भारतीय संस्कृति में श्री राम और अयोध्यापुरी


          धन्यायोध्या  दशरथ नृप:  सा च  माता  च  धन्या ,

         धन्या वंशो  रघुपति भवो  यत्र: रामावतार:   ।।

        धन्या वाणी  कविवर मुखे  राम नाम    प्रपन्ना,       

    धन्या लोक: प्रतिदिनम्   सौ  रामव्रतम्, श्रुनोति ।।


भारतीय संस्कृति की आधारशिला  श्री राम  हैं । भारत की सभ्यता में श्री राम सदियों से लोगों के दिलों पर राज कर रह है । यहाँ के  प्रजाजन श्री राम से इतने प्रभावित है कि वे श्री राम के संदर्भ में ही   सभी घटनाओं का वर्णन  करते है।  उदाहरण के तौर पर  - केवल राम जानता है: राम-सीता की जोड़ी:  राम-लक्ष्मण की जोड़ी: राम भरोसे: राम के नाम पर  तो  पत्थर भी तैरता है: जो राम का नहीं वह किसीका नहीं.

कई युगों   से निरंतर  चल रही  रामलीला और दशहरा के त्यौहार लोगों की राम के प्रति आस्था, प्रेम और सम्मान दर्शाते है.

अयोध्यापुरी का गुण वैभव:

"पापेन योध्यतेयस्मातत्तेना  योध्यते कथ्यते।"

अर्थात- जहाँ पाप रूपी शत्रु आत्मा में प्रवेशता  नही  वह अयोध्या है.

पुराणों में प्रसिद्ध, अयोध्यापुरी  सात मोक्षदायी पवित्र नगरों में  से एक है। स्कंद-पुराण में पवित्र अयोध्या का संदर्भ शिव और पार्वती के संवाद के  रूप में उपलब्ध  है। अयोध्यापुरी सरयू नदी  के तट पर बसी  है. वशिष्ठ ऋषि अपनी घोर तपस्या द्वारा पवित्र सरयू नदी को मानसरोवर से यहां  लाए इसलिए इसे  वशिष्ठी भी कहा है,  इसके अतिरिक्त   रामगंगा, रामकृता और नेत्रजा  नाम भी सरयू के है । 

भारतीय दर्शन में श्री राम और रामायण:

भारतीय मूल के धर्म और दर्शन यहां की अध्यात्म धारा, साधना,  और योग से जुड़ा हुआ है, चाहे वह वैदिक हो या जैन या बौद्ध, सब में हमें एक ही संदेश मिलता है कि अहिंसा परमो धर्म और  सर्व जीवों का मंगल हो. लोग आज भी श्री राम को एक महान सम्राट के रूप में याद करते हैं, जिनके राज्य को रामराज्य कहा जाता  हैं। 

वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण आदि चरित्रों  की लोकप्रियता सदियों से इस भूमि के जनजीवन में  घुलमिल गई है. हमारे मन में सहज ही  सवाल उठता है कि  भारत का लगभग हर परिवार रामायण की कहानी से परिचित है, फिर रामलीला  और रामकथा  बार-बार क्यों दोहराई जाती है ?

इस दोहराव के पीछे दो-तीन  कारण  है -  

एक  तो  यह कि लोग अपनी पुरानी आध्यात्मिक संस्कृति को पुनः जागृत कर खुशी से रह सके.   

दूसरा  यह  कि आम लोग अपने पिता की बातों को माने.  तीसरा यह  कि शांति और न्याय की स्थापना के लिए  अपने नायक (राम) द्वारा उठाए गए कष्ट और  कदम  देखकर अपने  दुःख सरलता से सह ले।  

अयोध्यापुरी और रामकथा विस्तार से सभी धर्मो में प्राप्त होती है.

 बौद्ध धर्म अनुसार गौतम बुद्ध यहां आये  थे और एक  जातक कथा का नाम दशरथ जातक है. 

जैन धर्म अनुसार प्रथम तीर्थंकर का जन्म यहीं हुआ था।  वे  श्री राम के पूर्वज थे.. जैन धर्म के पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है,.. अयोध्या में पांच तीर्थंकर- ऋषभनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दनस्वामी, सुमतिनाथ और अनंतनाथ तथा  महावीरस्वामी के नौवें गणधर अचल भ्राता भी यहीं पैदा हुए थे।  तब अयोध्या का नाम साकेत था. वाल्मीकि की रामायण की तरह जैन धर्म में भी कई गुरु महाराजों ने राम के  चरित्र विस्तार से लिखा है।  उसमे सबसे पहला नाम आचार्य विमलासुरि का है. 

हम पहले अयोध्या तीर्थ की कथा पुराण अनुसार देखकर फिर जैन  साहित्य में रामायण की बात करेंगे.

सम्राट विक्रम की कहानी बहुत दिलचस्प है- 

एक बार राजा तीर्थों के दर्शन के लिए सरयू के तट पर निर्मली कुंड  आए। सरयू नदी का तट, मंदिरों और कुंडों  की श्रृंखला से सुंदर दिखता है - श्री स्वर्ग द्वार, नागेश्वर तीर्थ, श्री काले रामजी तीर्थ, श्री हनुमान गढ़ी मंदिर, श्री राम जन्मभूमि मंदिर, आदि  । 

उस समय यह स्थान घने जंगल से घिरा हुआ था। वहाँ उन्होंने काले घोड़े पर काले कपड़े पहने एक दिव्य पुरुष को देखा। वह नहाने के लिए सरयू नदी पर आया।  सरयू के "निर्मली कुंड" में  नहाने के बाद वह दिव्य पुरुष और उसका घोड़ा दोनों सफेद हो गए। तब राजा समझ गया कि यह  व्यक्ति  कोई देवता होना चाहिए।  सम्राट विक्रम  ने उस देवता से ‘आप कौन है’ ऐसा पूछने पर अपने घोडे से  उतरकर देव ने उत्तर  दिया कि वे  प्रयागराज है और रोजाना रात में सरयू नदी में लोगों के पाप धोने के लिए प्रयाग से यहाँ आता है।  विक्रम राजाने   उसे प्रभु  राम के मंदिरों के बारे में जानकारी मांगी।  तब  उस दिव्य पुरुष ने बताया कि,  यहां एक समय बहुत मंदिर थे पर अब उनके अस्तित्व के बारे में  उन्हें "काशी विश्वेश्वर" से पूछना चाहिए। इसलिए राजा काशी गए और शिव शंकर से प्रार्थना की। तब विश्वेश्वर शंकर से राजा विक्रम को  प्राचीन मंदिरों के स्थान का पता लगा और उन्होंने  अयोध्या में पांच मंदिरों की स्थापना की- 1. श्री राम जन्मभूमि मंदिर 2. रत्न सिम्हासन मंदिर 3. कनक मंदिर 4. सहस्रधारा तीर्थ मंदिर 5. देवकाली मंदिर . 

श्री कालेरामजी तीर्थ:

प्रभु राम जब बाल्यावस्था में थे तब से ही  लोग आज के जन्मस्थान को  रामलल्ला का  स्थान व मंदिर  कहते आये है. राजा विक्रम ने जन्मभूमि मंदिर का जीर्णोद्धार कराया.. और वहां के विशाल परिसर में 84 स्तंभों वाला   मंदिर बनवा कर  शालिग्राम से बनी श्री राम पंचायतन की मूर्ति स्थापित की। मोगल काल में श्रीराम की मूर्ति को सरयू के तट पर छुपा दिया गया था। बाद में वह मूर्ति पंडित नरसिम्हराव को मिली थी  जो कि नवनिर्मित काले रामजी मंदिर में,  कालेरामजी ट्रस्ट  द्वारा स्थापित की गई । 

यहां की मुख्य मूर्ति राजा विक्रम द्वारा स्थापित  श्री राम पंचायतन (श्री कालेरामजी) की है, जो सरयू के तट से प्राप्त हुई थी ।  

 रामं रामानुजम् सीतां भरतम् भरतानुजम्,

         अग्रे वायुसुतं यत्र प्रणमामि पुन: पुनः ।।

नुवाद: केंद्र में श्री राम  है। उनकी  बाईं  ओर माता सीता और भरत. जब कि लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनकी  दाहिने ओर।  सबसे प्रतिष्ठित  अमर भक्त  हनुमान  उनके पास बैठे हैं। 

शास्त्रों के अनुसार, श्री राम ने अयोध्या पर लगभग 10 हजार वर्षों तक शासन किया और अंत में उन्होंने मारुति को सिंहासन पर बैठाया, क्योंकि वे अमर  थे। मारुति का  स्थान "हनुमान गढ़ी"  बहुत ही शुभ और सजीव है। यहां मारुति का जन्म   त्यौहार के साथ मनाया जाता है। यह तीर्थ राम जन्मभूमि के पास है। इस स्थान के दर्शन से ही सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ कोई भी व्यक्ति  श्रीराम के आशीर्वाद पाने के लिए  उनकी मूर्ति स्थापित कर सकता है।

दूसरा मंदिर "रत्न सिंहासन” का है जहां श्री रामजी का राज्याभिषेक समारोह किया गया था। 

तीसरा स्थान कनक भवन है जहां राम-जानकी की प्रतिमा स्थापित है। कनक भवन की मूर्ति "पुष्य नक्षत्र" के दिन ओरछा राज्य की रानी को मिली थी जिसे उनके द्वारा ओरछा में  राजा राम के रूप में स्थापित किया गया । अन्य सभी मूर्तियाँ अपने अपने स्थानों पर हैं।

चौथा तीर्थस्थल "सहस्त्रधारा" है जहाँ लक्ष्मण की चार हाथ वाली  मूर्ति स्थापित है। 

पाँचवीं मूर्ति  शक्तिपीठ में स्थापित है- एक  शीला पर तराशी हुइ महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती की त्रिमूर्ति  और  एक शक्तिशाली यंत्र स्थापित है।   

जैन साहित्य में श्री राम:

श्री राम, रामायण और अयोध्यापुरी  का स्थान जैन साहित्य में बहुत ही आदरणीय और पवित्र है. रामायण को सबसे पहले भगवान महावीर ने अपने शिष्य गौतमस्वामी को अवगत कराया, जिन्होंने सूत्र रूप में इसकी रचना की जो मौखिक परंपरा में आगे चली। बाद में पहली शताब्दी में इसे  प्राकृत भाषा के महाकाव्य – पउमचरियम के  रूप में आचार्य विमलसूरि ने गठन किया।

 ‘पउमचरियम’ महाकाव्य में राम को पद्म कहा गया है.  पद्म- कमल, आत्मा की परिपूर्णता का प्रतीक है । इस महाकाव्य  का सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण के समान है, सिवाय कि श्री हनुमान  और रावण मानव रूप में हैं ।

 यह ग्रंथ में नगर, पहाड़ों और मौसमों के लंबे वर्णन  है। यहां तक ​​कि विवाह समारोह, समुद्र में खेले जाने वाले खेल, आदि के वर्णन भी हैं।  आपने लिखा कि, राक्षस कोई आदमखोर भक्षक नहीं  बल्कि विद्याधर थे - गुणों और  विद्या से संपन्न वे अत्यधिक सभ्य  थे। लंका में विद्याधर वंश के महान  नायक राक्षस के नाम से  वह वंश   राक्षस वंश कहा जाने लगा। 

राम का जन्म ऋषभदेव की वंशावली में  इक्ष्वाकु राजवंश में हुआ था। ऋषभनाथ के पौत्र में से एक थे आदित्ययशा जिन्होंने सूर्यवंश की शुरुआत की थी। कुछ पीढ़ियों के बाद, राजा अनारन्या ने अपने बहुत छोटे बेटे दशरथ को अयोध्या का राज्य भेंट किया और दीक्षा ली। दशरथ की तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकेई थी . कालान्तर में कौशल्या ने राम को जन्म दिया। अपनी युवावस्था में राम बहुत बहादुर थे ।

 राम ने हनुमान की मदद से रावण के खिलाफ युद्ध जीता और पुष्पक विमान में अयोध्या लौट आए। उनके साथ कई विद्याधर आए और वहाँ कई  अद्भुत तीर्थ और महलों का निर्माण किया।  इसके बाद शत्रुघ्न के आग्रह पर उसे मथुरा नगर के राक्षस राजा मधु को पराजित करने सेना के साथ जाने की अनुमति दी. शत्रुघ्न ने उसे मारकर मथुरा नगर को सुरक्षित किया. इसका वर्णन आचार्यश्री विमलासुरि करते है और साथ में उस समय के बड़े लोग आकाशगामिनी विद्या से मथुरा से साकेत कैसे जाते थे यह भी लिखा है।

जैन रामायण- "पउमचरियम" पहली बार अंग्रेजी में श्री डॉ. हरमन जेकोबी द्वारा  1914 में प्रकाशित किया गया था। "डॉ. हर्मन जेकोबी  कहते है -

सदियों से लोगों के दिल में बसे श्री राम के बारे में बात करना बेहद सम्मानजनक है.

"पउमचरियम" का दूसरा संशोधित संस्करण मुनि पुण्यविजयजी द्वारा 1962 में प्रकाशित हुआ. 

“पउमचरियम" महाकाव्य   के बाद भी श्री राम के जीवन पर  कई आचार्यों द्वारा रामायण  रची गई  जो करीब सत्रह हैं. जिनमें आचार्य हरिभद्रसूरी, हेमचंद्राचार्य, पम्पा, मल्लीसेनाचार्य, मेरुतुंगसूरी, मेघविजय, धनंजय,  आशधर-पंडित, आदि की रचनाए शामिल हैं। इस के उपरांत प्राचीन और मध्यकालीन सीताचरित्र की संख्या तीस हैं. 

महाकाव्य  “पउमचरियम" के अनुसार 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी के काल में राम अयोध्या के राजा थे। 

विविध तीर्थ कल्प में अयोध्या नगरी-कल्प:

 अगर हम "विविध तीर्थ कल्प (राजप्रसाद)" - की बात करें तो इसे पूरी दुनिया विश्वसनीय इतिहास के रूप में स्वीकार करती है। जिनप्रभसूरी ने  इस  कल्प की  रचना वर्ष 1382-85 में की थी। उस समय दिल्ली में महमूद बेगड़ा का शासन था। 

इस पुस्तक में 62 अध्याय हैं। पहला अध्याय "शत्रुंजय-कल्प"  है और 62 वां अध्याय  "पंच परमेष्ठी- नमस्कार-कल्प " है।

यहाँ 13 वाँ अध्याय “अयोध्या नगरी-कल्प” है। यह कल्प अयोध्या के विभिन्न नाम  देकर   शुरू किया है, जैसे-  अउज्झ, अवज्झ, कोसल, विनीता, साकेत,  इक्ष्वाकु भूमि, रामपुरी, आदि। रघुवंश में जन्में   दशरथ, राम, भरत आदि का राज्य यहीं था.  विमलवाहन  आदि सात कुलकरो की यह जन्मस्थली भी रही है। महासती सीता ने पानी से शहर की रक्षा की इसलिए यह भूमि को जलपुरी भी कहा जाता है।   

लेखक जिनप्रभसूरी  कहते है कि  देवि  चक्रेश्वरी  और यक्ष गोमुख इस स्थान की रक्षा करते हैं। यहां स्वर्गद्वार , सीताकुंड  सहस्रधारा है, पार्श्वनाथ, गोपराजी तीर्थ,  नभिराजा मंदिर, आदि है। यहां  किले में मत गजेंद्र नाम का यक्ष रहता है। 

 अयोध्या तीर्थ  में जैन मुनि देवेद्रसूरी  आये. यहां की पवित्र भूमि में ध्यान किया। यहां की शीला की  शक्ति को पहचाना

  और इसके बाद उन्होंने सोपारक नगर से एक  प्रसिद्ध अंधे कलाकार  को बुलाया  ।  वहां उस शीला से उन्होंने चार मूर्तियाँ तैयार करवाकर उन्हें अलग अलग अन्य स्थानों पर स्थापित करवाया। 

इस प्रकार जिनप्रभसूरी ने विविध तीर्थ  कल्प में श्रीराम और  अयोध्या तीर्थ की यह भूमि की  महीमा  और शक्ति को  नमन किया । 

      "पापेन योध्यतेयस्मातत्तेना  योध्यते कथ्यते।" जहाँ पाप रूप  शत्रु  आत्मा में प्रवेशता  नही  वह  अयोध्या है.

गर्व की बात:

 आज हम भारतवासिओं के  लिए गर्व की बात है कि जन जन के आराध्य देव श्री राम को बालक रूप - लल्ला स्वरूप में ही जन्मभूमि स्थान पर ही स्थापित किया गया। अति सुंदर बालरूप देखते ही लगता है कि अभी कौशल्या मैया गुन गुनाएगी – 

 ठुमक चलत रामचंद्र ..

ठुमक चलत रामचंद्र.. बाजत पैजनियाँ ..

जय श्री राम।

Dr. Renuka J. Porwal, Visiting Lecturer, Course Convenor.

M: 9821877327

renukap45@gmail.com


No comments:

Post a Comment

Featured Post

महावीर तपोभूमि उज्जैन में द्वि-दिवसीय विशिष्ट विद्वत् सम्मेलन संपन्न

उज्जैन 27 नवम्बर 2022। महावीर तपोभूमि उज्जैन में ‘उज्जैन का जैन इतिहास’ विषय पर आचार्यश्री पुष्पदंत सागर जी के प्रखर शिष्य आचार्यश्री प्रज्ञ...

Popular