मेरा चरित्र और रेतीली गठरियाँ
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
मै अपने साथ एक झोला रखता हूँ,
जिसमे रेत की कुछ गठरियाँ हैँ।
मेरा चरित्र भुरभुरा है;
क्योँकि वह रेतीला है।
इधर, चरित्र गिरता है;
उधर, रेत की गठरियाँ–
सक्रिय हो उठती हैँ;
एक नया चरित्र उकेरने के लिए।
मेरा चरित्र–
बार-बार फिसलता है;
मुट्ठी मे भरे बालू की तरह।
दूसरी गठरी सक्रिय होने लगती है।
बेशक, मै सौ प्रतिशत चरित्रहीन हूँ;
मगर साथ चलती गठरियाँ–
थाम लेती हैँ–
मेरी बीभत्स चरित्रहीनता को;
क्योँकि उन्हेँ मालूम है–
हम दोनो क्षणजीवी हैँ;
एक-दूसरे के पूरक भी।
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