहस्त्रधारा" है जहाँ लक्ष्मण की चार हाथ वाली  मूर्ति स्थापित है। 

पाँचवीं मूर्ति  शक्तिपीठ में स्थापित है- एक  शीला पर तराशी हुइ महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती की त्रिमूर्ति  और  एक शक्तिशाली यंत्र स्थापित है।   

जैन साहित्य में श्री राम:

श्री राम, रामायण और अयोध्यापुरी  का स्थान जैन साहित्य में बहुत ही आदरणीय और पवित्र है. रामायण को सबसे पहले भगवान महावीर ने अपने शिष्य गौतमस्वामी को अवगत कराया, जिन्होंने सूत्र रूप में इसकी रचना की जो मौखिक परंपरा में आगे चली। बाद में पहली शताब्दी में इसे  प्राकृत भाषा के महाकाव्य – पउमचरियम के  रूप में आचार्य विमलसूरि ने गठन किया।

 ‘पउमचरियम’ महाकाव्य में राम को पद्म कहा गया है.  पद्म- कमल, आत्मा की परिपूर्णता का प्रतीक है । इस महाकाव्य  का सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण के समान है, सिवाय कि श्री हनुमान  और रावण मानव रूप में हैं ।

 यह ग्रंथ में नगर, पहाड़ों और मौसमों के लंबे वर्णन  है। यहां तक ​​कि विवाह समारोह, समुद्र में खेले जाने वाले खेल, आदि के वर्णन भी हैं।  आपने लिखा कि, राक्षस कोई आदमखोर भक्षक नहीं  बल्कि विद्याधर थे - गुणों और  विद्या से संपन्न वे अत्यधिक सभ्य  थे। लंका में विद्याधर वंश के महान  नायक राक्षस के नाम से  वह वंश   राक्षस वंश कहा जाने लगा। 

राम का जन्म ऋषभदेव की वंशावली में  इक्ष्वाकु राजवंश में हुआ था। ऋषभनाथ के पौत्र में से एक थे आदित्ययशा जिन्होंने सूर्यवंश की शुरुआत की थी। कुछ पीढ़ियों के बाद, राजा अनारन्या ने अपने बहुत छोटे बेटे दशरथ को अयोध्या का राज्य भेंट किया और दीक्षा ली। दशरथ की तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकेई थी . कालान्तर में कौशल्या ने राम को जन्म दिया। अपनी युवावस्था में राम बहुत बहादुर थे ।

 राम ने हनुमान की मदद से रावण के खिलाफ युद्ध जीता और पुष्पक विमान में अयोध्या लौट आए। उनके साथ कई विद्याधर आए और वहाँ कई  अद्भुत तीर्थ और महलों का निर्माण किया।  इसके बाद शत्रुघ्न के आग्रह पर उसे मथुरा नगर के राक्षस राजा मधु को पराजित करने सेना के साथ जाने की अनुमति दी. शत्रुघ्न ने उसे मारकर मथुरा नगर को सुरक्षित किया. इसका वर्णन आचार्यश्री विमलासुरि करते है और साथ में उस समय के बड़े लोग आकाशगामिनी विद्या से मथुरा से साकेत कैसे जाते थे यह भी लिखा है।

जैन रामायण- "पउमचरियम" पहली बार अंग्रेजी में श्री डॉ. हरमन जेकोबी द्वारा  1914 में प्रकाशित किया गया था। "डॉ. हर्मन जेकोबी  कहते है -

सदियों से लोगों के दिल में बसे श्री राम के बारे में बात करना बेहद सम्मानजनक है.

"पउमचरियम" का दूसरा संशोधित संस्करण मुनि पुण्यविजयजी द्वारा 1962 में प्रकाशित हुआ. 

“पउमचरियम" महाकाव्य   के बाद भी श्री राम के जीवन पर  कई आचार्यों द्वारा रामायण  रची गई  जो करीब सत्रह हैं. जिनमें आचार्य हरिभद्रसूरी, हेमचंद्राचार्य, पम्पा, मल्लीसेनाचार्य, मेरुतुंगसूरी, मेघविजय, धनंजय,  आशधर-पंडित, आदि की रचनाए शामिल हैं। इस के उपरांत प्राचीन और मध्यकालीन सीताचरित्र की संख्या तीस हैं. 

महाकाव्य  “पउमचरियम" के अनुसार 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी के काल में राम अयोध्या के राजा थे। 

विविध तीर्थ कल्प में अयोध्या नगरी-कल्प:

 अगर हम "विविध तीर्थ कल्प (राजप्रसाद)" - की बात करें तो इसे पूरी दुनिया विश्वसनीय इतिहास के रूप में स्वीकार करती है। जिनप्रभसूरी ने  इस  कल्प की  रचना वर्ष 1382-85 में की थी। उस समय दिल्ली में महमूद बेगड़ा का शासन था। 

इस पुस्तक में 62 अध्याय हैं। पहला अध्याय "शत्रुंजय-कल्प"  है और 62 वां अध्याय  "पंच परमेष्ठी- नमस्कार-कल्प " है।

यहाँ 13 वाँ अध्याय “अयोध्या नगरी-कल्प” है। यह कल्प अयोध्या के विभिन्न नाम  देकर   शुरू किया है, जैसे-  अउज्झ, अवज्झ, कोसल, विनीता, साकेत,  इक्ष्वाकु भूमि, रामपुरी, आदि। रघुवंश में जन्में   दशरथ, राम, भरत आदि का राज्य यहीं था.  विमलवाहन  आदि सात कुलकरो की यह जन्मस्थली भी रही है। महासती सीता ने पानी से शहर की रक्षा की इसलिए यह भूमि को जलपुरी भी कहा जाता है।   

लेखक जिनप्रभसूरी  कहते है कि  देवि  चक्रेश्वरी  और यक्ष गोमुख इस स्थान की रक्षा करते हैं। यहां स्वर्गद्वार , सीताकुंड  सहस्रधारा है, पार्श्वनाथ, गोपराजी तीर्थ,  नभिराजा मंदिर, आदि है। यहां  किले में मत गजेंद्र नाम का यक्ष रहता है। 

 अयोध्या तीर्थ  में जैन मुनि देवेद्रसूरी  आये. यहां की पवित्र भूमि में ध्यान किया। यहां की शीला की  शक्ति को पहचाना

  और इसके बाद उन्होंने सोपारक नगर से एक  प्रसिद्ध अंधे कलाकार  को बुलाया  ।  वहां उस शीला से उन्होंने चार मूर्तियाँ तैयार करवाकर उन्हें अलग अलग अन्य स्थानों पर स्थापित करवाया। 

इस प्रकार जिनप्रभसूरी ने विविध तीर्थ  कल्प में श्रीराम और  अयोध्या तीर्थ की यह भूमि की  महीमा  और शक्ति को  नमन किया । 

      "पापेन योध्यतेयस्मातत्तेना  योध्यते कथ्यते।" जहाँ पाप रूप  शत्रु  आत्मा में प्रवेशता  नही  वह  अयोध्या है.

गर्व की बात:

 आज हम भारतवासिओं के  लिए गर्व की बात है कि जन जन के आराध्य देव श्री राम को बालक रूप - लल्ला स्वरूप में ही जन्मभूमि स्थान पर ही स्थापित किया गया। अति सुंदर बालरूप देखते ही लगता है कि अभी कौशल्या मैया गुन गुनाएगी – 

 ठुमक चलत रामचंद्र ..

ठुमक चलत रामचंद्र.. बाजत पैजनियाँ ..

जय श्री राम।

Dr. Renuka J. Porwal, Visiting Lecturer, Course Convenor.

M: 9821877327

renukap45@gmail.com


विश्व रंग 2025- अद्भुत, शानदार और महत्वपूर्ण


विश्व रंग विश्व में हिंदी भाषा और साहित्य के बढ़ते महत्व, वर्चस्व और उसके वैश्विक योगदान को स्थापित करने वाला अनूठा और अकेला मंच. पिछले लगभग 35-40 सालों में हिंदी भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति का इतना बड़ा कोई उत्सव हुआ हो, मुझे तो याद नहीं आता. और, इसमें न सिर्फ साहित्य, भाषा, भाषा प्रौद्योगिकी, बल्कि विज्ञान, कला, संगीत, प्रदर्शनकारी कलाएं, तकनीक, पत्रकारिता, चित्रकला, सिनेमा, हिंदी ओलंपियाड और न जाने कितने अन्य विषयों का समावेश हुआ है. 


मित्रों विश्व रंग के सात आयोजन हो चुके हैं और हर बार विश्व रंग अपने आयोजन में नए-नए आयाम जोड़ता जाता है. और इस बार तो विश्व रंग अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के साथ उपस्थित हुआ है. न सिर्फ पारंपरिक मीडिया बल्कि सोशल मीडिया, न्यू मीडिया आदि पर भी विश्व रंग ने नए परचम लहराए हैं. मुझे नहीं लगता कि आने वाले कुछ सालों में इतनी बड़ी लकीर कोई पार कर पाएगा, और अगर कोई पार कर भी गया तो विश्व रंग का ही कोई अगला आयोजन होगा. 


साथियों, इस ज्ञान कुंभ और अभिनव आयोजन का जो स्वप्न आदरणीय श्री संतोष चौबे जी ने देखा था, उसके लिए शब्द कम पड़ जाते हैं, क्योंकि उन्होंने जो स्वप्न देखा उसे साकार भी किया. उनके साथ विश्व रंग के जो कर्म योद्धा जुड़े हैं, उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. इसी के साथ समूचे हिंदी विश्व को विश्व रंग से जोड़कर इस आयोजन को पूरा करने में श्री जवाहर कर्णावट जी का भी अभिनव योगदान है. प्रवासी तथा देशी, विदेशी विद्वानों, छात्र-छात्राओं तथा साहित्यकारों को विश्व रंग के मंच पर उनकी क्षमतानुसार साहित्यिक सत्रों में व्यवस्थापित करना, कर्नावट जी की योग्यता और प्रतिबद्धता को स्थापित करता है. उन्होंने न सिर्फ सबके लिए व्यक्तिगत व्यवस्थाएं भी देखीं और उनके सत्रों का सुचारू रूप से समयबद्ध आयोजन, संचालन भी करवाया. 


विश्व रंग 2025 के आयोजन में विश्व रंग की कर्म योद्धाओं की पूरी टीम इसी तरह अपने-अपने काम को करबद्ध होकर प्रतिबद्ध रूप से संपूर्ण करती दिखाई दी, इसीलिए आज हम प्रसन्न होकर इस आयोजन को एक अभिनव आयोजन के रूप में देख पा रहे हैं. 


अब कुछ बातें इसके आयोजन के संबंध में, जो मुझे महत्व पूर्ण लगती हैं - 

1) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने बड़े आयोजन के लिए जो आर्थिक संसाधन हैं, उन्हें हिंदी भाषा साहित्य और कलाओं के लिए जुटाना बहुत बड़े परिश्रम का कार्य है. 

2) इसके पश्चात इतने बड़े आयोजन करने का  साहस दिखाना और प्रतिबद्ध होकर सोचे हुए को पूर्ण करना बहुत ही कठिन और चुनौती पूर्ण है. 

3) तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व रंग सचमुच में इसीलिए विश्व रंग है क्योंकि इसमें विश्व भर के प्रतिभागी आते हैं और उनकी समस्त व्यवस्थाएं देखना, उनकी छोटी से छोटी सुविधा का ध्यान रखना और एकेडमिक तथा प्रदर्शनकारी सत्र में उनकी प्रतिभा का लाभ लेना, उनका प्रदर्शन इत्यादि भी अत्यंत आवश्यक मुद्दे हैं जिनका पूरा-पूरा ध्यान इसमें रखा गया. इतनी बड़ी व्यवस्थाएं करना भी अत्यंत दुष्कर है. 

4) चौथी बात यह है कि समस्त व्यवस्थाएं एक तरफ और विश्व रंग के आयोजनों को समय के अनुसार गरिमा पूर्ण ढंग से आयोजित करवाना और संपन्न करवाना विश्व रंग की विशेषता है. 

5) विश्व रंग में इस बार हिंदी ओलंपियाड जैसा महत्वपूर्ण अभियान भी शामिल हुआ, जिसके लिए पिछले एक वर्ष से प्रचार प्रसार एवं उसकी व्यवस्था जारी थी. मुंबई, महाराष्ट्र और इंडोनेशिया, बाली आदि जगह पर हम लोगों ने भी हिंदी ओलंपियाड के पोस्टर जारी किए थे. और, सभी हिंदी प्रेमियों ने जिस तरह से हिंदी ओलंपियाड का समर्थन किया, वह अप्रतिम है. एक लाख से अधिक प्रतिभागिता होना भी किसी कार्यक्रम की अभूतपूर्व सफलता है. 


रबीन्द्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय तथा उसके सहयोगी अन्य विश्वविद्यालयों के प्रकाशनों का भी बड़ा महत्व है. ज्ञान विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए निरंतर स्तरीय और श्रेष्ठ पुस्तकों तथा पत्रिकाओं का शुद्ध प्रकाशन और वह भी समय के बंधन में रहते हुए, यह भी बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है जो हो रहा है. 


मित्रों ऐसा भूतपूर्व कार्यक्रम आयोजित करना अत्यंत असंभव सा प्रतीत होता है, परंतु अब जब यह संभव हो चुका है तो हमें इसके पीछे के कर्म योद्धा दिखाई देते हैं. विश्व रंग का प्रत्येक कर्म योद्धा मुस्कुराते हुए अतिथियों और अभ्यागतों का स्वागत करते हुए अपने-अपने कार्य में निरंतर व्यस्त रहा और किसी की कोई आवश्यकता की पूर्ति न हो, ऐसा कभी नहीं हुआ. यह संस्कार विश्व रंग में कार्य करने वाले हर कर्म योद्धा में दिखाई दिया - चाहे वह श्रीलंका का आयोजन हो या मुंबई का अथवा भोपाल का. हर आयोजन में विश्व रंग के कर्म योद्धा शुरू से अंत तक मुस्कुराते हुए हमारे सामने खड़े थे. 


अंत में मैं अपने हृदय तल से विश्व रंग के स्वप्न दृष्टा श्री संतोष चौबे जी और उसे कार्यान्वित करने वाले डॉक्टर जवाहर कर्णावट जी को कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं- अपने लिए भी और विश्व रंग समुदाय से मुझे जोड़ने के लिए भी. इसी के साथ मैं विश्व रंग की पूरी टीम को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूं जिन्होंने पूरी तन्मयता, कृतज्ञता, प्रतिबद्धता और जुझारूपन के साथ इस विशाल आयोजन को सफल बनाया है, जिनमें शामिल हैं- श्री लीलाधर मंडलोई, श्री मुकेश वर्मा, श्री बलराम गुमास्ता, डॉ. विनीता चौबे, डॉ. सिद्धार्थ चतुर्वेदी., डॉ. पल्लवी चतुर्वेदी, डॉ. अदिति चतुर्वेदी, डॉ नितिन वत्स, श्री अरविंद चतुर्वेदी, डॉ विजय सिंह, डॉ पुष्पा असिवाल, प्रो. अमिताभ सक्सेना, डॉ. संगीता जौहरी, डॉ. सीतेश कुमार सिंह, श्री विनय उपाध्याय, सुश्री नीलेश रघुवंशी, श्री कुणाल सिंह, श्री अशोक भौमिक, श्री ज्योति रघुवंशी, श्री मोहन सगोरिया, श्री संजय सिंह राठौड़, श्री विकास अवस्थी, श्री प्रशांत सोनी और विश्व रंग के समस्त कार्यकर्ता, जो इस आयोजन को कर्तव्य मानकर अपने-अपने कार्य में डटे रहे. 


मित्रों, मेरे लिए विश्व रंग से जुड़ना विश्व के हिंदी समुदाय से जुड़ना है और विश्व रंग ने मेरे क्षितिज का विस्तार किया है, जो मेरे जीवन की अभूतपूर्व उपलब्धि भी है. इस तरह के विराट वैश्विक आयोजन के लिए एक बार पुनः आदरणीय डॉ. संतोष चौबे जी, डॉ. जवाहर कर्णावट जी तथा उनकी पूरी कर्म योद्धाओं की टीम को हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएं. 

विश्व रंग जिंदाबाद!! 


- रवीन्द्र कात्यायन, 

अध्यक्ष हिंदी विभाग, राजस्थान मणिबेन नानावटी महिला महाविद्यालय, मुंबई. 

9324389238.


स्व-बन्धु सेवा-पुरानी परम्परा का पुनर्जागरण, नई पीढ़ी का संकल्प

राजस्थान पत्रिका (चेन्नई संस्करण, 2-12-2025) में प्रकाशित समाचार ने मन को गहराई से छू लिया। समाचार था- राजपूत समाज ने एक अभिनव निर्णय लिया है कि शादी-विवाह, मायरा और अन्य शुभ प्रसंगों पर होने वाले लेन-देन में, दोनों पक्ष मिलकर कुल राशि का आधा-आधा प्रतिशत अपने जरूरतमन्द भाइयों की सहायता हेतु स्थापित “स्व-बन्धु सेवा कोष” में देंगे। यह कोष समाज के उन सदस्यों के लिए समर्पित रहेगा जो शिक्षा, सेवा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में किसी भी प्रकार की तंगी से जूझ रहे हैं। यह समाचार पढ़कर मन में अनायास भाव आया-“यह है सच्ची समाज सेवा का अनुपम उदाहरण! अपने ही बन्धुओं के प्रति उत्तरदायित्व का जीवंत स्वरूप!”

कभी हमारे जैन समाज में भी शादी-विवाह, मायरा और विविध शुभ अवसरों पर धर्मादे की राशि दोनों पक्ष मिलकर दिया करते थे। दोनों पक्ष साथ बैठकर चर्चा करते, राशि निर्धारित करते और तत्पश्चात उसे संस्थाओं तक पहुँचाते। यह प्रथा सिर्फ एक परम्परा नहीं थी, बल्कि आपस में जुड़े रहने की भावना, साझा जिम्मेदारी और स्वबंधु सेवा का प्रतीक थी।

पर जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी, जीवन में व्यस्तता आई, इस श्रेष्ठ परम्परा के प्रति उदासीनता भी धीरे-धीरे घर करती गई। आज स्थिति यह है कि यह प्रथा सुनने को लगभग नहीं मिलती-जैसे किसी पुरानी किताब का एक प्रिय पृष्ठ समय की धूल में कहीं दब गया हो।अब समय है-पुरानी विरासत को नई चेतना से जोड़ने का ।

राजपूत समाज की यह प्रेरक पहल हम सबके लिए एक संदेश है-“समाज तभी मजबूत बनता है जब हर व्यक्ति, हर परिवार, हर अवसर, किसी न किसी रूप में स्व-बन्धु सेवा से जुड़ता है।”

जैन समाज के लिए भी यह अत्यंत उपयुक्त समय है कि हम अपनी खोई हुई परम्परा को पुनः जीवित करें।

मेरा चेन्नई के जैन समाज, समाज के अग्रगण्य श्रावकगण एवं पूज्य साधु-साध्वी वृंद से विनम्र निवेदन है कि- एक ‘स्व-बन्धु सेवा कोष’ नाम की नई संस्था बनाई जाए,जिसमें दोनों परिवार किसी भी शुभ प्रसंग के खर्च का मात्र आधा प्रतिशत समर्पित करें।

यह योगदान कोई बोझ नहीं होगा, 

बल्कि किसी भूखे स्वबंधु के लिए भोजन बनकर,किसी विद्यार्थी के लिए शिक्षा का आधार बनकर,किसी असहाय व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य-सहायता बनकर, और किसी जरूरतमन्द भाई के लिए सम्मान की ढाल बनकर उभरेगा।

किसी को भी समाज से बाहर सहायता मांगने की नौबत न आए-यही इस कोष का धर्म, यही इसका मूल्य, यही इसकी आत्मा है।

यदि हम सभी इस पहल को स्वीकार करें, उसे आगे बढ़ाएँ, तो "स्व-बन्धु सेवा” सिर्फ परम्परा नहीं रहेगी, बल्कि एक सतत चलने वाला योग बन जाएगी।

आज फिर वही समय आ गया है कि हम मिलकर कहें-“हम अपने स्व-बन्धुओं के रक्षक हैं। हम किसी को अभाव में नहीं रहने देंगे। हम अपने समाज की प्राचीन परम्परा को नए संकल्प के साथ पुनर्जीवित करेंगे।”

सुगालचन्द जैन, चेन्नई


 

क्या लिखूं

 क्या लिखूं 

कैसे लिखूं 

क्यों लिखूं 

क्यों कर लिखूं

सूर्य की अद्भुत किरण पर ,

शब्दों का साभार दूं। 

ज्ञान का अदभुत्व सागर, 

कूट-कूट कर मोती भरे, 

मेरी वह औकात क्या ,,

जो सूर्य सम दीपक धरे। 

एक अनुपम सी प्रभा

रोप्य धवल सी  दमकती थी आभा,,,,,,,,,,,,,,,।।।। 

जिस रूप के दीदार को, ,,,

तरसती थी लाखों की सभा,, 

सब कुछ दिया सबको दिया

देते रहे तुम उम्र भर तुष् मात्र 

न तुमने लिया,,,,, 

सम्यक दिया दर्शन दिया और ज्ञान का अद्भुत दिया, ,,,, 

अब न जग में आएगा...... 

 विद्यासागर सा अद्भुत दिया

निज को न किंचित चाह थी

संसार के धन माल की,,

 हर जीव जग में हो सुखी

 बस यही एक परवाह थी,,,

   नेमीचंद विद्यार्थी


कार ड्राइविंग मे ब्रेक

 मैं ने कार ड्राइविंग के ऊपर कई लेख लिखें हैं जो हमारे जीवन और ड्राइविंग को समान दिखाते हैं।जब भी मैं कार की सीट पर ड्राइव करने के लिये बैठती तो ब्रेक को देखते ही मन में विचार आता कि ब्रेक क्यों है?

रोकने के लिए,

गति को कम करने के लिए,

टकराव से बचने के लिए,

अचानक  सामने किसी के आ जाने पर या भीड़- भाड़ में से गाड़ी निकालने को आदि।पर मेरे मन में ये विचार भी आता कि ब्रेक

हमें तेजी से ड्राइव करने के लिए सक्षम करने के लिए है।

एक पल के लिए मान लें कि हमारी कार में कोई ब्रेक नहीं है तो हम कितनी तेजी से अपनी कार चलाएंगे?

यह केवल ब्रेक के कारण है कि हम तेजी लाने की हिम्मत कर सकते हैं, तेजी से जाने की हिम्मत कर सकते हैं और उन गंतव्यों तक पहुंच सकते हैं जिनकी हम इच्छा करते हैं।

जीवन में विभिन्न बिंदुओं पर,हम अपने माता-पिता, शिक्षकों, हमारे  मालिक और दोस्तों से हमारी प्रगति, दिशा या निर्णय पर सवाल उठाते हैं। हम उन्हें अड़चन मानते हैं या इस तरह की पूछताछ को हमारे चल रहे काम के लिए "ब्रेक" मानते हैं।लेकिन याद रखें, यह ऐसे ही सवालों (समय-समय पर ब्रेक) के कारण है कि आप आज जहां हैं, वहां पहुंचने में कामयाब रहे हैं। ब्रेक के बिना, आप स्किड हो सकते हैं, दिशा खो सकते हैं या एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना के शिकार हो सकते हैं।आपके बड़े ,हितैषी जो आपको ग़लत दिशा में बढ़ते देख टोकना शुरू(ब्रेक लगाना)कर देते हैं जिससे आप अपनी गलती सुधार सही राह पर बढ़ सकते हैं।यदि जीवन में ये ब्रेक ना हो तो गाड़ी स्पीड में तो जा सकती है पर आगे जाकर टकरा जाएंगी, कोई बड़ी दुर्घटना हो सकती है।

मैं अपने सभी अनमोल ब्रेक्स के लिए गहराई से और ईमानदारी से आभारी हूं।

आइये अपने जीवन में "ब्रेक" की सराहना करें। उनके बिना हम वह नहीं होते जहाँ हम आज हैं।

रजनी मिश्रा


भारतीय नौ सेना दिवस शं नो वरुणः

 शं नो वरुणः ध्येय वाक्य हमारी नौ सेना का है जो 413 वर्ष पुरानी गौरव शाली सेना है, इसकी स्थापना 1612 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने जहाजों की सुरक्षा के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी मैरिन के रूप में सेना गठित की थी, जिसे बाद में रॉयल इंडियन नौसेना नाम दिया गया। आज 4 दिसम्बर को नौ सेना दिवस मनाया जाता है क्योंकि आज के दिन 1971 की पाक लड़ाई मे हमारी सेना ने पाकिस्तान की दुरदंत पनडुब्बी खैबर को विशाखा पट्टनम के तट पर डुबो दिया था यह पनडुब्बी पाकिस्तान का गौरव थी और अजेय मानी जाती थी। इस विजय के उपलक्ष मे 4 दिसम्बर को नौ सेना दिवस मनाया जाता है |

उपरोक्त ध्येय वाक्य नौ सेना के पराक्रम को अक्षुण रखने हेतु जल के देवता वरुण से प्रार्थना है कि “ हे वरुण देव आप हमारे लिए कल्याण कारी हों “

यह ध्येय वाक्य तैत्तिरीय उपनिषद् के शिक्षावली के प्रथम अनुवाक की शांति प्रार्थना से लिया गया है |

पूर्ण श्लोक इस प्रकार है:

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् ।

ॐ शान्तिः । शान्तिः । शान्तिः ।

इसका शाब्दिक अर्थ मेरी पुस्तक “वेद से वेदान्त तक” से लिया हूँ :

अर्थ – देवता ‘मित्र’ हमारे लिए कल्याणकारी हों, वरुण कल्याणकारी हों। ‘अर्यमा’हमारा कल्याण करें। हमारे लिए इन्द्र एवं बृहस्पति कल्याणप्रद हों। ‘उरुक्रम’ (विशाल डगों वाले) विष्णु हमारे प्रति कल्याणप्रद हों। ब्रह्म को नमन है। वायुदेव तुम्हें नमस्कार है। तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा। ऋत बोलूंगा। सत्य बोलूंगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें। वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें। रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की। त्रिविध ताप की शांति हो ।

मैंने 11 प्रमुख उपनिषदों मे से 9 का पद्यतमक भावानुवाद किया है उस के अनुसार यह अर्थ मैंने लिखा है:

हे अधिष्ठाता।

मेरे हितकर हों सब देव आप,

इंद्र , मित्र, वरुण, वृहस्पति, अर्यमा।

प्रत्यक्ष ब्रह्म विराजते

वायु देव आपमें, नमन करूँ आपको,

प्रभो, ग्रहण, भाषण, आचरण, सदा सत्य ही रहे,

ऋतू के देव ऋतू रूप में हमें रक्षा करें।

शांति दें, शांति दें, शांति दें, प्रभो।।

मैं इस प्रार्थना में प्रयुक्त कई संबोधनों/शब्दों के अर्थ समझ नहीं पाया हूं । जैसा पहले कहा गया है, प्रकृति के विविध घटकों और प्राणियों की जैविक प्रक्रियाओं के साथ देवताओं को अधिष्ठाता के तौर पर जोड़ा गया है । ‘मित्र प्राणवायु एवं दिन का अधिष्ठाता देवता है, जब कि वरुण रात्रि एवं अपानवायु का अधिष्ठाता है। सामान्यतः मित्र के अर्थ सूर्य से लिया जाता है और वरुण को समुद्र तथा जल से जोड़ा जाता है। अर्यमा सूर्यमंडल का देवता है। शब्दकोष में सूर्य को अर्यमा भी कहा गया है। इंद्र वर्षा एवं बृहस्पति बुद्धि के देवता माने गये हैं।

वैदिक मंत्रों मे देव का अर्थ प्रकृति मे व्याप्त हमारे हितकारी आयाम ही हैं जैसे अग्नि, वायु, जल, इत्यादि अतः वेदों मे उनकी ही पूजा की है और उनके गुणों को विभिन्न सँग से उद्बोधित भी किया है जिसे कालांतर मे और विस्तार देने के लिए पौराणिक देवता का नाम दे दिया गया। जैसे विष्णु को पैरों का देवता, माने गति का देवता, माना गया है। उरुक्रम का शाब्दिक अर्थ है विशाल डगों वाला। कदाचित् इसी सम्बोधन से पुराणों की कथा वामन अवतार की यहीं से जन्मी हो।

ऋत सत्य का ही पर्याय है । यहां पर ऋत वचन उचित एवं निष्ठापरक कथन को व्यक्त करता है । वस्तुनिष्ठ स्तर पर कोई चीज जैसी हो वैसी कहना सत्य कहा गया है ।

इस शान्तिपाठ में शिष्य ब्रह्म से अपनी एवं अपने आचार्य यानी उपदेष्टा वक्ता की रक्षा की प्रार्थना करता है।

तीन बार ‘शान्तिः’ का उच्चारण त्रिविध तापों का कष्टों के शमन हेतु किया जाता है , ये ताप हैं: आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आध्यात्मिक।

नौ सेना दिवस का मेरा एक बहुत ही रोमांचक संस्मरण भी है जिसे मैंने अपनी आत्मकथा "संप्रेदन" में लिखा है उसके अंश दे रहा हूँ।

सम्प्रेदन:

जीवनी के कुछ अंश : छलांग लगाते हुए पहुंचता हूँ, ३/४ दिसम्बर १९७७ को |

उस समय मैं उषा मार्टिन में मेनेजर एकाउंट्स था, कंपनी के कार्य से मुंबई भेजा गया था, वहां एकाउंटिंग सिस्टम ठीक करने के लिए | मेरी छोटी बहन चंद्रलेखा मुंबई रहती थी बहनोई ऍफ़.सी.जैन उस समय इंडियन नेवी में लेफ्टिनेंट थे और उनकी पोस्टिंग आय.एन.एस. विक्रांत पर थी, उस समय करीब एक महीने मैं नेवी नगर में उनके पास रहा था, नेवी की कॉलोनी, मुंबई के अंतिम छोर पर कोलाबा में स्थित है, बिलकुल समुद्र के किनारे | उस समय मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री थे, नौसेना दिवस ४ दिसम्बर को मनाया जा रहा था, पुरे कार्यक्रम को देखने प्रधान मंत्री आने वाले थे | यूँ तो नवल डे के कार्यक्रम में केवल पदाधिकारियों के निजी घर वाले ही शामिल हो सकते थे विक्रांत फ्लैग शिप थी, अतः मुझे ले जाने के लिए विशेष अनुमति ली गयी थी | ३ तारीख को सुबह ७ बजे हम निकले एक स्पीड बोट से लायन गेट से हमें बीच समुद्र में खड़े विक्रांत पर गए, नवल सैनिकों ने सहायता दे कर हमें जहाज पर चढ़ाया, टॉप डेक से देखने की व्यवस्था थी | विक्रांत चल कर ७०-८० किलोमीटर तक समुद्र में चला गया, उसके चारों तरफ भारतीय नौ सेना के सब जहाज गोल घेर कर चल रहे थे, सबकी गति एकदम बराबर थी, देखने से ऐसा लगता था कि पूरा बेडा खडा हो, एकदम स्थिर, दूर दूर तक केवल जल ही जल, न कोई पंछी न कोई जीव-जंतु, मात्र भारतीय नौ सेना के जहाज ही जहाज पचासों जहाज बीच में विक्रांत शहंशाह सा, चलते बेड़े में अजब गज़ब करतब दिखाए जा रहे थे, एक जहाज से दुसरे जहाज में कैसे आदमी को भेजा जाता है, युद्धपोतों से कैसे मिसाइल छोड़ी जाती है, जो जहाज गोला बारी छोड़ने के लिए थे वे गोला बारी करके दिखा रहे थे, चूँकि हम विक्रांत में थे वह बीच में था और सबसे ऊंचा भी उसपर मैं तो टॉप डेक पर भी ऊपर जहां झंडा लगा था वहाँ चढ़ कर बैठ गया था | सारी कार्यवाही स्पष्ट दिख रही थी, अंत में विक्रांत के करतब दिखाने की बारी आई, विक्रांत एक मात्र शिप था जहां से वायुयान उड़ा कर बोम्बिंग की जा सकती थी, जहाज से वायुयान कैसे उड़ाते हैं बहुत दिलचस्प था, जहाज पर बहुत बड़ा रनवे बना था, पर इतना भी नहीं की जहाज दौड़ कर स्पीड ले, अतः एक मजबूत स्टील की रस्सी जहाज के इस कोने से उस कोने में बंधी रहती है उस में एक हुक होता है, जिस पर वायुयान फंसा रहता है और वे वायुयान को गति देना प्रारंभ करते हैं जैसे ही वांछित गति प्राप्त हो जाती है वह हुक अपने आप टूट जाता है और वायुयान बन्दुक से छूटी गोली तरह निकल उड़ान भर लेता है, बोम्बिंग करके वैसे ही आता है और एक मजबूत स्टील की स्प्रिंग में यान का हुक फंस जाता है और वह स्प्रिंग की रस्सी यान की गति समाप्त कर देती है |

नेवल प्रदर्शन में जो मुख्य बात मैंने देखी वह थी अनुशासन की, बायलर पर जो व्यक्ति खड़ा था वह बिना हिले लगातार ४ घंटे खड़ा था, उस गर्मी में मानो, लोहे की मूर्ती खड़ी हो |

उस दिन कई तरीके के करतब दिखाए गए हर बात का हर करतब का अपना ही अलग अंदाज़ था, भारत की नौ सेना के हर करतब देख कर सीना चौड़ा हो जाता था, और ध्यान दे मैं यह बात लिख रहा हूँ आज से 46 वर्ष पूर्व की, इन करतबों में एक करतब था, की दो युद्धपोत समानंतर चलते हैं एकदम सटीक एक ही गति से और विक्रांत से उस युद्धपोत पर तीर से एक रस्सी फेंकी जाती है जिसे दुसरे युद्धपोत पर बाँध दिया जाता है और उस रस्सी के सहारे एक पोत से दुसरे पोत में सामग्री और सैनिक ट्रान्सफर किये जाते हैं रस्सी पर लटके हुक के सहारे, इसे देख कर ८१ वर्षीय प्रधान मंत्री मोरारजी भी अड़ गए की मैं भी उस पार जाऊँगा वह भी रस्सी पर लटक कर, अधिकारीयों ने बहुत समझाया पर वे न माने, तत्काल सुरक्षा हेतु निचे जाल फैलाया गया और हुक पर एक कुर्सी बाँधी गयी और उन्हें उस पर बैठा कर उस पार ले जाया गया, राम राम कर सकुशल यह पूर्ण हुआ तो सभी अधिकारीयों ने चैन की सांस ली, यह खबर उन दिनों सभी समाचारपत्रों में फ्रंट पेज पर मुख्य समाचार के रूप में छपी थी. 

ये कुछ हिस्से हैं उन लम्हों के जो जीवन में शायद कभी कभार ही आते हैं और जो आते हैं मानस पटल पर अमिट अंकित हो जाते हैं. विक्रांत में ७ या ९ डेक थे ( मुझे अच्छी तरह याद नहीं ) ४ पानी के नीचे बाकि ऊपर, सेलर और सैनिक नीचे के डेक में और ऑफिसर ऊपर के डेक में, ५ वे डेक में आलिशान क्लब भोजनालय थिएटर इत्यादि सब सुविधायें थी | जब विक्रांत समुद्र में रहता था तब महीनों लोग तट पर नहीं आते उनकी जिंदगी वही समुद्र रहता है | आकार में यह समुद्र में चलता एक पूरा क़स्बा ही दीखता है, इस कोने से दुसरे कोने तक करीब ३०० मीटर का  है, हवाई पट्टी के ठीक नीचे बड़े बड़े तहकाने बने हैं जहां हवाई जहाज रहते हैं और जब उड़ान भरनी हो तो ऊपर से ढक्कन खुलता है और लिफ्ट के जरिये जहाज उपरी सतह पर आते हैं | दोपहर को हम सब मेहमानों को लज़ीज़ भोजन खाने को दिया गया, हमने पूरा विक्रांत लोवेस्ट डेक से लेकर उपर डेक तक देखा, युवा था, लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ने में कोई समस्या नहीं थी आज अगर कोई कहे तो  एक तल भी न चल सकूँ | कैसे राडार के संकेत से ऊपर उड़ते या देश में घुसने वाले शत्रुदेश के विमानों को स्वचालित बंदूकें मिसाइल दाग कर गिरा देती है | कैसे जल से जमीं पर वार किया जाता है, कैसे सैनिक मोर्चा बना धावा बोलते हैं | सब प्रक्रिया दिखाई गयी |

सब देख कर रोमांचित था और बस इतना ही कह सके "जय भारत"।।।

सुरेश चौधरी 

प्रवासी पंछी


     दूर-दूर देशों से उड़ कर पंछी जब-जब आते हैं,

     प्रेम संदेशा साथ लिये हमें राह नई दिखलाते है।


     मीलों-मीलों दूर उड़ें पर मंजिल अपनी‌ ये पाते हैं,

     हम राह कभी न भटकेंगे शिक्षा यह देके जाते हैं।


     अपना आँगन अपनी बोली भूल कभी न पाते हैं।

     पर देखो कैसे घुल मिलके ये गीत सुरीले गाते हैं।


     है प्रिय अनन्त आकाश उन्हें गंगा तीर सुहाते हैं।

     जो प्रवास हरनगरी करके अपने घर को जाते हैं।

         -अरुण कुमार पाठक


कुण्डलियाँ


गरम कोट कहने लगें, ठंडी बड़ी प्रचंड ।

बोली फटी कमीज है, दो मुट्ठी भर ठंड ।

दो मुट्ठी भर ठंड, देखिए काँख दबाए ।

लकड़ी लाए बीन, द्वारे अलाव जलाए।

सोते डाल पुआल, ठंडी भी है बेशरम ।

उनसे रहती दूर, रहते जो कमरे गरम ॥


डॉ. पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग 

जगद्गुरु रामभद्राचार्य दिव्यांग राज्य विश्वविद्यालय, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)


हिंदी ओलंपिक की अभूतपूर्व शुरुआत

 On FB*और अब "हिंदी ओलंपिक!! जी !!!ओलंपिक के नाम पर हम दशकों से गणित विज्ञान और सबसे ऊपर इंग्लिश ओलंपिक की गूंज सुनते आए हैं .लेकिन भोपाल के रविंद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय के मार्गदर्शन में इस वर्ष हिंदी ओलंपिक की अभूतपूर्व शुरुआत हुई है. दुनिया भर के लगभग 2 लाख बच्चों ने इसमें भाग लिया और अब यह हर वर्ष होगी. तो देश के दूर दराज गांव में रहने वाले हिंदी भाषा माध्यम  के बच्चे नौजवान तैयार हो जाओ ! आपकी प्रतिभा के लिए अब रास्ते खुल गए हैं!इस बार भी मुजफ्फरपुर से लेकर देश के कोने-कोने के बच्चों ने पुरस्कार पाए.नगद 21000! पहली क्लास से लेकर आगे तक !और विदेशी विजेताओं को 300 डॉलर !ये सभी बच्चे भोपाल में उपस्थित थे विश्व रंग के 27 से 30 नवंबर तक आयोजित भव्य कार्यक्रम में। इन्हें देश के पूर्व शिक्षा मंत्री और मॉरीशस के पूर्व राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार दिए गए ।

*हिंदी के प्रयोग और सीखने की ऐसी अभिनव शुरुआत का श्रेय जाता है टैगोर ,सीवी रमन विश्व विद्यालय जैसे पांच विश्वविद्यालय के मुखिया कथाकार संतोष चौबे और उनके भाषा अभियान के कप्तान डॉक्टर जवाहर कर्णावत को । सिद्धार्थ चतुर्वेदी ,अदिति चतुर्वेदी के संबोधन से भी स्पष्ट था कि अपनी भाषा हिंदी उनके भी खून में बहती है। पूरी टीम को बहुत-बहुत बधाई! इस अभिनव शुरुआत के लिए!! 

*हिंदी सीखने और उसे सहज उपलब्ध कराने के लिए टैगोर विश्वविद्यालय ने "हिंदी का अंतरराष्ट्रीय पाठ्यक्रम "भी बनाया है.  पहली क्लास से लेकर स्नातक स्नातकोत्तर तक! उनका प्रेरणा वाक्य है "जब अंग्रेजी और दूसरी भाषाओ में अंग्रेजी सीखने के लिए ग्लोबल पाठ्यक्रम हो सकते हैं तो हिंदी में क्यों नहीं ?और केवल हिंदी ही नहीं वे चाहते हैं की सारी भारतीय भाषाओं में ऐसे पाठ्यक्रम बने उनके सभी विश्वविद्यालय जो भोपाल खंडवा बिलासपुर और छत्तीसगढ़ में है वे सब अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के लिए भी उतने ही प्रतिबद्ध हैं ।जब देश के सबसे महंगे निजी स्कूल/ विश्वविद्यालय अंग्रेजी के नाम पर लूट रहे हो तब टैगोर के सपनों के अनुरूप कला संगीत खेल कंप्यूटर और इंजीनियरिंग और विज्ञान में अधुनातन  ज्ञान को समाहित करते हुए कथाकार संतोष चौबे अलख जगा रहे हैं। ***चलते-चलते कुछ और बातें! मेरी स्नातक तक पढ़ाई विज्ञान की है और उसमें भी मुझे  थोड़ा बहुत वही याद रहा है जो मैंने अपनी मातृभाषा हिंदी में सीखा .चाहे मेरे आदर्श वैज्ञानिक डार्विन हो या जोसेफ मेंडल (father of genetics) आइंस्टीन नील्स बोहर से लेकर zeener (small pox).. अलेक्जेंडर फ्लेमिंग...मैंने महसूस किया है कि अंग्रेजी के बीच आईसेक्ट ने ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों में हिंदी में अछी पुस्तक उपलब्ध कराई है ।सबसे बड़ी सफलता तो 30 वर्ष पहले मिली जब संतोष चौबे  की किताब कंप्यूटर हिंदी में आई जो लाखों बिक चुकी है. और सचमुच ऐसी किताबें के लाखों लाख पाठक है. हिंदी में लोकप्रिय विज्ञान भारतीय वैज्ञानिको  के ऊपर भी एक से एक अच्छी विक्रम साराभाई, मेघनाथ साहा, सीवी रमन,.... पर निकाली है. "विश्व रंग के प्रांगण में लगी पुस्तक मेले में एक अनूठी योजना पर भी नजर गई ।100 किताबें हरेक सिर्फ ₹10 की । बिजली ,रेडियो की कहानी है,पोलियो , हैजा .. मशहूर वैज्ञानिकों की जीवनिया, प्रेमचंद की पूस की रात ,...हरिशंकर परसाई जय शंकर प्रसाद की मशहूर ...अगर हमें हिंदी को बचाना है तो हमें बच्चों के बस्ते में इन किताबों को भरना होगा। मैं वर्षों से ऐसी ही किताबों की तलाश में रहा हूं और वह कुछ-कुछ भारत ज्ञान विज्ञान से लेकर एकलव्य भोपाल, ने भी  उपलब्ध कराई और अब आईसेक्ट पूरी ताकत से जूटा है ऐसी किताबें को सामने लाने में ।यही रास्ता है जब हम अपनी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के मुकाबले खड़ा कर सकते हैं। और साथ ही साथ वैज्ञानिक चेतना को आगे बढ़ाने में! धर्म और जाति के जहर को भी ऐसी ही किताबें का इंजेक्शन काम करेगा ,हवाई बातें नहीं! दिल्ली में बैठे कुछ लेखकों की तरह रोने से भी काम नहीं चलेगा कि "हिंदी का कोई भविष्य नहीं है "देश के गांव और दूसरे हिस्सों में जाएंगे तो अंग्रेजी की किताबों को ये गरीब बच्चे सूंघकर वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे कुत्ता शहद की हंडिया से दूर। संतोष चौबे भी जाने-माने कथाकार और लेखक हैं लेकिन उन्हें यह एहसास भी है कि यदि  नई पीढ़ी ने हिंदी नहीं पढ़ी तो इस लिखने का कोई अर्थ नहीं है । रवींद्रनाथ टैगोर ने यही काम किया और यही काम कन्नड़भाषी karanth ने .बच्चों के लिए भी किताबें लिखी इन सब ने और बड़ों के लिए भी और भाषा को बढ़ाने के लिए व्याकरण भी तैयार की. और मत भूलिए रामचंद्र शुक्ल ने भी ऐसे ही कामों में अपनी आहुति दी है।दिल्ली जैसे महानगरों में बैठे और हिंदी की खाने वाले लेखकों के लिए भी कुछ सीखने की जरूरत है कि सिर्फ पुरस्कार पाना और प्रोफेसर बन जाना ही या किसी अकादमी में जोड़-तोड़ करके कुछ सुविधा जुटा लेना ही लेखन का उद्देश्य नहीं होता ।हिंदी अगली पीढ़ी  बचपन से पड़ेगी ,तभी तुम्हारे पोथनों "तक जाएगी.. वरना जंगल  पेड़ खत्म करने का कुछ शाप आपको भी मिलेगा...  

*शिक्षा साहित्य कला विज्ञान रंग मंच संगीत फिल्म इन सभी क्षेत्रों में अनूठी पहल के लिए टैगोर विश्वविद्यालय और उनसे जुड़ी सभी संस्थाओं को अनंत शुभकामनाएं! 🌹🌹

*प्रेमपाल शर्मा /दिल्ली 


विश्व रंग महोत्सव में प्रतिध्वनि का लोकार्पण


 विश्व रंग 2025 महोत्सव भोपाल,में सत्तर देशों के प्रतिनिधि साहित्यकार, गणमान्य अतिथियों के मध्य  महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा प्रदत्त अनुदान राशि से प्रकाशित डा ममता जैन  के काव्य संग्रह" प्रतिध्वनि"का भव्य लोकार्पण   डॉ रवि प्रकाश दुबे(कुलाधिपति  रविंद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय),डॉ ख़ेम सिंह डेहरिया, डा जवाहर कर्णावत,(संयोजक) श्रीअनिल जोशी,( अध्यक्ष वैश्विक हिंदी परिवार ) विनीता जी ( अमेरिका) के कर कमलो द्वारा  संपन्न हुआ।

इस संग्रह की कविताएं आज के समाज में फैले तनाव, कुंठा, संघर्ष और एकाकीपन को जितनी गहराई से छूती हैं, उतनी ही प्रभावी ढंग से उनके समाधान की दिशा भी सुझाती हैं। लोकार्पण के पश्चात  डॉ ममता जैन द्वारा काव्यापाठ भी किया गया।हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के संरक्षण-विकास और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर प्रचार प्रसार के लिए समर्पित यह निजी विश्वविद्यालय का उपक्रम वास्तव में एक उदाहरण है।इस भव्य आयोजन में माननीय श्री मंगुभाई पटेल, महामहिम राज्यपाल, मध्य प्रदेश शासन ,माननीय श्री पृथ्वीराज सिंह जी रुपन, पूर्व राष्ट्रपति, मॉरीशस गणराज्य, माननीय श्री डॉ मोहन यादव  जी मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश , श्री संतोष चौबे, कुलाधिपति, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय एवं सौरभ द्विवेदी(द लल्लन टॉप)अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा, दिव्या दत्ता, देवदत्त पटनायक आदि सम्माननीय हस्तिया  उपस्थिति रही।


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