आजकल AI ने हमारे काम बड़े आसान कर दिए हैं। हर क्षेत्र में इसका दखल है। एक तरह से यह मानव के लिए उपकारी साबित हो रहा है। इसके नए-नए वर्जन और भी लाभकारी होंगे। यह हमारे लिए खुशी की बात है।
लेकिन AI साहित्य लिखने लगे तो फिर भावनाओं का क्या काम? कहानी, कविता, समीक्षा इसी के जिम्मे दे दी जाए तो लेखन का वह आनंद कहां! इस तरह के फर्जी साहित्य से दूसरों के सामने काॅलर ऊंचा किया जा सकता है पर आत्मा तुष्ट न होगी। मन में एक डर बना रहता है कि कहीं उघड़ गया तो?
तुलसीदास जी ने AI के लिए तो नहीं लिखा था पर ऐसी स्थिति को देखकर यह दोहा लिखा था -
चरन चोंच लोचन रंगों, चलै मराली चाल।
नीर-क्षीर बिबरन समै, बक उघरत तेहि काल।।
आज के समय में ऐसी रचनाओं को विलग करना आसान नहीं है पर साहित्यकार अंदाजा लगा लेते हैं कि इसमें घपला किया गया है संपादकों को पत्रिका में रचना प्रकाशित करते समय इस स्थिति से जरूर गुजरना पड़ता होगा। समीक्षक को समीक्षा करते समय इससे दो चार होना पड़ता है।
हमारी खुद की लिखी रचना कमजोर भी हो तो उसे स्वीकारना चाहिए। किसी तकनीकी सहायता से हम साहित्यकार न बन पाएंगे। क्योंकि आपकी खुद की रचना में अनुभव की हड्डी होती है। शब्दों की मांस-मज्जाऔर भावों की आत्मा होती है। तभी वह रचना जीवित कही जाएगी। बिना आत्मा की रचना प्लास्टिक डौल की तरह होगी।
विशिष्ट साहित्यकार तो पहचान जाते हैं कि यह रचना किस भावभूमि की है। पर संपादक की अतिरिक्त ऊर्जा तो खर्च हो ही जाती है।
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