संसार मौन होकर भी सतत बोलता है और एक हम हैं बोल सकने वाले ऐसे प्राणी जिनके मुँह से एक शब्द निकला नहीं कि सुनने वाला टोका-टाकी किए बिना नहीं रहता है।
कुछ हुआ यूँ कि - मन ने कहा कि क्यों न कुछ देर के लिए ठंड की ठिठुरन धूप सेंक कर उतारी जाए। यही सोचकर खुले आँगन में बिछे खटौले पर जा लेटा। कुनकुनी धूप पाकर शरीर थोड़ा गर्म हुआ कि जुबान गुनगुनाने लगी- "..कहो ना प्यार है।"
तभी, किसी कनखड़े और जुबान से लड़खड़े तोता-रटंत वाचाल भाषा-विद् ने तुरंत टोका, ना नहीं, न बोलो।" यह सुनते ही अब चिहुँकने की बारी मेरी थी। सुना और मैं अनायास चिहुँक पड़ा, "अब्बे! ऐसी की तैसी तेरी। चहकने पर भी तोल- मोल करने की तेरी आदत?" कम से कम जो सुना गया है,उस पर भली प्रकार सोच-विचार तो लिया कर। लिखने वाले ने भी कुछ तो सोच-विचार कर ही गानेवाले से गीत गववाया होगा। सब तेरी तरह से टोका-टाकी करनेवाले लोग नहीं होते हैं। यह सुनकर वह भी चिहुँक पड़ा, "मतलब?"
"मतलब यही कि अपनी जानकारी बढ़ा। नहीं बढ़ा सकता तो मेरी सुन! तेरा काम आसान कर दूँ।" मेरी यह बात सुनकर वह वाचाल भाषा-विद् उछल पड़ा और बोला, "बोल,वह ऐसा कौन-सा मंत्र? जो हमारे ज्ञान में इज़ाफ़ा कर सके।"
प्रत्युत्तर में हमने अपने ज्ञान के लिफ़ाफ़े का मुँह थोड़ा सा उसकी ओर घुमा दिया और अपना ज्ञान-विज्ञान धीरे-धीरे उसके भेजें में उँड़ेलना शुरू कर दिया...इस शर्त पर कि - "जो कुछ भी कहूँगा मैं, उस बात को चुप्पी साधे सुनना रेऽऽऽ! हो कितनी ही लंबी बात,उसे बस, सुनते जाना रेऽऽऽ।
...तो बात ऐसी है कि- न और ना दोनों अलग-अलग डिक्शनरी के दो अलग शब्द और शब्दांश हैं। इनमें 'न' हिंदी-संस्कृत डिक्शनरी का शब्द है, जिसका मतलब नकारात्मक या निषेधात्मक अर्थ 'नहीं' है। 'ना' फारसी डिक्शनरी का है, जो "आग्रह" के अर्थ में इस्तेमाल होता है। मसलन,
"ऊँची आवाज में ना बोल। कहीं कोई सुन न ले।"
मतलब यही कि- इस वाक्य के पहले हिज्जे में ऊँची आवाज में न बोलने का आग्रह किया जा रहा है और दूसरे हिज्जे में ऊँची आवाज का निषेध किया गया है।
पु०- बागों में बहार है?
म०- है।
पु०- कलियों में निखार है?
म०- है।
पु०- तुमको मुझसे प्यार है?
है ना! (साग्रह)
म०- न..न..न.. बिल्कुल नहीं।
कुल जमा-खर्च बात यह कि न प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में निषेध के रूप में प्रयुक्त होता है और ना प्रत्यक्ष रूप में आग्रह करते हुए प्रयोग में लाया जाता है।तोता-रटंत वाचाल भाषा-विद् की तबियत गुनगुनी धूप खाकर कुछ-कुछ सुधरने लगी थी। हम मौन धारण किए उसके द्वारा खुद को दोबारा टोके जाने के इंतजार में खटिया पर पड़े शय्या-सुख का आनंद लूटने में निमग्न हो गए।..🙏
✍ अक्षय राज शर्मा
No comments:
Post a Comment