राजस्थान पत्रिका (चेन्नई संस्करण, 2-12-2025) में प्रकाशित समाचार ने मन को गहराई से छू लिया। समाचार था- राजपूत समाज ने एक अभिनव निर्णय लिया है कि शादी-विवाह, मायरा और अन्य शुभ प्रसंगों पर होने वाले लेन-देन में, दोनों पक्ष मिलकर कुल राशि का आधा-आधा प्रतिशत अपने जरूरतमन्द भाइयों की सहायता हेतु स्थापित “स्व-बन्धु सेवा कोष” में देंगे। यह कोष समाज के उन सदस्यों के लिए समर्पित रहेगा जो शिक्षा, सेवा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में किसी भी प्रकार की तंगी से जूझ रहे हैं। यह समाचार पढ़कर मन में अनायास भाव आया-“यह है सच्ची समाज सेवा का अनुपम उदाहरण! अपने ही बन्धुओं के प्रति उत्तरदायित्व का जीवंत स्वरूप!”
कभी हमारे जैन समाज में भी शादी-विवाह, मायरा और विविध शुभ अवसरों पर धर्मादे की राशि दोनों पक्ष मिलकर दिया करते थे। दोनों पक्ष साथ बैठकर चर्चा करते, राशि निर्धारित करते और तत्पश्चात उसे संस्थाओं तक पहुँचाते। यह प्रथा सिर्फ एक परम्परा नहीं थी, बल्कि आपस में जुड़े रहने की भावना, साझा जिम्मेदारी और स्वबंधु सेवा का प्रतीक थी।
पर जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी, जीवन में व्यस्तता आई, इस श्रेष्ठ परम्परा के प्रति उदासीनता भी धीरे-धीरे घर करती गई। आज स्थिति यह है कि यह प्रथा सुनने को लगभग नहीं मिलती-जैसे किसी पुरानी किताब का एक प्रिय पृष्ठ समय की धूल में कहीं दब गया हो।अब समय है-पुरानी विरासत को नई चेतना से जोड़ने का ।
राजपूत समाज की यह प्रेरक पहल हम सबके लिए एक संदेश है-“समाज तभी मजबूत बनता है जब हर व्यक्ति, हर परिवार, हर अवसर, किसी न किसी रूप में स्व-बन्धु सेवा से जुड़ता है।”
जैन समाज के लिए भी यह अत्यंत उपयुक्त समय है कि हम अपनी खोई हुई परम्परा को पुनः जीवित करें।
मेरा चेन्नई के जैन समाज, समाज के अग्रगण्य श्रावकगण एवं पूज्य साधु-साध्वी वृंद से विनम्र निवेदन है कि- एक ‘स्व-बन्धु सेवा कोष’ नाम की नई संस्था बनाई जाए,जिसमें दोनों परिवार किसी भी शुभ प्रसंग के खर्च का मात्र आधा प्रतिशत समर्पित करें।
यह योगदान कोई बोझ नहीं होगा,
बल्कि किसी भूखे स्वबंधु के लिए भोजन बनकर,किसी विद्यार्थी के लिए शिक्षा का आधार बनकर,किसी असहाय व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य-सहायता बनकर, और किसी जरूरतमन्द भाई के लिए सम्मान की ढाल बनकर उभरेगा।
किसी को भी समाज से बाहर सहायता मांगने की नौबत न आए-यही इस कोष का धर्म, यही इसका मूल्य, यही इसकी आत्मा है।
यदि हम सभी इस पहल को स्वीकार करें, उसे आगे बढ़ाएँ, तो "स्व-बन्धु सेवा” सिर्फ परम्परा नहीं रहेगी, बल्कि एक सतत चलने वाला योग बन जाएगी।
आज फिर वही समय आ गया है कि हम मिलकर कहें-“हम अपने स्व-बन्धुओं के रक्षक हैं। हम किसी को अभाव में नहीं रहने देंगे। हम अपने समाज की प्राचीन परम्परा को नए संकल्प के साथ पुनर्जीवित करेंगे।”
सुगालचन्द जैन, चेन्नई
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