वाणी वन्दना


 वाणी वन्दन, करता हूँ ।

रोली चन्दन, करता हूँ ।।

भाल झुकाकर, माता को ।

हिये बिठाकर, माता को ।।

वैभव सुख धन,दाता को ।

मानव जीवन, दाता को ।।

नित आवाहन ,करता हूँ ।

पूजन साधन, करता हूँ ।।

पाल रही बन,धरती माँ ।

हर्ष मोद घर ,भरती  माँ ।।

सकल अमंगल ,हरती माँ ।

सबका मंगल ,करती माँ ।।

नित अभिनन्दन, करता हूँ ।

वाणी वन्दन, करता हूँ  ।।

 वीर करे धुन  ,वीणा की  ।

पीर हरे धुन , वीणा की ।।

लुटा रही गुन ,वीणा की ।

सुना रही धुन ,वीणा की ।।

नेहिल बन्धन  ,करता हूँ ।

वाणी वन्दन, करता  हूँ ।।

अपनी माँ पर ,मान करूँ ।

माता का नित , गान करूँ ।।

चरण धूल धर ,शान करूँ ।

ले चरणोदक  ,पान करूँ ।।

पद रज चन्दन, करता हूँ ।

वाणी वन्दन ,करता  हूँ  ।।


ठाकुर दास शर्मा, बाँदा 

उत्तर प्रदेश


संपादक, समीक्षक एवं लेखक के लिए AI generated रचनाएं सिर दर्द या ठंडा-ठंडा कूल-कूल

             आजकल AI ने हमारे काम बड़े आसान कर दिए हैं। हर क्षेत्र में इसका दखल है। एक तरह से यह मानव के लिए उपकारी साबित हो रहा है। इसके नए-नए वर्जन और भी लाभकारी होंगे। यह हमारे लिए खुशी की बात है।

            लेकिन AI साहित्य लिखने लगे तो फिर भावनाओं का क्या काम? कहानी, कविता, समीक्षा इसी के जिम्मे  दे दी जाए तो लेखन का वह आनंद कहां! इस तरह के फर्जी साहित्य से दूसरों के सामने काॅलर ऊंचा किया जा सकता है पर आत्मा तुष्ट न होगी। मन में एक डर बना रहता है कि कहीं उघड़ गया तो?

             तुलसीदास जी ने AI के लिए तो नहीं लिखा था पर ऐसी स्थिति को देखकर यह दोहा लिखा था -

चरन चोंच लोचन रंगों, चलै मराली चाल।

नीर-क्षीर बिबरन समै, बक उघरत तेहि काल।।

              आज के समय में ऐसी रचनाओं को विलग करना आसान नहीं है पर साहित्यकार अंदाजा लगा लेते हैं कि इसमें घपला किया गया है  संपादकों को पत्रिका में रचना प्रकाशित करते समय इस स्थिति से जरूर गुजरना पड़ता होगा। समीक्षक को समीक्षा करते समय इससे दो चार होना पड़ता है। 

             हमारी खुद की लिखी रचना कमजोर भी हो तो उसे स्वीकारना चाहिए।  किसी तकनीकी सहायता से हम साहित्यकार न बन पाएंगे। क्योंकि आपकी खुद की रचना में अनुभव की हड्डी होती है। शब्दों की मांस-मज्जाऔर भावों की आत्मा होती है। तभी वह रचना जीवित कही जाएगी। बिना आत्मा की रचना प्लास्टिक डौल की तरह होगी। 

            विशिष्ट साहित्यकार तो पहचान जाते हैं कि यह रचना किस भावभूमि की है। पर संपादक की अतिरिक्त ऊर्जा तो खर्च हो ही जाती है।

लखनलाल पाल 

- ज़हर


माना कि ज़हर है दुनियाँ अमृत समझ पीना आना चाहिये

कठिन है रास्ते तो क्या कोंसना नही चलना आना चाहिये

जीवन है इम्तिहान तो लेगा 

क्यों हताश होते हो 

मंजिल दूर है हालात मगरूर है

इस हालात पर भी दोस्तों अज़माना आना चाहिए 

क्यों कोंसे उसकी बनाई इस बगिया को 

हम भी तो उसकी इस बगिया के ही फूल है

हर फूल का भी एक ज़मीर है

हर फूल को सूखने से पहले महकना आना चाहिये

उम्मीद बहुत की औरों से ए दिल माद्दा है कि खुद को बनाना आना चाहिये

एक ही कश्ती के सवार हम मुसाफिर है

जाना बहुत दूर पर मंजिल काफिर है

ना जाने किस तूफान से  हमारा राफ्ता हो जाये

किस गली हमारी शाम हो जाये 

हर एक की फखत मजबूरी है

बिना चाह की एक अलग दूरी है 

दर्द कोई किसी का ले सकता नही तो फिर क्यों ये गिले है

फर्ज ईमान के साये मे एक ही मिट्टी मे पले है

मत कर किसी से गिला ना मालूम उसके दामन के कितने छेद ना सिले है 

जिन्दगी सितारों का एक वृहद आकाश है 

बस चमकते रहो ओर चमकाना आना चाहिये

रंज-ओ-गम से दूर एक दुनिया बनाना चाहिए ।

संदीप सक्सेना 

जबलपुर म प्र


पुस्तक समीक्षा - विदेश में हिंदी पत्रकारिता

पुस्तक समीक्षा


पुस्तक- विदेश में हिंदी पत्रकारिता 

लेखक- डॉ. जवाहर कर्नावट

प्रकाशक- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

मूल्य- रुपए 400/-


विदेशों में हिंदी पत्रकारिता का इनसाइक्लोपीडिया 


खींचो न कमानों को न तलवार निकालो,

जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।

पत्रकारिता हर अंधेरे के विरुद्ध अग्निशलाका है। अकबर इलाहाबादी का उपर्युक्त शेर, पत्रकारिता के असीम सामर्थ्य को परिभाषित करता है। जनता का अघोषित प्रतिनिधि होता है पत्रकार और जनता की आवाज़ बनती है पत्रकारिता। 

पत्रकारिता, पंक्ति में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति के प्रश्न भी उठाती है। अतः पत्रकारिता की भाषा बहुत महत्वपूर्ण है। जनता की भाषा में, जनता के प्रश्नों को स्वर देना पत्रकारिता को आम आदमी से जोड़ता है।  ऐसे में अपने देश से दूर परदेसियों के बीच अपनी भाषा में, अपने प्रश्नों की बात करना अतुलनीय है। ऐसी ही अतुलनीय पत्रकारिता के इतिहास का अधिकृत दस्तावेज़ है डॉ. जवाहर कर्नावट की पुस्तक 'विदेश में हिंदी पत्रकारिता।' प्रस्तुत पुस्तक में तथ्यों के साथ विवरण एवं इतिहास का उल्लेख भी किया गया है। 

पुस्तक में 27 देशों की हिंदी पत्रकारिता का सिंहावलोकन है। लेखक ने इन देशों को चार वर्गों में विभाजित किया है। गिरमिटिया देश अर्थात मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, फीजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिडाड, टुबैगो इसमें सम्मिलित हैं। उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के वर्ग में अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड हैं। यूरोप के देशों में ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नॉर्वे, हंगरी, बुल्गारिया, रूस का समावेश है। एशिया महाद्वीप में जापान, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, कतर, चीन, तिब्बत, सिंगापुर, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, नेपाल सम्मिलित हैं।

एग्रीमेंट द्वारा मॉरीशस, फीजी और अन्य देशों में ले जाए गए भारतीय श्रमिकों ने न केवल अपनी धरती से निर्वासन झेला अपितु अन्याय, शोषण और अपमान का सामना भी किया। सारी विसंगतियों के बीच भी अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म को बचाए रखने के लिए एक होकर अनवरत संघर्ष किया। इसकी बानगी मॉरीशस में हिंदी पत्रकारिता का आरंभ करने वाले मणिलाल डॉक्टर के 'हिंदुस्तानी' पत्र के घोषवाक्य के रूप में मिलती है। यह वाक्य था- 'व्यक्ति की स्वतंत्रता, मनुष्य की समानता, जातियों का भाईचारा।' 

यहीं से प्रकाशित 'आर्यवीर' अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहता है कि उद्देश्य भी वही होना चाहिए जिसमें स्वजाति, देश और धर्म की रक्षा हो। हस्तलिखित 'दुर्गा' के उद्देश्यों की सूची में एक उद्देश्य है- 'हिंदी कैसी जानदार और शानदार भाषा है, अँग्रेजी-फ्रेंच पर लट्टू रहने वालों को दिखाना।'

23 फरवरी 2003 को सूरीनाम से प्रकाशित 'शब्द शक्ति' के पहले अंक में अपने संपादकीय में श्री हरदेव सहतू ने पत्रिका के उद्देश्यों की चर्चा की है। उनमें से कुछ पर दृष्टि डालिए- 1)  अपने आजा- आजी के श्रमदान के सम्मान में भाषा का प्रचार। )2 भारतीय संस्कृति के द्वारा अपने धर्म-संस्कृति के प्रचार के लिए हिंदी भाषा का प्रचार। 3) हिंदी भाषा को जानकर हम अपने धर्म, पूजन, मंदिरों और संस्कारों की गहराई जान सकें। 4) हम सब आपस में एक हो सकें।  एक दूसरे की खुशी में सुखी होने की भाषा सीख लें।

अंतिम उद्देश्य भाषा के रूप में हिंदी की व्यापकता को पराकाष्ठा तक ले जाता है।

संस्कृति के साथ धर्म की बात इसलिए भी महत्वपूर्ण लगती है क्योंकि अन्यान्य देशों में मिशनरियाँ प्रवासी मजदूरों में अपने धर्म का प्रचार करने में जुटी थीं।  पुस्तक में उल्लेख है कि सूरीनाम में मिशनरियाँ 'क्रूस की रोशनी' नामक धर्म प्रचारक पत्रिका हिंदी में निकालने लगी थीं। ऐसे में प्रवासियों द्वारा आरंभ किए गए पत्र-पत्रिकाओं में भी अपने धर्म को अधिक स्थान दिया जाने लगा।

संस्कृति और सभ्यता के साथ भाषा के अंतर्सम्बंध को गयाना से प्रकाशित 'ज्ञानदा' के संपादक  योगराज शर्मा ने मात्र एक वाक्य में परिभाषित कर दिया। 'हमारा लक्ष्य' के अंतर्गत पत्रिका कहती है, "मातृभाषा सभ्यता का मोक्ष बिंदु है।"

पंडित परसराम महाराज ने 1997 में ऑस्ट्रेलिया में 'हिंदी समाचार पत्रिका' की स्थापना की। इसके 16 वर्ष पूर्ण होने पर अप्रैल 2013 के अंक के संपादकीय में पंडित जी की यह एक पंक्ति पाठकों के मन में गहरे पैठती है। वे लिखते हैं, "हिंदी भाषा व भारतीय संस्कृति, एक भारतीय की वेशभूषा है।"

विशेष बात रही कि विदेशों में बसे भारतीयों ने हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से अपने देश, अपनी जड़ों, जन्मभूमि, भाषा, धर्म, संस्कृति की बात तो की पर अपनी कर्मभूमि के विरुद्ध कभी कोई सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक गतिविधि नहीं चलाई। इसका उल्लेख पुस्तक में अपने अभिमत में विजयदत्त श्रीधर जी ने किया भी है। इसी संदर्भ में 'नीदरलैंड में हिंदी पत्रकारिता' के अध्याय में सूरीनाम के प्रथम हिंदी साहित्यकार और दो दशक नीदरलैंड में बिताने वाले मुंशी रहमान खान के इस दोहे का पुस्तक में उल्लेख है- 

रहियो तुम जिस देश में पलियों नृप की नीति,

चलियो अपने धर्म पर सबसे करियो प्रीति।

अपने परिश्रम और निष्ठा से भारतवंशियों ने प्रवासी देश में अपना स्थान कैसे बनाया, इस संबंध में दक्षिण अफ्रीका के 'इंडियन ओपिनियन' के हिंदी संस्करण में 5 अगस्त 1905 को नटाल के प्रोटेक्टर पोलिंग होटन की एक अंग्रेजी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसमें गिरमिटियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है, 'हिंदिओं की ज़रूरत विशेष है। बिना हिंदी, देश आबाद न हो सके।' यह वाक्य भारतीयों की कर्मनिष्ठा और उनके परिश्रम पर बहुत कुछ कह देता है।

भारतीयों के मातृभूमि-प्रेम पर दक्षिण अफ्रीका में हिंदी पत्रकारिता के शलाकापुरुष  भवानीदयाल संन्यासी का 'हिंदी' के 26 मई 1922 के संपादकीय में लिखा यह ब्रह्मवाक्य देखिए-'जिस तरह एक अंग्रेज को अपनी मदरलैंड और एक जर्मन को अपना फादरलैंड प्यारा है, हम दावे के साथ कहते हैं कि एक हिंदुस्तानी को अपना वतन उससे कम प्यारा नहीं।'

काठमांडू से प्रकाशित 'हिम किरण' साप्ताहिक का राष्ट्र को सर्वोच्च स्थान देने वाला यह सूत्र देखिए- "हे ईश्वर! नेताओं और लोगों की चेतना में यह भर दे कि राष्ट्र किसी व्यक्ति से बड़ा होता है।"

सच्ची पत्रकारिता के प्रारब्ध में अखंड संघर्ष लिखा होता है। पत्र-पत्रिकाएँ जन्मती हैं, मरती हैं। कुछ अल्पायु होती हैं, कुछ दीर्घायु। अल्पायु पत्र-पत्रिकाएँ समाप्त होकर सृजनात्मकता और संघर्ष की उसी मिट्टी में समाहित हो जाती हैं। तथापि यही छोटे-छोटे प्रयास भविष्य की पत्रकारिता के लिए उर्वरक भी बनते हैं। फीजी के 'वृद्धि' का अंतिम अंक 1929 में प्रकाशित हुआ था। इसके बंद होने पर एक पाठक के लिखे पत्र  का एक अंश देखिए- "वृद्धि की इस अचानक मृत्यु से कौन ऐसा हिंदी प्रेमी भारतीय न होगा, जिसके हृदय पर वज्राघात ना हुआ हो। जो-जो हिंदी की सेवाएँ 'वृद्धि' द्वारा आज तक हुई हैं, वह किसी भारतीय पत्र प्रेमी से छिपी नहीं हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि 'वृद्धि' पुन: जन्म ले। हम अब आगे प्रवासी भारतवासियों की सहायता करने पर तत्पर रहे।"


जब देश में ही हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के सामने पाठकों का संकट हो, आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो, ऐसे में विदेश में हिंदी के माध्यम से पत्रकारिता का विचार, किसी आशंका से कम नहीं हो सकता। तथापि पत्रकारिता के लिए प्रतिबद्ध संपादकों और पत्रकारों का साहस और समर्पण है कि उन्होंने अपने लाभ-हानि की चिंता ना करते हुए, देश के बाहर भी हिंदी पत्रकारिता के बीज बोए। इस संदर्भ में अबू धाबी से प्रकाशित 'निकट' के जनवरी-जून 2013 के अंक में संपादक कृष्ण बिहारी ने लिखा- "मैं 'निकट' को सिद्धांतविहीन नहीं बना सकता। वक़्त लगेगा मगर यकीन है कि 'निकट' को अपनी ज़मीन मिलेगी। मेरी अपनी मेहनत की कीमत क्या है, यह मैंने कभी सोचा ही नहीं। सोचा होता तो क्या साहित्य से रिश्ता जोड़ता?"

पुस्तक बताती है कि विसंगतियों के बीच भी पत्रकारिता को सदैव क्रियाशील रहना होगा। इस क्रियाशीलता को जापान से प्रकाशित 'ज्वालामुखी' के संपादक योशिआकि सुजुकि, जो स्वयं को योगेश्वरनाथ सुजुकि कहलाना पसंद करते हैं, ने अपने संपादकीय में कुछ यूँ व्यक्त किया है-"मैंने इस पत्रिका को सुंदर बनाने के लिए यह नाम नहीं दिया। मैंने 'ज्वालामुखी' नाम इसलिए दिया कि सक्रिय ज्वालामुखी की तरह हम भी सदैव क्रियाशील रहें।"

लेखक ने संबंधित देशों में हिंदी पत्रकारिता के जन्म से लेकर वर्तमान काल खण्ड की यात्रा तक क्रमश: वर्णन किया है। किसी पत्र-पत्रिका के आरंभिक संघर्ष से लेकर  उसमें छपे पहले विज्ञापन का भी उल्लेख है। 

उन दिनों के संघर्ष को याद करते हुए नॉर्वे से प्रकाशित 'परिचय' पत्रिका के संपादक सुरेशचंद्र शुक्ल ने इस पुस्तक के लेखक को बताया, "हमारे पास हिंदी का कोई टाइपराइटर नहीं था और न ही ले-आउट के लिए कोई मेज़ थी। आम मेज़ और फर्श पर बैठकर 32 और 40 पृष्ठों की यह पत्रिका हस्तलिखित रूप में तैयार कर ओस्लो नगर के दागब्लादे प्रेस में छपती थी।"

अपनी भाषा में अपनी बात कहने, सुनने, पढ़ने की इच्छा का प्रमाण बना 'सिंगापुरी अख़बार।' अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को  नियुक्त किया गया था। इसे दृष्टिगत रखते हुए मई 1941 में 'सिंगापुर अख़बार' की शुरुआत हुई। 'द सिंगापुर फ्री प्रेस एंड मर्केंटाइल एडवरटाइजर्स' ने 11 सितंबर 1941 को इस समाचार को इस हेडलाइन के साथ प्रकाशित किया- 'इंडियन सोल्जर्स नाव हैव ओन न्यूज़पेपर।' आगे चलकर 'जवान' अख़बार  भी प्रकाशित होना शुरू हुआ। विशेष बात थी कि सेना के तीन अधिकारी ही इसके संपादक एवं उप-संपादक थे।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में म्यांमार में मंदिरों ने  अपने प्रांगण में हिंदी पाठशालाएं आरंभ की। 1960 में वहाँ की सरकार द्वारा शिक्षा का सरकारीकरण करने के बाद हिंदी को कोई स्थान नहीं दिया गया। इस स्थिति में मंदिरों और चौपालों ने फिर से कमर कसी और हिंदी कक्षाएँ पुनः आरंभ हुईं। इन्हीं कक्षाओं ने आगे चलकर म्यांमार में हिंदी पत्रकारिता को जन्म दिया।

न्यूजीलैंड से प्रकाशित हिंदी की प्रथम पत्रिका 'भारत दर्शन' विदेश में हिंदी पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। संपादक रोहित कुमार हैप्पी 1996 से इसका दायित्व संभाले हुए हैं। उन दिनों पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर छपने वाला यह अनुरोध देखिए- "कृपया पत्रिका को पढ़ने के बाद फेंके नहीं बल्कि किसी और हिंदी प्रेमी को पढ़ने को दे दें। पत्रिका के प्रचार-प्रसार में आपके योगदान के लिए आभार।"

यूके से प्रकाशित 'पुरवाई' प्रवासी लेखन को मंच देने के क्षेत्र में एक जाज्वल्यमान नाम है। 1997 में संपादक श्री पद्मेश गुप्त एवं सहायक संपादक उषा राजे सक्सेना ने इसका आरंभ किया था। वर्तमान में श्री तेजेंद्र शर्मा के संपादन में यह पत्रिका प्रवासी और निवासी भारतीयों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है।

15 अगस्त 2000 को संयुक्त अरब अमीरात से जन्मी 'अभिव्यक्ति' ने हिंदी वेबपत्रिका के क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात किया। संपादिका पूर्णिमा वर्मन ने एक वर्ष बाद कविताओं के लिए 'अनुभूति' नाम से अलग पत्रिका आरंभ की। इन पत्रिकाओं पर संपादिका की यह टिप्पणी देखिए, "अभिव्यक्ति और अनुभूति केवल पत्रिकाएँ नहीं हैं। यह पुस्तकालय है जिसमें हमने साहित्यिक रुचि के लोगों की प्रिय रचनाओं और उनके प्रयत्नों को सहेजा है। अनेक  रचनाकारों का जन्म यहाँ पर हुआ है और अनेक उदीयमान रचनाकार यहाँ से प्रसिद्धि के पथ पर आगे बढ़े हैं।" 

डॉ. कर्नावट ने सोवियत संघ से लेकर नीदरलैंड, चीन, तिब्बत तक की हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का सिंहावलोकन किया है। इस संदर्भ में भारत और सोवियत रूस के संबंधों के स्वर्णिम काल में भारतीय बाज़ार में दिखने वाली 'सोवियत नारी', 'सोवियत संघ', 'सोवियत भूमि', 'लाल स्पूतनिक' आदि को कौन भूल सकता है? जर्मनी की 'बसेरा' हो या हंगरी की 'दिन', लेखक ने छोटी-बड़ी हर पत्रिका का  यथासंभव उल्लेख किया है और उनके स्रोत की जानकारी भी दी है।

यह पुस्तक केवल मुद्रित नहीं बल्कि दृक-श्राव्य साधनों यथा रेडियो और दूरदर्शन के माध्यम से की गई पत्रकारिता की पड़ताल भी करती है। बीबीसी हिंदी एक समय असंख्य भारतीयों के हृदय की धड़कन था। रेडियो 'उजाला' हो 'ओम वाणी' या रेडियो 'डायचे वेले' या विभिन्न एफ.एम. चैनल, डॉ. कर्नावट ने सबकी समुचित जानकारी  देने का प्रयास किया है। 

उल्लेखनीय है कि लेखक ने एक परिशिष्ट बनाकर विनम्रतापूर्वक उन महानुभावों और संस्थाओं के नाम का उल्लेख भी किया है जिन्होंने लेखक को विभिन्न देशों की हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाईं।

अपने समय की महत्वपूर्ण कुछ पत्र पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों के चित्र भी पुस्तक में समाविष्ट किए गए हैं। पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक बना पड़ा है। 

डॉ. जवाहर कर्नावट की पुस्तक एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनकर उभरती है। इतिहास को परिश्रामपूर्वक तथ्यों सहित सहेजा गया है। यह पुस्तक विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के लिए एक इनसाइक्लोपीडिया का काम करेगी। यह संग्रहणीय पुस्तक, एक तरह का पोर्टेबल संग्रहालय है। इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले हर जिज्ञासु को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक शोध-सामग्री के रूप में उपयोगी होगी। 

इस अभूतपूर्व कार्य के लिए लेखक को हार्दिक बधाई।

संजय भारद्वाज

 9890122603

sanjayuvach2018@gmail.



जैन जो कहते हैं वो करके भी दिखते हैं - प्रो.अरावमुदन



नई दिल्ली , 30 अक्टूबर 2025     श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली के जैनदर्शन विभाग द्वारा संचालित जैन विद्या डिप्लोमा पाठ्यक्रम के नवीन सत्र का शुभारंभ किया गया एवं पूर्व सत्र में उत्तीर्ण श्रेष्ठ अंक प्राप्त विद्यार्थियों को प्राकृत जैनागम परिषद द्वारा प्रवर्तित पंडित दौलतराम पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया । इस पुरस्कार को 5 श्रेष्ठ अंक प्राप्त विद्यार्थी दिनेश जैन , प्रीति जैन, पूजा जैन  सुजय विश्वास एवं सुनय जैन ने गुरुजनों के करकमलों से प्राप्त किया । प्रोत्साहन राशि प्रो.वीरसागर जैन जी द्वारा प्रदान की गई । 

इस कार्यक्रम के अंतर्गत विशिष्ट व्याख्यान के रूप में विभागाध्यक्ष प्रो. वीरसागर जैन जी ने जैन धर्म की विशेषताएँ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि एक समय था जब श्रमण संस्कृति भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त थी । इसका मूल कारण उसकी कुछ ऐसी मौलिक विशेषताएं हैं जो अन्यत्र नहीं हैं । उन्होंने 22 बिंदुओं के माध्यम से जैन दर्शन की अद्भुत विशेषताएँ बताते हुए उसका महात्म्य प्रगट किया । 

कार्यक्रम की शुरुआत मंगलाचरण से हुई जिसमें शोधछात्र पारस जैन ने प्राकृत एवं शोध छात्रा कीर्ति संसंवाल ने संस्कृत में मंगलाचरण किया ।कार्यक्रम के मुख्य संयोजक  प्रो. अनेकान्त कुमार जैन जी ने संकाय प्रमुख ,विभागाध्यक्ष एवं मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए जैन विद्या डिप्लोमा कोर्स का परिचय एवं विभाग की गतिविधियों का परिचय दिया  ।  

 


मुख्य अतिथि श्री जिनेश जैन जी (CA) ने अगले सत्र से 10 विद्यार्थियों को प्रतिवर्ष डिप्लोमा कराने की जिम्मेदारी लेते हुए अत्यंत उत्साह से अपने विचार व्यक्त किये  एवं पीठाध्यक्ष अरावमुदन जी ने प्रेरणावचन द्वारा सभी को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि अन्य लोग तो सिद्धांत को सिर्फ बताते हैं ,किंतु जैन लोग सिर्फ बताते ही नहीं बल्कि उसे करके भी दिखाते हैं । इस अवसर पर जैन दर्शन विभाग के छात्र अंकित जैन द्वारा प्रकाशित अहिंसा प्रभावना पत्रिका का विमोचन भी किया गया । अंत में सभी के जलपान की व्यवस्था अपने शोधकार्य सम्पन्न होने के उपलक्ष्य में शोधार्थी पारस एवं प्रशांत जैन ने की ।

कार्यक्रम के अंत में शोधार्थी श्रुति जैन ने सभी के विचारों की सराहना करते हुए सभी उपस्थित जनों का धन्यवाद ज्ञापन किया । कार्यक्रम में प्रो कुलदीप एवं विभाग के सभी शोधार्थी और विद्यार्थियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति ने कार्यक्रम को सफल बनाया ।


प्रेषक - श्रुति जैन

शोधार्थी , जैनदर्शन विभाग


सेल्फी



अनिता रश्मि


वे नामी पशु प्रेमी! अनेक पुरस्कारों से सज्जित, अनेक संस्थाओं से सम्मानित! घर में सम्मान पत्रों से दीवारें अटीं पड़ीं। समाचार पत्रों की कतरनों से कबर्ड भरा-पूरा। 

     उस दिन रास्ते में कई लोग मिलकर एक व्यक्ति की मरम्मत कर रहे थे। वह चिल्ला रहा था। रिरियाहट, गिड़गिड़ाहट उसकी आवाज़ में 

 "छोड़ दो।...हमको छोड़ दो। अब ऐसा नहीं करेंगे।...मेरा बच्चा भूखा था, इसलिए ब्रेड लिया था। मत मारो। हम बहुत दूर से भूखे-पियासे पैदल चलकर आ रहे हैं।" 

सामने ब्रेड कुचला पड़ा था। और भी कुचलनेवाले पाँव उस पर पड़ रहे थे। उन्होंने देखा, आगे बढ़ गए। 


बढ़ते गए, आवाजों को अनसुना कर। थोड़ी ही दूर पर बिल्ली का एक बच्चा नाली में गिरा नजर आया। कुछेक क्षणों बाद उसे नाली से बाहर निकालते हुए वे सेल्फी पर सेल्फी ले रहे थे। 

अनिता रश्मि




विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित 'श्रीमती अनीता प्रभाकर स्मृति कहानी प्रतियोगिता'- तृतीय (2025-26))


श्रीमती अनीता प्रभाकर विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान की पूर्व न्यासी रहीं। वे प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर की ज्येष्ठ पुत्री थीं। हिंदी में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे हिंदी की प्राध्यापिका रहीं। उन्होंने  अनेक कहानियों, कविताओं आदि की रचना करते हुए हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। 


उक्त कहानी प्रतियोगिता के प्रमुख नियम निम्न प्रकार होंगे—

1- इस प्रतियोगिता में सभी आयु वर्ग के कथाकार भाग ले सकेंगे।

2- कहानी मूलतः हिंदी में लिखी होनी चाहिए न कि किसी अन्य भाषा से अनूदित की गई हो।

3- कहानी बोलचाल की हिंदी में लिखी गयी हो तथा यह ध्यान रखा गया हो कि उसमें अन्य भाषा के शब्दों का धाराप्रवाह प्रयोग न हो।

4- रचनाकार की मौलिक और अप्रकाशित कहानी ही प्रतियोगिता के लिए मान्य होगी।

5- प्रतियोगिता हेतु प्रेषित कहानी के किसी व्यक्ति, समूह अथवा क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित न होने, मौलिक होने, मूलतः देवनागरी हिंदी में लिखे जाने तथा प्रतियोगिता का परिणाम घोषित किए जाने की तिथि तक किसी भी माध्यम में प्रकाशित/प्रसारित न किए/कराने का शपथ-पत्र लेखक को कहानी के साथ अलग से देना होगा ।

6- कहानी का विषय मानव एवं राष्ट्रीय जीवन मूल्यों के अन्तर्गत हो। मूल्यहीनता की बात करने वाले एवं उसको बढ़ावा देने वाले विषय स्वीकार नहीं किए जाएँगे।

7-- कहानी न्यूनतम लगभग 2000 व अधिकतम लगभग 5000 शब्दों की हो। 

8-  कहानी यूनिकोड मंगल फोंट में अथवा कृतिदेव 10 फोंट में वर्ड की फाइल / Pdf  में 14 फोंट साइज में लाइन स्पेस 1.5 में टाइप की गयी हो। 

9- प्रतियोगिता हेतु भेजने से पहले कहानी की वर्तनी, व्याकरण चिह्न आदि को ठीक प्रकार से जाँच लें। किसी भी प्रकार की अशुद्धि को कहानी के प्रस्तुतीकरण की कमजोरी ही माना जाएगा।

10- कहानी की फाइल में कहीं भी लेखक अपना नाम, पता, मोबाइल अथवा फोन नम्बर तथा ई-मेल या कोई पहचान चिह्न नहीं लिखेंगे। ये सब सूचनाएँ कहानी का शीर्षक बताते हुए ई-मेल के बोर्ड पर पेस्ट करनी होंगी।

11- कहानी भेजने की अन्तिम तिथि -'31 दिसम्बर 2025'  है। इसके बाद प्राप्त कहानियों को प्रतियोगिता में शामिल नहीं किया जाएगा।

12- कहानी प्रतियोगिता का परिणाम मार्च 2026 में फेसबुक व वाट्सएप समूहों के माध्यम से घोषित किया जाएगा।

13- प्राप्त कहानियों को प्रतियोगिता में तीन चरणों से गुजारा जाएगा—

(अ)   एक, कोडिंग—ई-मेल से प्राप्त समस्त कहानियों को एक निश्चित कोड नम्बर दिया जाना। 

(आ) दो, प्रथम पाठ—समस्त कहानियों का प्रथम पाठ संस्था के सक्षम सदस्यों द्वारा करके उपयुक्त कहानियों को ही निर्णायकों तक पहुँचाना।

(इ)   तीन, निर्णायक पाठ—निर्णायक के रूप में आमंत्रित कहानी विशेषज्ञों को कहानियाँ भेजना तथा उनके माध्यम से कथ्य की प्रकृति, उसका समसामयिक अथवा ऐतिहासिक महत्व, भाषा-शैली, संवाद योजना आदि की दृष्टि से प्रत्येक कहानी पर अंक प्राप्त करना।

(ई) अन्तिम अंक तालिका—प्राप्त अंकों के आधार पर प्रत्येक कहानी का स्तर निर्धारित किया जायेगा। 

14- विजेता कथाकारों को सम्मान स्वरूप निम्न उपहार दिये जाएँगे—

(अ)   प्रथम पुरस्कार—रुपये 11,100/-

(आ)   द्वितीय पुरस्कार— रुपये 7,500/-

(इ)     तृतीय पुरस्कार— रुपये 5,100/-

(ई)     पाँच सांत्वना पुरस्कार— रुपये 3,100/- प्रत्येक

15- पुरस्कार योग्य अधिक कहानियों का चयन होने की दशा में सम्बन्धित वर्ग की पुरस्कार राशि को विजेता कहानीकारों के बीच बराबर-बराबर बाँट दिया जाएगा।

16- चयनित कहानियों के बारे में संस्था द्वारा नियोजित निर्णायकों का निर्णय अन्तिम माना जाएगा जो कि सभी प्रतिभागियों को मानना होगा।

17- पुरस्कृत घोषित सभी कहानीकारों को दिल्ली में आयोजन कर सम्मानित करने की योजना रहेगी तथापि इस पर निर्णय समय के अनुकूल बाद में ही लिया जा सकेगा। 

18- यदि सम्मान समारोह किसी कारण-विशेष की वजह से आयोजित नहीं किया जा सका तो सम्मान पत्र एवं सम्मान राशि का प्रेषण विजेताओं को सीधे कर दिया जाएगा।

19- इस आयोजन से संबंधित सभी निर्णय लेने का अधिकार विष्णु प्रभाकर  प्रतिष्ठान न्यास को होगा, अन्य किसी को नहीं।

20- सभी पुरस्कृत कहानियों का एक साझा संकलन  प्रकाशित किया जाएगा ।

21- प्रतियोगी अपनी कहानियाँ प्रतिष्ठान के ई-मेल  --

vishnuprabhakarpratishthan@gmail.com

अथवा कार्यालय के पते पर स्पीड पोस्ट द्वारा भेजें । प्रतिष्ठान का पता ..

विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान 

ए - 249, सेक्टर  - 46,

नोएडा - 201303

निवेदक

अतुल कुमार (मंत्री) 

 नवीन कुमार गोयल (अध्यक्ष)                                

विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान


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