जब-जब जनमा तब-तब रोया


घुटनों के

बल पर चलती है

धीर-धीरे जीत।


जीवन 

घना-घना कुहरा है

है अनूप खादर 

मिटटी की

ममता का सोना

साँसों की चादर 

मिट्टी पर ही

खड़ी हुई  है

किसी महल की भीत।


जब भी बादल 

नभ में छाए

नैन हुए सावन 

शाखों की 

फुनगी पर आए

कुछ वसंत पावन

रेशम के

कपड़े पहने तब

मन-पहाड़ के शीत।


पीड़ा से

मिलजुलकर रहती

काव्यों की गीता

भावों-भावों 

छिपी हुई है

बन प्रतीति सीता

जब-जब जनमा

तब-तब रोया

हर युग का हर गीत।


शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

           वाराणसी

       

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