आज मानवाधिकार दिवस है। आज का दिन मनुष्यता के आत्मावलोकन हेतु समर्पित है। वर्ष 2025 के मानवाधिकार दिवस की विषयवस्तु है-"हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतें”।
आज हम यह सोचें कि मनुष्यता दिन प्रतिदिन क्यों छीजती जा रही है और सभ्य होने के तथाकथित दंभ के साथ मानवीय मूल्यों और मानवीय संवेदना की राह क्यों धूल धूसरित हो रही है? सभ्य होने की अंधी दौड़ में हम कंक्रीट के जंगलों में गुम होते जा रहे हैं और अन्य प्राणियों ही नहीं वरन् मनुष्य के लिए भी खतरा बनते जा रहे हैं। कोरोना विषाणु के विश्वव्यापी मानव जनित संकट तिस पर अल्फा, डेल्टा और ओमिक्रॉन जैसे रूप बदलते इस बहुरूपिए, दिन प्रतिदिन आते भूकंप, चक्रवात और भूस्खलन और युद्धों, आतंकवादी घटनाओं आदि ने जता दिया है कि यदि हम मनुष्य एकजुट होकर मनुष्यता के पक्ष में नहीं खड़े हुए तो आने वाला समय हमारे लिए विनाश से भरा हो सकता है। ऐसे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत और बाबा नागार्जुन की कविताएं मनुष्यता के प्रति पुनः आश्वस्ति जगाती हैं तो हरिवंश राय बच्चन एवं अज्ञेय आदि की कविताएं हमें आसन्न खतरे के प्रति सचेत भी करती हैं ~
मनुष्यता / मैथिलीशरण गुप्त
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में|
अनाथ कौन हैं यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं|
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
मानव / सुमित्रानंदन पंत
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!
मनुष्य हूँ / नागार्जुन
नहीं कभी क्या मैं थकता हूँ ?
अहोरात्र क्या नील गगन में उड़ सकता हूँ ?
मेरे चित्तकबरे पंखो की भास्वर छाया
क्या न कभी स्तम्भित होती है
हरे धान की स्निग्ध छटा पर ?
-उड़द मूँग की निविड़ जटा पर ?
आखिर मैं तो मनुष्य हूँ—–
उरूरहित सारथि है जिसका
एक मात्र पहिया है जिसमें
सात सात घोड़ो का वह रथ नहीं चाहिए
मुझको नियत दिशा का वह पथ नहीं चाहिए
पृथ्वी ही मेरी माता है
इसे देखकर हरित भारत , मन कैसा प्रमुदित हो जाता है ?
सब है इस पर ,
जीव -जंतु नाना प्रकार के
तृण -तरु लता गुल्म भी बहुविधि
चंद्र सूर्य हैं
ग्रहगण भी हैं
शत -सहस्र संख्या में बिखरे तारे भी हैं
सब है इस पर ,
कालकूट भी यही पड़ा है
अमृतकलश भी यहीं रखा पड़ा है
नीली ग्रीवावाले उस मृत्यंजय का भी बाप यहीं हैं
अमृत -प्राप्ति के हेतु देवगण
नहीं दुबारा
अब ठग सकते
दानव कुल को।
इंसान की भूल / हरिवंशराय बच्चन
भूल गया है क्यों इंसान!
सबकी है मिट्टी की काया,
सब पर नभ की निर्मम छाया,
यहाँ नहीं कोई आया है ले विशेष वरदान।
भूल गया है क्यों इंसान!
धरनी ने मानव उपजाये,
मानव ने ही देश बनाये,
बहु देशों में बसी हुई है एक धरा-संतान।
भूल गया है क्यों इंसान!
देश अलग हैं, देश अलग हों,
वेश अलग हैं, वेश अलग हों,
रंग-रूप निःशेष अलग हों,
मानव का मानव से लेकिन अलग न अंतर-प्राण।
भूल गया है क्यों इंसान!
हिरोशिमा / अज्ञेय
एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृष्य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।
मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
मिर्ज़ा ग़ालिब
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना।
सुदर्शन फाखिर
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं,
जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं।
खारिज इंसानियत से उस को समझो,
इंसाँ का अगर नहीं है हमदर्द इंसान।
मसूद मैकश मुरादाबादी
प्यार की चाँदनी में खिलते हैं,
दश्त-ए-इंसानियत के फूल हैं हम।
निदा फाजली
उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा,
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा।
गुलजार देहलवी
जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों जब्ह होती हो,
जहां तजलील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना।
बशीर बद्र
इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं,
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं।
अल्ताफ हुसैन हाली
फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना,
मगर इस में लगती है मेहनत ज़ियादा।
जिगर मुरादाबादी
आदमी के पास सब कुछ है मगर,
एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं।
हफीज जौनपुरी
आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो ,
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़।
हैदर अली आतिश
कुफ़्र ओ इस्लाम की कुछ क़ैद नहीं ऐ 'आतिश',
शैख़ हो या कि बरहमन हो पर इंसाँ होवे।
कामिल बहज़ादी
क्या तिरे शहर के इंसान हैं पत्थर की तरह,
कोई नग़्मा कोई पायल कोई झंकार नहीं।
आजिज़ मातवी
जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़,
मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम।
© प्रो. पुनीत बिसारिया
अधिष्ठाता कला संकाय एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग,
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी, उत्तर प्रदेश