कसूरवार कौन

 अनिता रश्मि 

सविता की महेश ने रक्षा की। जान पर खेलकर बचाया उसे। वह उसका आभार मानती रही। सविता को उसकी झोपड़ी में पहुँचाया और पुलिस को इत्तिला कर दी। कर्तव्य पालन कर निश्चिंत हो गया, अब पुलिस गुंडों को देख लेगी। 

पुलिस भी काफी तत्पर। दारोगा गुंडों को पकड़ने के लिए कृतसंकल्प। पूछताछ जारी। 

रात के बारह बजे तक दारोगा ने अपने मकान में कदम नहीं रखा। प्रतीक्षारत बीवी निश्चिंत - काम में इतने इंन्वाल्व हो ही जाते हैं। 

दूसरे दिन की बस इतनी कथा कि सवेरे सविता का शव पँखे से लटका मिला और नौ बजे तक उसकी आत्महत्या का जिम्मेदार महेश पकड़ लिया गया। 

इधर मुकेश के कानों में फोन पर सविता का आर्तनाद गूँज रहा था, "दारोगा को छोड़ना नय बाबू...एकदम नय छोड़ना।" 


स्वयं को टटोले

 एक राह पर चलते -चलते दो व्यक्तियों की मुलाकात हुई । दोनों को एक ही शहर में 10 दिन रुकना था अतः साथ ही रहे।दस दिन बाद दोनों के अलग होने का समय आया तो एक ने कहा- भाई साहब !दस दिन तक हम दोनों साथ रहे, क्या आपने मुझे पहचाना ?दूसरे ने कहा:-  नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।

पहला यात्री बोला महोदय, मैं एक नामी चोर व चालाक व्यक्ति हूँ,परन्तु आप तो हमसे भी ज्यादा चालाक निकले।दूसरा यात्री बोला कैसे?पहला यात्री- कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर दस दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला । इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है ? बिल्कुल खाली हाथ हैं।दूसरा यात्री मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं भी हैं।पहला यात्री बोला तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिले क्यों नहीं ?दूसरा यात्री- मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था और तुम दस दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे।अपनी पोटली सँभालने की जरूरत ही नहीं समझी । तो फिर तुम्हें कुछ मिलता कहाँ से ?यही समस्या हर इंसान की है। क्योंकि निगाह सदैव दूसरे की गठरी पर होती है !ईश्वर नित नई खुशियाँ हमारी झोल़ी में डालता है, परन्तु हमें अपनी गठरी पर निगाह डालने की फुर्सत ही नहीं है । यही सबकी मूल भूत समस्या है । जिस दिन से इंसान दूसरे की ताकझांक बंद कर देगा उस क्षण सारी समस्या का समाधान हो जाऐगा !

अपनी गठरी ही टटोलें। जीवन में सबसे बड़ा गूढ़ मंत्र है । स्वयं को टटोले और जीवन-पथ पर आगे बढ़ें…सफलतायें आप की प्रतीक्षा में हैं।रजनी मिश्रा।

गौरैया

सबेरे रोज़ छत पर गीत तो गाती है गौरैया 

मगर जाने कहाँ फिर सारा दिन जाती है गौरैया 


हजारों पेड़ कटते जब कहीं बनता है हाई- वे 

सड़क के नाम से ही अब तो डर जाती है गौरैया 


शिकारी हर तरफ़ बैठे हैं ये भी जानती है वो  

मगर बच्चों को दाने खोजकर लाती है गौरैया 


हमारे पास तो घर है कि जिसमें एक हीटर है 

मगर इस ठण्ड से बचने कहाँ जाती है गौरैया 


अमूमन चैत्र के महिने में अपना घर सजाती है 

मगर कुछ जेठ के पहले ही शर्माती है गौरैया 


सुहूलत लाख हों लेकिन ग़ुलामी तो ग़ुलामी है 

किसी पिंजरे में देकर जान बतलाती है गौरैया 


@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

नंगेपन को आधुनिकता और दिगम्बरत्व को अश्लीलता समझने की भूल में भारतीय समाज


प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली  


दिगंबर जैन सम्प्रदाय के परम आराध्य जिनेन्द्र देव या तीर्थंकरों की खड्गासन मुद्रा में निर्वस्त्र और नग्न प्रतिमाओं को लेकर तथा दिगम्बर जैन मुनियों के नग्न विहार पर खासे संवाद और विवाद होते रहते हैं | नग्नता को अश्लीलता के परिप्रेक्ष्य में भी देखकर पीके जैसी फिल्मों में इसे मनोविनोद के केंद्र भी बनाने जैसे प्रयास होते रहते हैं | 


आये दिन आज के शिक्षित और ज्ञान युक्त विकसित समाज के बीच भी त्याग तपस्या की मूर्ति स्वरूप दिगम्बर जैन मुनि जब सम्पूर्ण भारत में नंगे पैर पैदल बिहार करके जगत को अध्यात्म, अहिंसा ,शांति और भाई चारे का संदेश देते हैं तब कई बार असामाजिक तत्त्व उन्हें अपमानित करने और कष्ट पहुंचाने का कार्य करके अपने अज्ञान का और अशिष्टता का परिचय देते रहते हैं ।


दिगम्बर साधना के पीछे,दिगंबर जैन मूर्तियों के पीछे जो दर्शन है ,जो अवधारणा है उसे समझे बिना ही अनेक अज्ञानी लोग कुछ भी कथन करने से पीछे नहीं रहते | इस विषय को आज के विकृत समाज को समझाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है | एक साहित्यकार का कथन है कि भारत में ऐसे दिन आने वाले हैं जब लोग युद्ध का तो समर्थन करेंगे और आध्यात्मिक नग्न साधना का विरोध करेंगे ।  


सुप्रसिद्ध जैन मनीषी सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री जी ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जैनधर्म’ में मूर्तिपूजा के प्रकरण में पृष्ठ ९८ -१०० तक इसकी सुन्दर व्याख्या की है जिसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर जी का वह वक्तव्य उद्धृत किया है जो उन्होंने श्रवणबेलगोला स्थित सुप्रसिद्ध भगवान् गोमटेश बाहुबली की विशाल नग्न प्रतिमा को देखकर प्रगट किये थे | 


वे लिखते हैं - जैन मूर्ति निरावरण और निराभरण होती है जो लोग सवस्त्र और सालंकार मूर्ति की उपासना करते हैं उन्हें शायद नग्न मूर्ति अश्लील प्रतीत होती है | इस संबंध में हम अपनी ओर से कुछ ना लिखकर सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर के वे उद्गार यहां अंकित करते हैं जो उन्होंने श्रवणबेलगोला में स्थित भगवान बाहुबली की प्रशांत किंतु नग्न मूर्ति को देखकर अपने एक लेख में व्यक्त किए थे |  

वे लिखते हैं – ‘सांसारिक शिष्टाचार में आसक्त हम इन मूर्ति को देखते ही मन में विचार करते हैं कि मूर्ति नग्न है | हम मन में और समाज में भांति भांति की मैली वस्तुओं का संग्रह करते हैं ,परंतु हमें उससे नहीं होती है घृणा और नहीं आती है लज्जा |  परंतु नग्नता देखकर घबराते हैं और नग्नता में अश्लीलता का अनुभव करते हैं | इसमें सदाचार का द्रोह है और यह लज्जास्पद है | अपनी नग्नता को छिपाने के लिए लोगों ने आत्महत्या भी की है परंतु क्या नग्नता वस्तुतः अभद्र है वास्तव में श्रीविहीन है ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसकी लज्जा आती | पुष्प नग्न होते हैं पशु पक्षी नग्न ही रहते हैं | प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोई है ऐसे बालक भी नग्न ही घूमते हैं | उनको इसकी शर्म नहीं आती और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी इसमें लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता | लज्जा की बात जाने दें | इसमें किसी प्रकार का अश्लील, विभत्स, जुगुप्सा, विश्री अरोचक हमें लगा है | ऐसा किसी भी मनुष्य को अनुभव नहीं | इसका कारण क्या है ? कारण यही की नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ स्वभाव शुदा है | 

मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने मन के विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्ते की ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभाव सुंदर नग्नता उसे सहन नहीं होती | दोष नग्नता का नहीं है पर अपने कृत्रिम जीवन का है | बीमार मनुष्य के समक्ष परिपथ को फल पौष्टिक मेवा और सात्विक आहार भी स्वतंत्रता पूर्वक रख नहीं सकते | 

यह दोष उन खाद्य पदार्थों का नहीं पर मनुष्य के मानसिक रोग का है | नग्नता छिपाने में नग्नता की लज्जा नहीं, पर  इसके मूल में विकारी पुरुष के प्रति दया भाव है, रक्षणवृति है | पर जैसे बालक के सामने-नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है वैसे ही पुण्यपुरुषों के सामने वीतराग विभूतियों के समक्ष भी शांत हो जाते हैं | जहां भव्यता है, दिव्यता है, वहां भी मनुष्य पराजित होकर विशुद्ध होता है | मूर्तिकार सोचते तो माधवीलता की एक शाखा जंघा के ऊपर से ले जाकर कमर पर्यंत ले जाते | इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नहीं थी | पर फिर तो उन्हें सारी फिलोसोफी की हत्या करनी पड़ती | बालक आपके समक्ष लग्न खड़े होते हैं | उस समय में कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियों के समान अपने हाथों द्वारा अपनी नग्नता नहीं छुपाते | उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नता को पवित्र करती है | उनके लिए दूसरा आवरण किस काम का है ? 

जब मैं काका कालेलकर के पास गोमटेश्वर की मूर्ति देखने गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध अनेक थे | हम में से किसी को भी इस मूर्ति का दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालूम नहीं हुआ | अस्वाभाविक प्रतीत होने का प्रश्न ही नहीं था | मैंने अनेक मूर्तियां देखी हैं और मन विकारी होने के बदले उल्टा इन दर्शनों के कारण ही निर्विकारी होने का अनुभव करता है | मैंने ऐसी भी मूर्तियां तथा चित्र देखें हैं कि जो वस्त्र आभूषण से आच्छादित होने पर भी केवल विकार प्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई हैं | केवल एक औपचारिक लंगोट पहनने वाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्य का वातावरण उपस्थित करते हैं | इसके विपरीत सिर से पैर पर्यंत वस्त्राभूषणों से लदे हुए व्यक्ति आपके एक इंगित मात्र से अथवा अपने नखरे के थोड़े से इशारे से मनुष्य को अस्वस्थ कर देते हैं, नीचे गिरा देते हैं | अतः हमारी नग्नता विषयक दृष्टि और हमारा विकारों की ओर सुझाव दोनों बदलने चाहिए | हम विकारों का पोषण करते जाते हैं और विवेक रखना चाहते हैं |’ 


इसके बाद पण्डित जी लिखते हैं कि ‘काका साहब के इन उद्गारों के बाद नग्नता के संबंध में कुछ कहना शेष नहीं रहता | अतः जैन मूर्तियों की नग्नता को लेकर जैन धर्म के संबंध में जो अनेक प्रकार के अपवाद फैलाए गए हैं वह सब सांप्रदायिक प्रद्वेषजन्य गलतफहमी के ही परिणाम हैं |


 जैन धर्म वीतरागता का उपासक है | जहां विकार है, राग है, कामुक प्रवृत्ति है, वही नग्नता को छिपाने की प्रवृत्ति पाई जाती है | निर्विकार के लिए उसकी आवश्यकता नहीं है | इसी भाव से जैन मूर्तियां नग्न होती हैं | उनके मुख पर सौम्यता और विरागता होती है | उनके दर्शन से विकार भागता है ना कि उत्पन्न होता है |’

कुल मिलाकर नग्नता बुरी नहीं होती ,बुरा होता है उस नग्नता के पीछे छुपा हुआ हमारा भाव । इसे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पतन की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा कि साधना के उद्देश्य से धारण स्वाभाविक नग्नता का हम विरोध करते हैं और अश्लीलता कामुकता से प्रेरित नग्नता के हम पक्षधर होते जा रहे हैं । 


*आचार्य - जैन दर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय

,नई दिल्ली -110016



दिसम्बर हमारी नजर में





काँपोगी जब ठण्ड से, आओगी तुम पास।

तभी दिसम्बर यह मुझे, लगता है प्रिय मास।।


रहे  दिसम्बर  में  सजन,  संगम  सातों  वार।

करना जीवन भर पिया, मम सोलह श्रृंगार।।


इक शेर


किसी अहसास से दामन जो मेरा भीग जाता है 

पवन के वेग से उड़ता दिसम्बर ख़ूब भाता है 


ग़ज़ल


दिसम्बर जा रहा है जनवरी गुलज़ार हो जाए

तमन्ना है सनम इक बार बस दीदार हो जाए


रखूँ कैसे क़दम मैं हमनवा के दिल के गुलशन में

अगर वो सौत के दिल का किराएदार हो जाए


समझती थी जिसे मैं बाग़बाँ माह-ए-मुहब्बत का

उसी के इश्क़ में दिल की कली कचनार हो जाए


बहाना गुनगुनी-सी धूप का करके चली आई

कभी तो सामने मेरे विसाल-ए- यार हो जाए


गुलाबी ठंड में भाने लगा सूरज ही रजनी को

क़मर को रश्क़ फिर कोई नहीं सरकार हो जाए


©रजनी गुप्ता 'पूनम चंद्रिका'

 लखनऊ  (उत्तर प्रदेश)


क्या होता

कभी यूं ही बैठे बैठे मैं सोचती हूँ,

 शब्दों की महिमा मन ही मन गुनती हूँ,

 

 उनींदे शिशु को जब मां थपकी दे सुलाती 

 शब्दों के अभाव में उसे लोरी कैसे सुनाती?

  स्नेह और ममत्व तो दे देती अपने स्पर्श और चुंबन से

   पर लोरी के बिना उन्हें परीलोक कैसे पहुंचाती?

   

 गुरु के आश्रम में शिष्य सीख लेते आचार- व्यवहार

  शब्दों के बिना वे मंत्र कैसे पाते ?

  कैसे गुंजरित होता आश्रम मंत्रोच्चार से! मार्गदर्शक वेदों को हम कैसे पाते?

  

 शब्द न होते तो कैसे बनते भजन- कीर्तन 

 ईश्वर तक अपना निवेदन हम कैसे पहुंचाते?

 

 निकट होने पर प्रेमी नैन -सैन से करते बतियां दूर होने पर प्रेमपत्र तो कतई न लिख पाते!!

 

 क्रोधित होने पर लड़ लेते लात -घूंसे चला गालियों के बिन मन की भड़ास कैसे निकालते!!!

 


 विरह की वेदना तो हो जाती प्रकट आहोंसे

  पर कालिदास मेघदूतम् तो न लिख पाते !

  

शब्द ही न होते तो कैसे बनती भाषा ?

भिन्न भाषा -भाषी फिर कैसे टकराते ??


होती न भाषाएं तो क्या युद्ध भी न होते !

वसुधा के सारे प्राणी क्या एक बड़ा कुटुंब हो पाते ??


क्या होता यदि शब्द ही न होते??

कभी मन ही मन  मैं यूं ही गुनती हूँ,

शब्दों की महिमा के बारे में सोचती हूँ।


सरोजिनी पाण्डेय्

26/4/21

मानवाधिकार दिवस

 आज मानवाधिकार दिवस है। आज का दिन मनुष्यता के आत्मावलोकन हेतु समर्पित है। वर्ष 2025 के मानवाधिकार दिवस की विषयवस्तु है-"हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतें”। 

आज हम यह सोचें कि मनुष्यता दिन प्रतिदिन क्यों छीजती जा रही है और सभ्य होने के तथाकथित दंभ के साथ मानवीय मूल्यों और मानवीय संवेदना की राह क्यों धूल धूसरित हो रही है? सभ्य होने की अंधी दौड़ में हम कंक्रीट के जंगलों में गुम होते जा रहे हैं और अन्य प्राणियों ही नहीं वरन् मनुष्य के लिए भी खतरा बनते जा रहे हैं। कोरोना विषाणु के विश्वव्यापी मानव जनित संकट तिस पर अल्फा, डेल्टा और ओमिक्रॉन जैसे रूप बदलते इस बहुरूपिए, दिन प्रतिदिन आते भूकंप, चक्रवात और भूस्खलन और युद्धों, आतंकवादी घटनाओं आदि ने जता दिया है कि यदि हम मनुष्य एकजुट होकर मनुष्यता के पक्ष में नहीं खड़े हुए तो आने वाला समय हमारे लिए विनाश से भरा हो सकता है। ऐसे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत और बाबा नागार्जुन की कविताएं मनुष्यता के प्रति पुनः आश्वस्ति जगाती हैं तो  हरिवंश राय बच्चन एवं अज्ञेय आदि की कविताएं हमें आसन्न खतरे के प्रति सचेत भी करती हैं ~


मनुष्यता / मैथिलीशरण गुप्त

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸

मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸

वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|

अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|

अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸

अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸

पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸

विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


मानव / सुमित्रानंदन पंत

 

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,

मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,

निर्मित सबकी तिल-सुषमा से

तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!

यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,

मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,

न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,

छाया-प्रकाश के रूप-रंग!

धावित कृश नील शिराओं में

मदिरा से मादक रुधिर-धार,

आँखें हैं दो लावण्य-लोक,

स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!

पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,

दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,

पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,

कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!

यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,

नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!

अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,

आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!

आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,

उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,

विश्वास, असद् सद् का विवेक,

दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!

मानसी भूतियाँ ये अमन्द,

सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--

हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,

संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!

मानव का मानव पर प्रत्यय,

परिचय, मानवता का विकास,

विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,

सब एक, एक सब में प्रकाश!

प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,

उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,

क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में

यदि बने रह सको तुम मानव!


मनुष्य हूँ / नागार्जुन


नहीं कभी क्या मैं थकता हूँ ?

अहोरात्र क्या नील गगन में उड़ सकता हूँ ?

मेरे चित्तकबरे पंखो की भास्वर छाया

क्या न कभी स्तम्भित होती है

हरे धान की स्निग्ध छटा पर ?

-उड़द मूँग की निविड़ जटा पर ?

आखिर मैं तो मनुष्य हूँ—–

उरूरहित सारथि है जिसका

एक मात्र पहिया है जिसमें

सात सात घोड़ो का वह रथ नहीं चाहिए

मुझको नियत दिशा का वह पथ नहीं चाहिए

पृथ्वी ही मेरी माता है

इसे देखकर हरित भारत , मन कैसा प्रमुदित हो जाता है ?

सब है इस पर ,

जीव -जंतु नाना प्रकार के

तृण -तरु लता गुल्म भी बहुविधि

चंद्र सूर्य हैं

ग्रहगण भी हैं

शत -सहस्र संख्या में बिखरे तारे भी हैं

सब है इस पर ,

कालकूट भी यही पड़ा है

अमृतकलश भी यहीं रखा पड़ा है

नीली ग्रीवावाले उस मृत्यंजय का भी बाप यहीं हैं

अमृत -प्राप्ति के हेतु देवगण

नहीं दुबारा

अब ठग सकते

दानव कुल को।


इंसान की भूल / हरिवंशराय बच्चन


भूल गया है क्यों इंसान!

सबकी है मिट्टी की काया,

सब पर नभ की निर्मम छाया,

यहाँ नहीं कोई आया है ले विशेष वरदान।

भूल गया है क्यों इंसान!

धरनी ने मानव उपजाये,

मानव ने ही देश बनाये,

बहु देशों में बसी हुई है एक धरा-संतान।

भूल गया है क्यों इंसान!

देश अलग हैं, देश अलग हों,

वेश अलग हैं, वेश अलग हों,

रंग-रूप निःशेष अलग हों,

मानव का मानव से लेकिन अलग न अंतर-प्राण।

भूल गया है क्यों इंसान!


हिरोशिमा / अज्ञेय

 

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं,

नगर के चौक :

धूप बरसी

पर अंतरिक्ष से नहीं,

फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहिन

सब ओर पड़ीं-वह सूरज

नहीं उगा था वह पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के:

काल-सूर्य के रथ के

पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर

बिखर गए हों

दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!

केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की

दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।

फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:

मानव ही सब भाप हो गए।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्‍थरों पर

उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज

मानव को भाप बनाकर सोख गया।

पत्‍थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।


मिर्ज़ा ग़ालिब 

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,

आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना।


सुदर्शन फाखिर

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं,

जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं।

खारिज इंसानियत से उस को समझो,

इंसाँ का अगर नहीं है हमदर्द इंसान।


मसूद मैकश मुरादाबादी

प्यार की चाँदनी में खिलते हैं,

दश्त-ए-इंसानियत के फूल हैं हम।


निदा फाजली

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा,

वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा।


गुलजार देहलवी

जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों जब्ह होती हो,

जहां तजलील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना।

बशीर बद्र

इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं,

तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं।

अल्ताफ हुसैन हाली

फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना,

मगर इस में लगती है मेहनत ज़ियादा।

जिगर मुरादाबादी

आदमी के पास सब कुछ है मगर,

एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं।

हफीज जौनपुरी

आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो ,

इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़।


हैदर अली आतिश

कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश',

शैख़ हो या कि बरहमन हो पर इंसाँ होवे।

कामिल बहज़ादी

क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह,

कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं।

आजिज़ मातवी

जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़,

मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम।

© प्रो. पुनीत बिसारिया

अधिष्ठाता कला संकाय एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग,

 बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी, उत्तर प्रदेश



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